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शनिवार, 8 जुलाई 2023

रोहिणी

 रोहिणी बीत गई . कल मृगशिरा का अगमन हो गया . भयंकर ताप से तपने वाली नक्षत्र . बाबा कहते थे इसका तपना अच्छा है यह जितना तपेगी उतना ही अगली फसल के लिए अच्छा होगा. पर हमारी पीढी तो बस इतना जानती है ' उफ्फ इतनी गर्मी! इतनी तपन!" टीवी और मोबाइल के स्क्रीन पर चमकता तापमान देखकर कुछ एसी का तापमान एक प्वाइंट और कम कर लेते हैं तो कुछ कोल्ड ड्रिक या आइस्क्रीम की दो नई बोतल या बार के जुगाड में लग जाते हैं. नक्षत्रों के चक्कर में हमें क्यों उलझना? महानगर की सुविधा सम्पन्न जिंदगी में क्या हमारे लिए मृगशिरा क्या अर्द्रा ? सब बराबर .

याद भी कहाँ रहती हैं ये सारी. सत्ताइसों नक्षत्रों का नाम याद रखने वाली पीढी शायद अब गांव-गिरांव में भी कम बची होगी . किसानी भी पहले सी कहाँ रही ? हम सिंचाई की सुविधाओं से लैस, नई-नई तकनीक ग्रीन हाऊस और पोलीहाउस की खेती की ओर बढते हुए जमाने के लोग हम लोग भला क्या जानें इन नक्षत्रों का मोल . घाघ और भड्डरी का हम नई पीढी वालों को क्या पता ? आखिर योग के योगा और ध्यान के मेडिटेशन संस्करण की तरह इनका कोई विदेशी संस्करण भी तो नहीं आया अब तक. आता तो लोग योगा ट्रेनर की तरह नक्षत्रा ट्रेनर लगा लेते . वह नक्षत्र के अनुसार हेल्दी डाइट चर्ट, ड्रिंक और वर्काउट चार्ट बना कर देता . पर अफसोस पश्चिम वाले इधर ध्यान ही नहीं दे रहे हैं .
सच कहूँ तो मुझे भी नक्षत्र दो-चार ही याद रहती हैं . एक रोहिणी, दूसरी आर्द्रा और तीसरी हस्ति .
रोहिणी इसलिए कि इस नक्षत्र में हमारे बगीचे का सबसे सुस्वादु आम रोहिनियवा की पीतम्बरी आभा पेड के श्याम-हरित गात को ढंक लेती थी. मुझे लगता है बिहारी जरूर कभी ऐसे ही किसी आम के पेड के नीचे से गुजरे होंगे और तभी उनके मुँह से बरबस यह दोहा फूट पडा होगा:
मेरी भव-बाधा हरौ, राधा नागरि सोइ |
जा तन की झाईं परे, स्याम हरित-दुति होई ||
बाबा की समहुत की थाली में दधि, अक्षत और गुड के साथ इस आम की उपस्थिति अनिवार्य थी. रोली का काम खेत की मिट्टी करती थी . ग्रीष्म के ताप से तपी हुई मिट्टी से ज्यादा शुभ, शुद्ध या सात्विक दूसरा क्या होगा भला ?

अर्द्रा में भींगा मन

 आर्द्रा मेरी दूसरी पसंदीदा नक्षत्र है। कालिदास के यक्ष की रामटेक की पहाड़ियों पर मेघ आषाढ़ के पहले दिन भले आ जाते हों:

आषाढस्य प्रथम दिवसे मेघमाश्लिष्टसानुं,
वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श ।
पर अपने पूर्वांचल के गंगा मैदान में तो उनके कदम अक्सर आर्द्रा में ही पड़ते हैं। मृगशिरा के ताप से ताई हुई धरती पर वर्षा की पहली बूंदें अक्सर आर्द्रा में ही पड़ती हैं और उसकी सोंधी महक चारों ओर बिखर जाती है। समूची प्रकृति जीवन गंध से मह महा उठाती है और धरती की कुक्षी में सोए हुए बीज सहसा उसकी गोद में मुस्कुराने लगते हैं। यह मृगशिरा की लपटों से धरती के उद्धार की नक्षत्र है, जो प्रकृति में जीवन रस का संचार करती है। यह तृण-तरु सबको जीवन देती है, सबको आनंद और सुख बांटती है चाहे अपनी अकड़ में तना हुआ ताड़ हो या कहीं भी पसर जाने वाली लथेर दूब। अपन भी इस दूसरी कोटि में आते हैं सो हम भी जी भरकर पसरने का आनंद लूटते हैं।
इस के प्रिय होने का मेरे लिए एक अन्य कारण भी है। इस ऋतु का स्वागत हमारे घरों में खीर से होता है और विदाई पकवानों से। पुराने समय में बेटियों को अपने मायके से तीज की तरह ही आर्द्रा की बहँगी की भी प्रतीक्षा रहती थी। मुझ जैसे पेटू और रस लोभी व्यक्ति के लिए और क्या चाहिए? पावस और पायस की इतनी अच्छी संगति भला और कहां मिलेगी ? शायद इसी लिए नियति ने मुझे जन्म भी इसी अवधि में दिया। फिर पेटूपन और रसलोलुप होने में मेरा क्या दोष?

प्रकृति रही दुर्जेय

 जीवन हमेशा उत्तान होकर नहीं चलता। जब-तब जहां-तहां करवटीयाता रहता है। अगर ऐसा न हो तो अच्छे खासे आदमी का हाजमा खराब हो जाय। लेकिन जब वह बात बे बात करवटियाया ही रहे तो गंभीर समस्या हो सकती है। पिछले कुछ सालों से मौसम भी ऐसे ही लगातार करवटिया रहा है। प्रकृति भयंकर पीड़ा में है। वह बेचैन है, पर हमें क्या? अब तो मनुष्य की घुटती हुई सांसे भी हमें बेचैन नहीं करती। हम उसके भी अभ्यस्त होते जा रहे हैं। पहले प्रकृति हमारी अदम्य इच्छाओं की पूर्ति का टूल थी अब मनुष्य स्वयं उसका टूल है। कृत्रिम सूरज और कृत्रिम बरसात तक हम पहुंच चुके हैं, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और रोबोटिक्स मनुष्य बुद्धि और क्रिया के विकल्प बन चुके हैं। आर्टिफिशियल जीवन और सामाजिकता तो पहले ही जी रहे हैं।


शोध बता रहे हैं कि भूगर्भ के असीमित जल दोहन से पृथ्वी के झुकाव में बदलाव आ रहा है। इस लिए किउम्मीद है हम जल्द ही नई धरती भी बना लेंगे। लेकिन यह सब कब तक चलेगा? मनुष्य के अंत या धरती के अंत तक ? क्या तब भी कोई मनु कामायनी के मनु की तरह अपनी जाति और संस्कृति के विनाश पर इस तरह विलाप करता हुआ मिलेगा :

प्रकृति रही दुर्जेय, पराजित

हम सब थे भूले मद में;

भोले थे, हाँ तिरते केवल,

सब विलासिता के नद में।

सोमवार, 20 अक्टूबर 2014

भाषानाटकम्


प्रथमोध्यायः 

नटी : हे स्वामी! इधर पार्श्व में क्या हो रहा है ?
नट:  हे सखी इधर (मुखर्जी नगर में ) हिन्दी को लेकर संघ लोक सेवा आयोग की नीतियों की विरुद्ध  आंदोलन हो रहा है …
नटी : यह आंदोलन क्या होता है, प्रिय!
नट : प्रिये ! यह नए युग का यज्ञ है।
नटी : फिर, तो इसमें यजमान पुरोहित भी होंगे ?
नट : तुमने ठीक समझा । वह जो शित-केशी सौम्य मुख वाले सज्जन सबके माध्य में बे स्थित हैं, वे  हीं पुरोहित हैं ।
नटी : और आचार्य ?
नट : वह सामने स्थित प्रौढ़ सज्जन जो धान की हरित बालियों की बीच झरंगा क़ी पकी हुई पिंगल  बाली कि तरह शोभा पा रहे  हैं, वही इस यज्ञ की आचार्य हैं ।
नटी : इसके यजमान कौन हैं ?
नट : बेरोजगारी रूपी कीड़े द्वारा चाल दिए गए जड़ो वाले निरस वॄक्ष की चाल कि तरह शुष्क चेहरे वाले वे युवा ही उसके यजमान हैँ।
नटी : हे प्राणनाथ! इस यज्ञ का उद्देश्य क्या है ?
नट : हे भ्रामरी की तरह मधुर गुंजार करने वाली मेरी प्राण प्रिये ! यह अधुनिक राज सूय यज्ञ है ।
नटी: इसके सम्बन्ध में सुनकर मुझे उत्सुकता  हो रही है, मुझपर अनुग्रह करके इसकी संबन्ध में विस्तार से बताएँ ।
नट : यदि तुम इतनी उत्सुक हों तो सुनो..........

(नेपथ्य से)
यह आंदोलन अपना हित साधन करने का रास्ता है । इसका किसी भाषा से कोई सम्बन्ध नहीं । कुछ बुद्धिजीवी भी उसके साथ साथ हैं और स्टैटस बता रहे हैं की कुछ अध्यापक भी । पर, मुझे तो नहीं लगता कि ये कोई बहुत मह्त्वपूर्ण है क्योंकि ये सत्ता-व्यवस्था  में घुसने की होडा-होड़ी भर है। न तो इसका हिन्दी से कोई लेना देना है न हिन्दी भाषियों से।  यदि यह तथ्य है कि नई पद्धति लागू होने से पहले हिन्दी-भाषी और हिंदी माध्यम के छात्र अधिकारी बनाते रहे हैं तो यह भी तथ्य हैं की उन्होंने हिंदी भाषा के विकास में धेले भर का योगदान नहीं दिया । और मेरा यह भी दावा है की कल व्यवस्था के अंग बन जाएंगे तो वही करेंगे जो आज व्यवस्था कर रही  है। हिन्दी के लिए आंदोलन करने वाले लोगों पर लाठीयां बरसाएंगे ।
            रही बात गुरुजनों की तो पहले अकादमिक जगत में अंग्ऱेज़ी की बरचस्व को तोड़ कर दिखाएँ और पश्चिम (यूरोप और अमेरिका) के आतंक से निजात पा लें, तो हिंदी क्या भारत की हर भाषा खुद-ब-खुद अपना अब तक का सर्वश्रेष्ठ सथान पा लेगी। अन्यथा भाषा की राजनीति  में सर  फोड़ौव्वल  के अलावा कुछ नहीं  मिलने वाला

(एक पागल  का बड़बड़ाते  हुए तेजी से  प्रवेश।  एक अदृश्य (दैवीय) स्तम्भ में बंधी स्त्री के पास आकर ठहर जाता है और अबतक मौन साक्षी की तरह सारे उपक्रम क़ो निहारने वाली वह स्त्री आचनक बोल उठती है)

स्त्री  : हा हन्त !
मुझे राजनीति की शामिधा और क्षेत्रवाद के घी  की सम्मिलित अग्नि में जाला कर  भष्म करने की निमित्त इतना कपटाचार ? ओह, स्वार्थ-सिद्ध आवाहन मन्त्रों को सुनकर यह अग्नि  अपनी लाल लाल जिह्वा कितनी तेजी से लपलपा रही हैं , लगता है, यह दुष्ट अग्नि यज्ञ की पूर्णाहुति से पूर्व ही बालि-पशु के रूप में यूप से बंधी हुई मुझे इस शाल-स्तम्भ के  साथ ही जला देगी ।
(इस तरह कहती हुई वह स्त्री अचानक आग के घेरे में आजाती है ओर उसे बचाने की उपक्रम में पागल भी उस आग में कूद  जाता है।)

समवेत स्वर में : हे पाठक गण ! अग्नि देव हमारे द्वारा श्रद्धा पूर्वक दी गयी यह जोडा बलि स्वीकार  करे और इससे प्रसन्न होकर वह हमारी आपकी और सभी अभिजात जनों की प्रिय आंग्ला भाषा नाम्नी सभ्य, सुसंस्कृत और और सभी कार्यों में दक्ष कन्या क़ो स्वस्थ और समृद्ध बनाएं तथा सौंदर्य एवं लावण्य युक्त करे। वह वैसे ही हम सभी को प्रिया हो, जैसे द्रोपदी अपने पांचो पतियों की प्रीया थी ।



                             इति श्री भाषा नाटकस्य प्रथमो अध्यायः । 

शनिवार, 30 अगस्त 2014

लौट के बुद्धू घर को आए

बुद्धू हमारे गांव के पुराने रहवासी हैं। माना कि गांव के खसरा खतौनी में उनका कहीं कोई नाम नहीं, लेकिन इस बात की परवाह भी किसे है, न खुद बुद्धु को और न गांव के मुखिया-परधान को। बुद्धू कब पैदा हुए और उनके मां-बाप कौन थे किसी को पता नहीं। गांव के पुरनिया कहते हैं कि वे लोमश मार्कंदेय के सहोदर भ्राता हैं और तबसे आज तक जिए जा रहे हैं। इसी किंवदन्ती के आधार पर कुछ लोग उन्हें कैथी के मार्कंदेय धाम के निवासी भी मनते हैं, जो बाद में इस गांव में आ बसे। लोग मानते हैं, मानते रहें। मैं नहीं मानता। मैं तो उन्हें इसी गांव का मानता हूं। जब वे इस गांव की कई पीढियों के साथ जिए, रहे और अब भी रहते चले आ रहे हैं तो उन्हें यहां का मानने में भला आपत्ति भी क्या हो सकती है। इस गांव की तमाम पीढींया बुद्धु के देखते-देखते ही जन्मीं पलीं और काल के गाल में समा गईं। पर बुद्धु अब भी गबरू जवान हैं। सांड की तरह मजबूत डील-डौल और शेर की तरह मस्त चाल। हो भी क्यों न, उन्हें फ़िकर ही क्या है?जहां पांव ठिठक गए वहां खा लिया। जहां चारपाई मिलि ओठंग लिये। किसी ने कुछ कहा तो सुना दिया— ‘बुद्धू न किसी के राज्य में रहता है न किसी का दिया खाता है।’ फ़िर किसी ने कुछ अण्ट-सण्ट बोला तो बांह चढाके खड़े हो गए और तब सामने वाला खिसकने में ही भलाई  समझता है।
‘अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम दास मलूका कह गए सबके दाता राम।’ ये रही बुद्धू की प्रिय भजन जिसे स्प्तम स्वर में गा-गा कर पूरे गांव को सुनाते हैं । अगर कोई टोक दे तो ट्का सा जवाब “खुद तो कलियुग के कुटिल कीट बने घूमते हो और मैन राम का नाम जप रहा हूम तो उसमें भी बधा। हे राम घोर कलियुग आ गया है।’ इस भजन से उन्हें खुद तो कलियुग से मुक्ति मिली नहीं गांव के कुछ कुलों का उद्धार जरूर हो गया जिनके युवा उत्तराधिकारियों ने बुद्धू को अपना गुरू मान लिया। इस गांव के लगभग सारे निठल्ले बुद्धू के कनफ़ुंकिया चेले हैं। अंटी, बंटी, ही नहीं रामदास, परशुराम शरण और मुख्तार सहेब, मौलवी साहेब, बी.डी.ओ. साहेब डिप्टी साहेब सब के सब । चेलहाई में जाति-धर्म का भला कैसा बंधन ? जब ‘सबै धेनु गोपाल की’ तब सभी कनफुंकिया चेले बुद्धू के कैसे नहीं हो सकते। सुना है एक बार त्रेता में जब टोला-पडोसा के राक्षरों ने इस गांव के एक अवघड़ साधू को पूजा-पाठ में बिघ्न डाला तब उन्होंने ही उसे ‘सबके दाता राम’ का मंत्र दिया था और साधू भागा-भागा अयोध्या गयया था और राम लक्ष्मण को राजा दशरथ से उधार मांग लाया था और तब तड़का का बध इस गांव के ठीक दक्षिण में बकुलों से भरे तालाब (बक सर) में छिप कर किया गया था। बाकी की कथा तो आप को मालुम ही है।
 उनके जिवन में खास था तो बस एक घर, जो उन्हें नहीं छोडता था। वे जमाने से उसे पकड़े बैठे थे या वह उन्हें कहना असान नहीं। पर इतना तो निश्छित था दिन भर बुद्धु जहां रह ले जहां रम लें लेकिन शाम ढलते-ढलते बुद्धु वापिस घर जरूर लौट आते। एकाध दफ़ा जब वे नहीं लौटे, तो गांव में उनके मरने-बिलाने की अफ़वाह भी आई, लेकिन घूम फ़िर कर बुद्धु पुनः वापिस। सो गांव के बडे बूढों में यह कहावत ही चल पड़ी कि ‘लौट के बुद्धू घर को आए’।


अंश.....

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