बुधवार, 25 अक्तूबर 2023

बसंत की बहार से सुखद है शरद की बयर

 दशहरे के आवन की एक अलग खुशबू है। दिल्ली जैसे धूल-धक्कड और प्रदूषण भरे शहर में आज भोर की हवा गाँव की याद दिला गई। ठुनकती-खुनकती सी यह हवा मुझे बसंती बयार से ज्यादा प्रिय है। गर्मियों की तपन और बरसात की पिचपिचाती रातों के बाद की यह हल्की ठंडी... जूही, चंपा मोगरे और हरसिंगार की संगति से छनी हुई...

मादक नहीं, गहरी परितृप्ति से भर देने वाली हवा..
यह हमेशा मुझे गाँव की याद दिलाती है। बुलाती है।
बचपन से प्रवासी रहा। गांव-घर से बहुत दूर का। साधन और संचार तब आज के से सुलभ न थे, इसलिए दूरियां और अधिक लगती थी। गर्मी की छुट्टियों से लौटने के बाद दशहरे की बेसब्री से प्रतीक्षा रहती। गांव की रामलीला, मेला और मेले में दूर-दूर शहरों कस्बों से लौटे हुए बहरवांसू और उनके बच्चे। इन दिनों हमारा छोटा-सा गांव भी फैल कर बड़ा हो जाता। दिल्ली-कलकत्ता, सूरत-बंबई सब के सब इस गांव में आ जुटते। मेरा गांव ही क्यों? आस-पास के गांवों के बहरवासू और उनके हिस्से के बंबई-लकत्ता भी। बिना उनके मेरे गांव के मेले की खुशबू भला कहां? यह इत्र फुलेल की खुशबू नहीं। उड़ती धूल और पसीने के बीच चाचा, दादा, भइया, दीदी जैसे रिश्तों की खुशबू थी।
भगवान राम की रजगद्दी के बाद गांव धीरे-धीरे खाली होने लगता । रिश्ते मेहमान और सवारियां बन अपने-अपने गांवों कस्बों और शहरों की ओर लौट जाते। जो बाकी बचते वे हंसुआ, खुरपी और धान के खेत होते। उनके जोतने, बोने, निराने और गोडने से ही शहरों-कस्बों में रोपे हुए हरसिंगार, चम्पा और जूही हर रात लॉनों में महक पाते हैं।
पिछले कुछ सालों से धान के खेत भी वही हैं, हँसुआ और खुरपी भी लेकिन रिश्तों के हर सिंगार वहां नहीं खिलते। भगवान राम का दरबार अब पहले-सा नहीं भरता। इसलिए वह खुशबू भी यहां दिल्ली में भटकती हुई आ मिली। उसे शायद किसी नए दर की तलाश हो।

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