मंगलवार, 28 फ़रवरी 2023

तमासो मा ज्योतिर्गमय : प्रसुप्ति की संकल्पना और पुनर्जागरण का मिथक

 

वैज्ञानिकता की जिद कई बार हमें गणितीय समीकरणों में उलझा देती है और हम बीजगणितीय शब्दावली में सोचने लगते हैं। हम 'माना कि' 'चूँकि' 'इसलिए' यदि शब्दावलियों का इस्तेमाल करते हुए तमाम सूत्रों और समीकरणों के सहारे हम वह सिद्ध कर ले जाते हैं, जिसकी हिपोथीसिस हमने तैयार की है । शोध में नकारात्मक फाइंडिंग्स विज्ञान में संभव है, पर सामाजिक विज्ञान के शोधों में प्रायः ऐसा नहीं होता। सामाजिक विज्ञान उन अर्थों में विज्ञान भले न हो, जिनमें प्राणी विज्ञान, जीव विज्ञान, भटिक विज्ञान या रसायन विज्ञान, किन्तु आगे विज्ञान लगा होने से एक समाज विज्ञानी भाषा, साहित्य और कला के अध्येता के सम्मुख स्वयं को अधिक श्रेष्ठतर मानता है और कई बार विज्ञान की संकल्पनाओं को अनावश्यक रूप से समाज पर लागू करने लगता है। डार्विन के विकासवाद के बाद यूरोप के समाज विज्ञानियों में स्वयं को अधिक वैज्ञानिक सिद्ध करने की होड़ लग गई। मार्क्सवाद भी ऐसी ही एक होड़ का परिणाम थी। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की सम्पूर्ण संकल्पना उसी पर टिकी है और उसी पर टीका है ऐहसिक भौतिकवाद और वैज्ञानिक साम्यवाद। डार्विन ने जिस तरह जैविक विकास की अवधारणा मानी उसी तरह मार्क्स ने ऐतिहासिक विकास की। चूँकि डार्विन का विकासवाद जैविक विकास को एक सार्वभौमिक अवधारणा मान्यता है। इसलिए मार्क्स के ऐतिहासिक विकास की अवधारणा भी उसी तरह सार्वभौमिक होनी चाहिए और इसी 'चूँकि...इसलिए के सूत्र के अनुरूप भारत में भी अंधकारयुग की कल्पनाएं की गईं। 
     वैज्ञानिक इतिहासकारों की दृष्टि में भारत और यूरोप में मध्यकाल और धार्मिक जड़ता का एक ही तरह का पैटर्न अनिवार्य है। इसीलिए एक बड़ा वर्ग यूरोपीय मध्यकाल के अनुकरण पर भारत में भी मध्यकाल और उसी की तरह के इतिहास के भारत में भी घटित होने की कल्पना करता आया है। उसके लिए धर्म एक ‘अछूत’ शब्द है। धर्म और मध्यकालीनता का यह अन्तः संबंध और अछूतपन पूर्वधारणा या पूर्वज्ञान का पक्ष है, जो आधुनिक किताबों में हमने पढ़ा-समझा है। जबकि, भारत में कभी कोई पोप या खलीफा जैसी सत्ता नहीं रही, जो धर्म पर एकाधिकार कर उसे जकड़ लेती और उसे जबरिया थोपकर समाज को अज्ञान के अंधकार में धकेल देती। हाशिए के प्रगतिशील इतिहासकार यदि सूरदास और तुलसीदास से असहमत भी हों तो उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस समय यूरोप में अंधकार युग था या जिस समय भारत में ऐतिहासिक उथलपुथल का काल था अंधकार युग की अवस्था होनी चाहिए थी, उस समय दक्षिण लेकर से उत्तर और पूरब से लेकर पश्चिम तक  जो आंदोलन चल रहे थे चाहे वे नाथ हों, सगुण हों, निर्गुण हों, वैष्णव हों, शैव हों, भक्त हों या शैव हों सब के सब धर्म की आधारशिला पर ही खड़े थे और समाज को चेता रहे थे/ जागा रहे थे/ प्रबुद्ध कर रहे थे। संभव है यह भी कहा जाए कि जगाया उसी को जाता है जो सोया हो । यह बात सोलहों आने सच होने पर भी यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत में प्रसुप्ति जैसी स्थिति कभी आई ही नहीं। एक की पीठ पर दूसरा दूसरे के पीछे तीसरा दार्शनिक, चिंतक या प्रवर्तक यहाँ निरंतर 'धर्म-मार्ग' को प्रशस्त करते रहे। मध्यकालीन भक्ति आंदोलन बौद्ध, जैन और वैष्णव परंपराओं के से निकले हुए निकालने वाली धाराओं एक नया सम्मिलित  प्रवाह था। उद्गम स्थल के आस-पास ऊबड़-खाबड़ में प्रदेश में गोरखनाथ, कबीर, दादू, नानक जैसे हिमनद थे तो आगे समतल प्रदेश में सूर-तुलसी-मीरा की प्रांजल भक्ति धारा, जिसमें  अवगाहन करना आज भी एक सामान्य भारतीय के लिए गर्व की बात है।  
यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि भक्ति आंदोलन के ठीक पीछे आचार्य शंकर और उनके व्याख्याकार भी खड़े थे । इसलिए केवल इसे लोक-जगरण (लोक को सीमित अर्थों में ग्रहण करने वालों के लिए) कहकर उसे सीमित करना होगा। शंकर, रामानुज, रामानंद, बल्लभ, माध्व जैसे आचार्य इसे शास्त्रीय आधार भी दे रहे थे। इस लिए भक्ति आंदोलन केवल भाव-प्रवाह नहीं शास्त्रीय गरिमा से भी समन्वित था। लोक और शस्त्र को आमने सामने रखकर भिड़ा देना द्वन्द्वात्मक भौतिकवादियों के द्वन्द्व-प्रमाण के लिए अधिक आसान काम था, इसलिए उन्होंने यही किया। पहली-परंपरा और दूसरी परंपरा, शास्त्रवाद और लोकवाद या कबीर और तुलसी का द्वन्द्व कांड रचना इस विचारधारा के 'जीन' में था। सेमेटिक परंपरा में यहूदी, ईसाई और इस्लाम का जन्म एक ही उद्गम से होते हुए भी वे आज भी लड़ रहे हैं मार्क्स की शब्दावली में सेमेटिकों के बीच द्वन्द्व चल रहा है। फिर वही सूत्र चूँकि सेमेटिकों के बीच द्वन्द्व चल रहा है इसलिए भारत में ब्राहमण और श्रमण परंपराओं के बीच द्वन्द्व चलता रहा, कबीर और तुलसी भक्त और संत प्रतिद्वंदी हैं। यदि यह पूर्वग्रह निकाल दिया जाए तो कबीर जहाँ से चले थे तुलसी उसकी स्वाभाविक परिणिति थे। संतों की सहज बानियों और शंकर तथा उनके परवर्ती व्याख्याकारों का परस्पर समन्वित विकास हमें गोस्वामी तुलसी दास के यहाँ दिखाता है।
इस सारे माया जाल के रचे जाने के पीछे एक बड़ी वजह और है। सत्य को तथ्य में दबाकर ओझल कर देने की प्रवृति। इसका एक नमूना इरफान हबीब की भक्ति काव्य के उदय संबंधी अवधारणा है। संत कविता के पीछे वे इस्लाम के आने साथ तकली कमानी के चलन और कामगार जातियों की आर्थिक स्थिति में सुधार और समाज में अपनी स्थिति के प्रति उपाजे असंतोष को उन जातियों का प्रतिनिधित्व करने वाले संत कवियों के उभार का कारण मानते हैं। यदि यह सच है तो इस्लाम में नव दीक्षित कबीर जैसे संत के इस्लाम विरोधी वचनों को वे किस रूप में लेंगे? वे अल्लाह की जगह बार बार राम,गोविंद,हरि आदि पदों का प्रयोग कर रहे थे और खुदा, अल्लाह, या पैगंबर का जिक्र नहीं कर रहे थे, तो क्या किसी खास 'एजेंडे' के तहत ऐसा कर रहे थे? इसका जवाब कबीर के माया संबंधी साखियों में मिलेगा। इनसे पता चलता है कि वे साम्राज्य विरोधी थे और यह साम्राज्य निश्चित तौर पर मुस्लिम साम्राज्य ही था। वे के भी हिंसा विरोधी थे और हिंसा इस साम्राज्य की जीवन-वृत्ती थी। यदि वे इस साम्राज्य के प्रति थोड़ी भी सहानुभूति रखते तो सूफी कवियों की तरह शाहेवक्त की वंदना करते, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। बाकी के भक्ति कालीन कवि भी प्रायः बाहरी आक्रमणों पर चुप ही दिखते हैं, इसका मतलब ये समय और समाज से बेफिक्र लोग थे, लेकिन यह मानना गलत होगा। अपनी बाकी रचनाओं में इस्लाम के प्रति गहरी सहानुभूति के बावजूद मलिक मुहम्मद जायसी 'पद्मावत' में अलाउद्दीन खिलजी के चित्तौड़ विजय पर जिस तरह "जौहर भईं इस्तरी पुरूष भए संग्राम। /पात साहि गढ़ चूरा चितउस भा इस्लाम।" कहते हैं, वह इस बात की साफ गवाही है कि वे चित्तौड़ में जो हुआ उससे सहमत नहीं थे । वे अलाउद्दीन से ही असहमत नहीं हैं, बल्कि इस्लाम के प्रचार के नाम पर जनसंहार और लूट किया जाए इससे भी असहमत हैं। बल्लभाचार्य और तुलसी ने तो स्पष्टतः समकालीन शासन की आलोचना की है।  इससे यह पता चलता है कि भारत में इस्लाम ने भक्तिकालीन समाज को अचानक चौंका दिया था।                                                                                                                इसके उलट प्रगतिशील कही जाने वाली परम्पराएं मठवादी थीं और बहुत दूर तक राजनीतिक परिस्थितियों से प्रेरित संचालित या संचालक की भूमिका में। श्रमण परंपरा का या अकेले महात्मा बुद्ध का जितना गहरा संबंध राजघरानों से था और जितना उनका उनपर भाव पड़ा, उतना शायद ही किसी एक परंपरा या व्यक्ति ने अपने समय की राजनीतिक धारा को प्रभावित किया हो। सम्राट अशोक की एकनिष्ठता और बौद्ध-शिक्षा के वैश्विक-प्रसार का उपक्रम भारतीय इतिहास में अद्वितीय है और आधुनिक काल के नव-बौद्धों की चेतना धर्म और अध्यात्म के बजाय राजनीतिक अस्मिता से जुड़ी है। कबीर या अन्य संत कवियों की गद्दियाँ आज भी देश भर में मौजूद हैं, सूफियों का कहना ही क्या ? जिस तरह दक्षिण भारत में मंदिरों की केन्द्रीय भूमिका रही, उत्तर भारत में उनकी उस तरह की भूमिका कभी नहीं रही। यहाँ मंदिर शासन और संपत्ति के एकाधिकारी केंद्र नहीं रहे।  दक्षिण भारत में भी एकमात्र मंदिर और उनसे जुड़ी सामाजिक राजनीतिक व्यवस्थाएं ही नहीं, उनके इतर परम्पराएं और आंदोलन भी रहे।

धर्मं यो बाधते धर्मो





अपने संकुचित अर्थ में भी भारत में ‘धर्म’ किसी एक परंपरा विशेष का वाचक कभी नहीं रहा । केवल ब्राह्मण-परंपरा और ब्राह्मण-ग्रंथों से अनुशासित नहीं रहा, बल्कि श्रमण परंपरा और लोक-मान्यताएं आरंभ से ही उसकी सहधर्मिणी रही रहीं। यहाँ वेद को अपौरुषेय मानते हुए भी उसे अव्याख्येय नहीं माना गया, बल्कि उपनिषद और ब्राह्मण ग्रंथों की रचना ही इनकी समयानुकूल व्याख्या के लिए हुई। जिसतरह आज यह कहा जाता है कि भारत में एक सतत सांस्कृतिक प्रवाह सुदूर अतीत से चला आ रहा है, कुछ उसी तरह पुरानी शब्दावली में उसे सनातन माना जाता था।

यहाँ बुद्ध के साथ मनुस्मृति का उद्धरण सोद्देश्य दिया गया है। इन्हें आधुनिक और प्रगतिशील इतिहास में भारतीय धर्म की दो स्वतंत्र और परस्पर द्वन्द्वात्मक प्रकृति वाली परंपराओं के रूप में प्रस्तुत करने का चलन रहा है। मनु-स्मृति को ब्राह्मणवादी व्यवस्था का नियामक ग्रंथ माना जाता है । इसके विपरीत ब्राह्मण जड़ता का प्रतिवाद बौद्ध प्रगतिशीलता में है। परंतु, ये दोनों ही परम्पराएं ‘धर्म’ की सनतानता की बात कर रही हैं। यह वही ‘धर्म’ है जो मानव की उपस्थिति से अब तक सतत प्रवाहमान रहा है। सातत्य में निरन्तरता का भाव तो है, पर सनातन में निरन्तरता के साथ नित-नवीनता का भाव भी समाहित है। इस समझ के अभाव में ही ब्राह्मण-परंपरा श्रमण-परंपरा और उसके द्वन्द्व की बात तथा पहली-दूसरी परंपरा जैसे भ्रांत पदों को भाषा के टकसाल में ढाल कर बाजार में चलाने के प्रयत्न हुए।



दुनिया की किसी भी ‘सांस्कृति-चेतना’ की तुलना में हमारा यह ‘धर्म-बोध’ अधिक प्रगतिशील है। इसका प्रमाण यह है कि भारतीय परंपरा में धर्म के लिए स्तम्भ जैसे स्थिर या रैखिक प्रतीकों, रूपकों या आकृतियों का प्रयोग नहीं होता। बल्कि उसे गतिशील प्रतीकों, रूपकों या आकृतियों के रूप में ही व्यक्त किया गया हो।

वृषभ के रूपक के रूप में देखती है (हिन्दू धर्म जीवन में सनातन की खोज का उद्धरण) । वह शास्त्र-धर्म के साथ ही लोक-धर्म और आपद धर्म को भी लेकर चलती है। उसकी मूल मान्यता ही है— ‘अनंतो वै वेदा’ अर्थात विद्या के मार्ग अनेक है । यह एकेश्वरवादियों की तरह किसी एक को स्वीकारने और अन्य को रिजेक्ट करने की बात नहीं करता, बल्कि ईश्वर स्वयं ‘एकोहं बहुस्याम:’ की बात करता है । यह तथ्य किसी जड़ता के बजाय स्वस्थ और विकसनशील स्वभाव की ओर ही इंगित करता है। राजा राम मोहन राय आदि जैसे यूरोप परस्त विचारकों को यह बात समझ में नहीं आई, जबकि यह ई संकल्पना ही लोकतान्त्रिक और उदार चिंतन की उपज है ।

हिन्दू धर्म बाद में प्रयोग में आने लगा, पुराने ग्रंथों में केवल धर्म या समतन धर्म ही प्रयुक्त मिलता है और उसपर भी किसी एक परंपरा का एकाधिकार नहीं रहा, बल्कि एक ही समय में चलाने वाली अनेक धाराएं ‘सनातन धर्म’ का प्रयोग करती हैं। बुद्ध और मनु दोनों ही इस पद का प्रयोग समान अधिकार से करते हैं । आधुनिक शब्दावली में इसे ही इस धर्म की लोकतांत्रिकता कह सकते हैं और पुरानी शब्दावली में ‘भारत का धर्म’ (आज की प्रचलित शब्दावली में ‘संस्कृति’)। यहाँ उस भारत की बात की जा रही है, जहां महाभारतकार स्पष्ट शब्दों में घोषणा करते हैं —

धर्म यो बाधते धर्मों न स धर्मः कुधर्म तत् ।

अविरोधातु यो धर्मः स धर्मः सत्यविक्रमः ॥

माया-मृगों का (औपनिवेशिक) सांस्कृतिक पाठ

 स्वातंत्रोत्तर भारत में संस्कृति-चिंतन या कहें तो अकादमिक बौद्धिक व्यापार का जिम्मा मार्क्सवाद प्रभावित विचारकों के हाथ में रहा। ये ‘मैटर’ और ‘द्वन्द्व’ केन्द्रीय तत्त्व मानते हैं। मैटर उनके लिए प्राथमिक है और चेतना द्वितीयक। मार्क्स के अनुसार सृष्टि का विकास भौतिक पदार्थों के द्वन्द्व से हुआ और फिर उससे चेतना का विकास हुआ । चेतना का विकास भी द्वन्द्वात्मक होता है। संस्कृति और धर्म का संबंध चेतना से है। इसलिए इनका ध्यान भी धर्म के आचार पक्ष और संस्कृति के द्वन्द्वात्मकता पर ही अधिक रहा। जहाँ उनके लिए इस पैरामीटर पर भारत को नापना-तोलना असंभव हुआ वे इसे ‘अजायब घर’ (दामोदर धर्मानंद कोसम्बी) कह कर आगे बढ़ गए। उनके लिए संघर्ष केन्द्रीय बात थी। अतः उनके लिए वर्ग-संघर्ष, वर्ण-संघर्ष या नृजातीय संघर्ष जैसे संदर्भ ज्यादा अनुकूल थे।

       हालाँकि इस तरह की सोच की शुरुआत औपनिवेशिक इतिहासकारों ने की। उन्होंने आर्य-अनार्य, हिन्दू-बौद्ध, हिन्दू-इस्लाम, हिन्दू-ईसाई या भारतीय वर्ण औ जाति-संघर्षों की अतिरंजनापूर्ण गाथाएं रचीं। औपनिवेशिक/ यूरोपीय इतिहास दृष्टि की एक सबसे बड़ी खामी उसकी श्रेष्ठता की ग्रन्थि थी। हो भी क्यों न ? दुनिया ने उसकी ताकत का लोहा माना और ‘आधुनिकता’ का सेहरा उसी के माथे बंधा। आर्य-भाषा या भारोपीय भाषा के रूप में भारत की श्रेष्ठता का प्रकारांतर से स्वीकार भी उनकी इसी ग्रन्थि का हिस्सा था।  भाषाई आधार पर जातीय समुदायों की कल्पना और भारतीय परम्परा के सर्वश्रेष्ठ अंश को अपनी विरासत से जोड़ने का मोह संवरण करना उनके लिए मुश्किल था। वह ‘आर्य’ शब्द जो भारत में सम्मान और लोक कल्याण या शुभता का वाचक था, वह पौर्वात्यवादी इतिहासकारों के लिए अहंकार और वर्चस्व का वाचक हो गया । औपनिवेशिक इतिहासकारों द्वारा इसे आधार बनाकर भारत में ‘आर्य-अनार्य-संघर्ष’ और ‘आर्य-वर्चस्व’की गाथाएं रचीं गईं और उसी पहचान और सांस्कृतिक अभिमान के राजनीतिक इस्तेमाल का नंगानाच हिटलर शाही और महायुद्धों के रूप में पूरी दुनिया के सामने खड़ा है। उन्होंने आर्य जाति (Race) के रूप में ऊँची नाक चौड़े माथे और लंबे कद श्वेत वर्ण वाले किसी समुदाय की कल्पना की, जिसने शताब्दियों पहले भारत में आकार यहाँ के मूल निवासियों के ऊपर अपना आधिपत्य जमाया था। यह बात ठीक उसी तरह थी जैसे जर्मनों का शेष यूरोप और यूरोप का अमेरिका तथा दुनिया के अन्य देशों आधिपत्य और मूल निवासियों का विनाश। उनकी दृष्टि में यूरोप दुनिया के श्रेष्ठ क्षेत्रों में है और सेमेटिक धर्मों यूरोशलम है, इसलिए स्वाभाविक था कि श्रेष्ठ जाति का जन्म भी उन्हीं की भूमि पर होगा । इसलिए आर्य यूरोप से भारत आए और साथ में इंडो-योरओपियाँ भाषा और संस्कृति साथ लाए। भला हो सिंधु घाटी सभ्यता का जो उनके इन तर्कों से संगत नहीं बैठी। लेकिन उसके विनाश का कारण न मिलना आर्य-अनार्य संघर्ष की एक गल्प कथा का आधार जरूर बन गया। परजन्य-शंबार आदि की वैदिक कथाओं के भाष्य द्वारा इसे प्रामाणिकता का जामा भी पहना दिया गया।


आर्यों की विजय और अनार्य सभ्यता सिंधु घाटी का पतन की अवधारणा और भारत पर समय-समय पर पश्चिमी सीमांत से होने वाले आक्रान्ताओं की विजय गाथाओं से पश्चिम से आने वालों की श्रेष्ठता की गाथाएँ इतनी जोर-जोर से दोहराई गईं कि उनकी आवाज उत्तरापथ से दक्षिणापथ तक गूँज उठे।  फिर क्या था ? आधुनिकता की मार से बिलबिलाये उत्तरापथ के संस्कृत और फारसी के पोथी पंडितों को मानों नवजीवन मिल गया। जिनसे उत्तरापथ के संस्कृत ज्ञान, शिक्षा और धर्म की परंपरा नहीं संभल रही थी, उनके लिए दक्षिणापथवालों से ज्यादा सगे मैक्समूलर और जर्मन हो गए। यह सब एक सुनियोजित प्रयास था और इसके दूरगामी प्रभाव पड़े। आधुनिकता और सुधार के आवेग में आगे बढ़ते हुए उस युग के तमाम विचारकों की निगाह इस ओर नहीं गई या उन्हें इस ओर देखने की जरूरत महसूस नहीं हुई। वे अपने समय की तमाम विसंगतियों के लिए प्रायः आक्रांत और पीड़ित भारतीय समाज को ही दोषी मानते रहे, लेकिन स्वामी विवेकानंद उनकी तुलना में कहीं अधिक सजग थे। 

राष्ट्र का धर्म और धर्म का राष्ट्र

 

आधुनिक समजसुधारकों के उत्तराधिकारियों तथा महात्मा गांधी के अनुयायियों को भी धर्म में उलझन दिखायी पड़ी और ‘संस्कृति’ एक ‘सेक्युलर’ पद के रूप में अधिक अनुकूल लगी और वे अंग्रेजी के ‘कल्चर’ के समानांतर उसके भारतीय अनुवाद की तरह इसका इस्तेमाल करने लगे। जवाहरलाल नेहरू, सर्वपल्ली राधा कृष्णन डी डी कोशाम्बी,  दिनकर प्रभृति विद्वानों ने इसपर व्यवस्थित किताबें भी लिखीं। दिनकर सभ्यता और संस्कृति का अंतर बताते हुए यह तो कहते हैं कि ‘सभ्यता वह है जो हमारे पास है और संस्कृति वह है जो हम स्वयं हैं।’ ऐसा लगता है कि उनके मानस पटल पर धर्म की ही आकृति उभरी, पर युगीन संदर्भों के दबाव में वे उसे ‘संस्कृति’ से प्रतिस्थापित कर रहे दिया। जब ‘संस्कृति के चार अध्याय’ जैसी व्यवस्थित किताब लिखने बैठते हैं तो वे पूरी तरह नेहरू के संस्कृति-बोध से आक्रांत नज़र आते हैं। वे ‘सामासिक संस्कृति’ की बात करते हैं। यह सामासिक शब्द भी संस्कृति की तरह ही गढ़ा गया और भ्रांतिपूर्ण है। यह व्याकरण से आया है। भाषा के विद्यार्थी इससे अच्छी तरह परिचित होंगे। दो शब्दों को जोड़ने वाले चिह्न (हाइफ़न) को सामासिक चिह्न कहा जाता है। इसकी व्युत्पत्ति संस्कृत के ‘सम्’ उपसर्ग के साथ ‘आस्’ धातु में इक प्रत्यय के मिलने से हुई है। जिसका सहज बोध्य या ग्राह्य अर्थ है जोड़ना या साथ बैठाना। इसके लिए कमसे काम दो का होना अनिवार्य है। जिस संदर्भ से इसे लिया गया है, वहाँ समास से बनने वाले पद को समस्त पद कहते हैं, जिनका प्रयोग की सुविधा के लिए विग्रह भी किया जा सकता है। तात्पर्य यह कि सामासिक संस्कृति कहते ही दो की उपस्थिति अनिवार्य हो जाती है, जिनके बीच समास और विग्रह दोनों संभव है। यहाँ भारतीयता के समग्र-बोध में दरार या फाँक रह ही जाती है, जिसके भीतर सांप्रदायिकता का बारूद भरकर जब-तब धमाके किए जाते रहे। भारत-पाक विभाजन से लेकर आज तक जीतने भी सांप्रदायिक दंगे हुए वे इसी कारण से हुए ।  इस समझ ने ही द्विराष्ट्र सिद्धांत को भी हवा दी, जिनके कारण भारत और पाकिस्तान दो राजनीतिक नई इकाइयां बनीं और दोनों अपने को स्वतंत्र राजनीतिक देश बन गए।  अन्यथा सदियों से अनेक राजनीतिक इकाइयों में विभक्त होकर भी भारत एक ही राष्ट्र रहा, जिसकी पहचान थी :

अस्युत्तरस्यां दिशीदेवतात्मा हिमालयोनाम नागाधिराजः।

पूर्वापरो तोयनिधीवग्राह्य: स्थितिः पृथिव्या: इव मानदण्डः।।

       हमारी स्वाभाविक राष्ट्रीयता की अभिव्यक्ति ‘एकम् सत् विप्र बहुधा बहुधा वदंति’ या ‘एकोहं बहुस्याम:’ जैसे आप्त वाक्यों में होती है। जो भारत को बहु राष्ट्रीय या बहु सांस्कृतिक कहते हैं या समझते हैं, उनके लिए राष्ट्र के दो मॉडल हैं एक तो जर्मन-प्रांस की-सी राष्ट्रीयता का जिसमें इकहरापन है और दूसरा अमेरिका, कनाडा, यू के जैसे देशों का ‘संयुक्त’ राष्ट्रीयता। सामासिक संस्कृति में मुझे इसी संयुक्त-संस्कृति की ध्वनि सुनाई पड़ती है।

नवजागरण या धर्म जागरण


धर्म स्वभावगत होता है। इसे मनुष्य ही नहीं, कोई भी जड़-जंगम अपने जन्म के साथ ही धारण करता है और परिस्थिति या समय के साथ उसके भीतर वह और अधिक संपुष्ट होता जाता है। इसीलिए अपने प्राचीन ग्रंथों में संस्कृति की जगह ‘धर्म’ पद ज्यादा उपयुक्त समझा गया। आधुनिक चिंतकों ने धर्म को केवल उसके कर्मकांडगत रूप तक सीमित कर दिया और उसके ‘हीर’ को गढ़-छील कर बाजारू शब्द ‘मूल्य’ में अटा दिया। नतीजा धर्म हर चौराहे पर फूंकने वाला पुतला बन गया और मूल्य हर रेहड़ी-खोमचे पर कौड़ी का तीन माल। बात-बे-बात चौराहे पर खड़ा कर फूंके जाने वाला धर्म उसी तरह निर्जीव है, जिस तरह पुतला निर्जीव होता है और वह धर्म का प्रतिनिधित्व भी उसी तरह करता है, जैसे पुतला किसी का प्रतिनिधित्व करता है। आधुनिक काल में जिसे धर्म कहकर उसपर हमले हुए, वह आचार-पक्ष था। धार्मिक सुधार आंदोलन या जातिगत आंदोलन का धर्म-शोधन या विरोध इस ढांचे पर ही टिका था। इसीलिए किसी ने बहुदेववाद का विरोध करते हुए ‘एकेश्वरवाद’ का रुख किया और यूरोपीय पैटर्न की प्रार्थना सभाएं स्थापित कीं तो किसी ने धर्मांतरण की विजातीय परंपरा को आत्मसात कर शुद्धि के लिए आंदोलन चलाए। कोई उपनिषद की ओर लौट चला तो कोई वेद की ओर। किसी ने मंदिर, विधवा-जीवन और अस्पृश्यता को ही धर्म की पहचान मान लिया और उसके विरोध में जोर-जोर से नारे लगाने को ही धार्मिक जागरण और धार्मिक सुधार मान लिया । हालाँकि इन्होंने धर्म का पल्ला तब भी नहीं छोड़ा। विरले उदाहरणों को छोड़ कर सीधे-सीधे विदेशी ‘धर्म’ का पल्ला प्रायः किसी ने नहीं छोड़ा। यहाँ तक कि ज्योति बा फुले का सत्यशोधक समाज या आंबेडकर का बौद्धान्तरण भी धर्म के भीतर ही आवाजाही थी। ‘धर्म’ से ‘रिलीजन’ की यात्रा माइकेल मधुसूदन दत्त और पंडिता रमा बाई जैसे कुछ अपवादों ने ही की।

 भारतीय जनता ‘धर्म-भीरु’ (धर्म-प्राण?) थी, इसलिए आधुनिक-चेतना में नव दीक्षित भारतीयों का धर्म- मात्र के विरुद्ध खड़ा होना खुद के लिए अस्वीकार्यता का संकट खड़ा करना था। इसलिए उन्हें आयातित ज्ञान को मूल भारतीय चेतना में क्षेपक की तरह डालकर काम चलाना पड़ा। यही उनकी सबसे बड़ी सीमा बनी और इसी लिए कोई भी नवजागरणकालीन ‘सुधारक’ राष्ट्रीय फलक पर नहीं उभर सका अपने क्षेत्रीय और स्थानीय दायरे में ही प्रभावी रहा। आज जिस आंबेडकरवाद की बात की जाती है, उसके प्रेरणा-पुरुष डॉ. आंबेडकर स्वयं एक सुधारक या चिंतक के रूप में अपने समुदाय के बीच भी राष्ट्रीय स्वीकृति नही पा सके थे; बाद में उनके राजनीतिक उत्तराधिकारियों या हितजीवियों ने उनके विचारों को अखिल भारतीय स्तर पर प्रचारित-प्रसारित किया। अतः लगभग समूचा ‘नवजागरण काल’ धर्म के अवमूल्यन और नए क्षेपकों के अंतःप्रवेश का काल है। इस दौर के विचारकों में विवेकानंद और गांधी दो अपवाद हैं। भक्ति आंदोलन ने भारतीय धर्म-साधना को जहां ला खड़ा किया था, ये दोनों उसे अंगुली पकड़ कर आगे ले चलने वाले विचारक थे। गांधी जिस ‘रघुपति राघव राजा राम..’ की बात करते हैं वह रामायण (और राम चरित मानस) के राम हैं और ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम’  में महाभारत की अनुगूँज है। ये दोनों ही दो ऐसे ग्रंथ हैं, जिन्हें साथ रखकर भारतीयता का एक समग्र चित्र उकेरा जा सकता है।


संस्कृति : कर्ता का विधान

 संस्कृति :  कर्ता का विधान


संस्कृति की अनेक अर्थ-छायाएं हैं। इसकी मूर्तन-अमूर्तन, व्यापक-अतिव्यापक, स्थूल-सूक्ष्म अनेक परिभाषाएं की गई हैं। दुनिया का आधुनिक चिंतन जितना अधिक इस एक अवधारणात्मक पद से टकराता रहा है, उतना शायद किसी दूसरे सवाल से नहीं टकराया। और, इन बहसों में तमाम आधुनिक चिंतनों की तरह यहाँ भी केंद्र में रहा है ‘मनुष्य’ ही। चाहे वह इहलौकिक धारणाओं से प्रेरित हो या आध्यात्मिक। परंपरागत भारतीय चिंतन आध्यात्मिक था, अतः उसके लिए संस्कृति की समझ भी आध्यात्मिक थी। यह आम धारणा है जो सही तो है, किन्तु सीमित संदर्भों में ही। कोई भी देश, संस्कृति या व्यक्ति-मात्र एकांतिक रूप से आध्यात्मिक नहीं हो सकता, उसे अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करनी ही होगी। ठीक इसी तरह केवल भौतिक भी नहीं हुआ जा सकता। भौतिकता का अतिरेक व्यभिचारी-स्वैराचारी ही नहीं, बल्कि अनुभूति-शून्य जड़िमा के गड्ढे में धकेलने वाला है। यदि कोई कहता है कि उसे प्रचलित आध्यात्मिक मूल्यों-मान्यताओं में विश्वास नहीं तो यह माना जा सकता है, पर यह नहीं स्वीकार किया जा सकता कि वह अध्यात्म शून्य है। अपनी भौतिक सीमाओं से परे जाकर आत्म-विस्तार ही मनुष्यता की पहली शर्त है। पर, यह उसकी भौतिक जरूरतों से प्रेरित हो यह आवश्यक नहीं है। जब हम संस्कृति की बात करते हैं, तो निश्चित तौर पर मनुष्य को कर्ता मानकर कर चलते हैं, क्योंकि पद की मूल धातु है ‘कृ’ जिसका अर्थ है करना। यहाँ हमें अपने उस पुरनिया को भी जरूर याद करना चाहिए, जिन्होंने ‘ऐतरेय ब्राह्मण’ में संस्कृति का प्रयोग इस रूप में किया है— ‘आत्मानं संस्कृतिर्वावशिल्पानि छंदोमयं वा। एतैर्यजमान आत्मानं संस्कुरुते’। यहाँ संस्कृति, शिल्प, छंदादि का ‘वा’ (या) के साथ अर्थात् वैकल्पिक पद के रूप में प्रयोग हुआ है। अतः छंद शिल्पादि अभ्यास से अर्जित होते हैं, उसी प्रकार संस्कृति भी अभ्यास द्वारा अर्जित होती है। इस दृष्टि से भी मनुष्य कर्ता ही ठहरता है।

घोर नियतिवादी से नियतिवादी व्यक्ति भी स्वयं के कर्तृत्व के प्रति अहं भाव को त्याग नहीं सकता क्योंकि यह सहज मानवीय प्रवृत्ति है । फिर संस्कृति को वह अपने इस अहं से मुक्त भला कैसे रख सकता है ? दुनिया के तमाम देशों के बीच आज संस्कृति के नाम पर जो संघर्ष चल रहे हैं, वे उसकी इसी अहम्मन्यता के परिणाम हैं। परंपरागत भारतीय मन आज भी इस ‘पद’ को उतनी सहजता से स्वीकार नहीं कर पाता, बल्कि इसे राजनीतिक मुहावरे के रूप में लेता है। दुर्भाग्यवश इस पद का राजनीतिकरण भी कुछ ज्यादा ही हुआ। कभी जन-संस्कृति, कभी लोक-संस्कृति तो कभी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर। अब तो इसका सही मेल भी इन राजनीतिक पदावलियों के साथ ही बैठता है। हम जैसे गँवई लोग तो अब भी ‘धरम’ ही ‘निबाहते’ हैं। सुसंस्कृत’ आचरण नहीं करते। शायद इसी लिए हमारी यारी भी संस्कृति से अधिक अपने धरम-करम से है।