बुधवार, 1 अगस्त 2012

छोटी मछली


अच्छा लगता था थूकना
बचपन में
तालाब के पानी में
मछलियों  का लपकना
निगल जाना उसे
उछल कर झटके से.

नहीं जनता था तब
कितना मुश्किल है
निगल जाना
किसी और की थूक
झपटकर
बड़ी मछली के डर से
छोटी मछली का .

सरहदें


परिंदा कोई तुम्हारे आँगन का
नहीं मार सकता पर
मेरे आँगन में ,

मूंद दीं बिलें चीटीयों की
कायम करती थी
जो बेवजह आवाजाही
तुम्हारे घर से मेरे घर की ,
रोशनदानों पर
जड़ दिए मोटे शीशे सके नापाक हवा
तुम्हारे दरख्तों की
मुझ तक
मेरे घर मेरी आद-औलादों तक ,
फिर, कैसे रोया
मेरा नवजात बच्चा
तुम्हारे बच्चे की आवाज में ?
अरे! अब हँस रहा
तुम्हारा बच्चा मेरे बच्चे की तरह.


क्या महफूज़ हैं ,
सच-मुच हमारी-तुम्हारी सरहदें   !

सोमवार, 30 जुलाई 2012

इतिहास


इतिहास कोई कब्र नहीं
जहाँ दफन है एक ठहरा हुआ समय .
इतिहास न कोई स्मारक
ना खँडहर.
वह जिन्दा है,
साँस ले रहा है,
मेरे  भीतर सदियों से .
कभी लम्बी उसांसें
कभी आहें तीखी वेदना भरी
कभी हांफता हुआ
निकल जाता बहुत दूर
और कभी अहिस्ते से सहला जाता
पास आकर अपनी ठंडी सांसों से...
इतिहास मेरे भीतर खेल रहा है
रचा रहा है मुझे
मेरे समय को.

रविवार, 1 जुलाई 2012

औरत


मूंज की चटाई पर लेटा
लगा रहा सुट्टा बीड़ी का
अधबुढ-जवान...

कुतिया अभी कल ही
ब्याई है
कई रंग के पिल्ले-
धूप सेंक रहे हैं सब
आंगन में पुआल पर...

गाय भूसा खाकर पागुर कर रही है...

अभी आकर
घर के भीतर से लौट गया है
पडोस का बच्चा...

चल रहे हैं सब
अपनी-अपनी गति से
जरूरत के मुताबिक अपनी-अपनी

'डोल रही है बिना मतलब
घर के इस छोर से उस छोर तक'
वह
घर की अकेली औरत.

गुरुवार, 21 जून 2012

वह चेहरा


जिन्दग़ी के हर मोड़ पर
ठहर कर खोजता हूं
वह चेहरा 
छोड़ आया जिसे
बहुत पहले
बहुत पीछे
बहुत दूर

खोजने की जिद्द में उसे
खोता हूं खुद को ही हर दफ़े
निकल जाता बहुत दूर अपने से...


हर दफ़े खोता हूं
भीड़ में
उस-जैसे अनेक-अनेक चेहरों की...

हर दफ़े
अनपाया-अनचीन्हा रह जाता 

खोया हुआ भीड़ में
वह चेहरा
अपना ही .