मंगलवार, 28 फ़रवरी 2023

तमासो मा ज्योतिर्गमय : प्रसुप्ति की संकल्पना और पुनर्जागरण का मिथक

 

वैज्ञानिकता की जिद कई बार हमें गणितीय समीकरणों में उलझा देती है और हम बीजगणितीय शब्दावली में सोचने लगते हैं। हम 'माना कि' 'चूँकि' 'इसलिए' यदि शब्दावलियों का इस्तेमाल करते हुए तमाम सूत्रों और समीकरणों के सहारे हम वह सिद्ध कर ले जाते हैं, जिसकी हिपोथीसिस हमने तैयार की है । शोध में नकारात्मक फाइंडिंग्स विज्ञान में संभव है, पर सामाजिक विज्ञान के शोधों में प्रायः ऐसा नहीं होता। सामाजिक विज्ञान उन अर्थों में विज्ञान भले न हो, जिनमें प्राणी विज्ञान, जीव विज्ञान, भटिक विज्ञान या रसायन विज्ञान, किन्तु आगे विज्ञान लगा होने से एक समाज विज्ञानी भाषा, साहित्य और कला के अध्येता के सम्मुख स्वयं को अधिक श्रेष्ठतर मानता है और कई बार विज्ञान की संकल्पनाओं को अनावश्यक रूप से समाज पर लागू करने लगता है। डार्विन के विकासवाद के बाद यूरोप के समाज विज्ञानियों में स्वयं को अधिक वैज्ञानिक सिद्ध करने की होड़ लग गई। मार्क्सवाद भी ऐसी ही एक होड़ का परिणाम थी। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की सम्पूर्ण संकल्पना उसी पर टिकी है और उसी पर टीका है ऐहसिक भौतिकवाद और वैज्ञानिक साम्यवाद। डार्विन ने जिस तरह जैविक विकास की अवधारणा मानी उसी तरह मार्क्स ने ऐतिहासिक विकास की। चूँकि डार्विन का विकासवाद जैविक विकास को एक सार्वभौमिक अवधारणा मान्यता है। इसलिए मार्क्स के ऐतिहासिक विकास की अवधारणा भी उसी तरह सार्वभौमिक होनी चाहिए और इसी 'चूँकि...इसलिए के सूत्र के अनुरूप भारत में भी अंधकारयुग की कल्पनाएं की गईं। 
     वैज्ञानिक इतिहासकारों की दृष्टि में भारत और यूरोप में मध्यकाल और धार्मिक जड़ता का एक ही तरह का पैटर्न अनिवार्य है। इसीलिए एक बड़ा वर्ग यूरोपीय मध्यकाल के अनुकरण पर भारत में भी मध्यकाल और उसी की तरह के इतिहास के भारत में भी घटित होने की कल्पना करता आया है। उसके लिए धर्म एक ‘अछूत’ शब्द है। धर्म और मध्यकालीनता का यह अन्तः संबंध और अछूतपन पूर्वधारणा या पूर्वज्ञान का पक्ष है, जो आधुनिक किताबों में हमने पढ़ा-समझा है। जबकि, भारत में कभी कोई पोप या खलीफा जैसी सत्ता नहीं रही, जो धर्म पर एकाधिकार कर उसे जकड़ लेती और उसे जबरिया थोपकर समाज को अज्ञान के अंधकार में धकेल देती। हाशिए के प्रगतिशील इतिहासकार यदि सूरदास और तुलसीदास से असहमत भी हों तो उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस समय यूरोप में अंधकार युग था या जिस समय भारत में ऐतिहासिक उथलपुथल का काल था अंधकार युग की अवस्था होनी चाहिए थी, उस समय दक्षिण लेकर से उत्तर और पूरब से लेकर पश्चिम तक  जो आंदोलन चल रहे थे चाहे वे नाथ हों, सगुण हों, निर्गुण हों, वैष्णव हों, शैव हों, भक्त हों या शैव हों सब के सब धर्म की आधारशिला पर ही खड़े थे और समाज को चेता रहे थे/ जागा रहे थे/ प्रबुद्ध कर रहे थे। संभव है यह भी कहा जाए कि जगाया उसी को जाता है जो सोया हो । यह बात सोलहों आने सच होने पर भी यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत में प्रसुप्ति जैसी स्थिति कभी आई ही नहीं। एक की पीठ पर दूसरा दूसरे के पीछे तीसरा दार्शनिक, चिंतक या प्रवर्तक यहाँ निरंतर 'धर्म-मार्ग' को प्रशस्त करते रहे। मध्यकालीन भक्ति आंदोलन बौद्ध, जैन और वैष्णव परंपराओं के से निकले हुए निकालने वाली धाराओं एक नया सम्मिलित  प्रवाह था। उद्गम स्थल के आस-पास ऊबड़-खाबड़ में प्रदेश में गोरखनाथ, कबीर, दादू, नानक जैसे हिमनद थे तो आगे समतल प्रदेश में सूर-तुलसी-मीरा की प्रांजल भक्ति धारा, जिसमें  अवगाहन करना आज भी एक सामान्य भारतीय के लिए गर्व की बात है।  
यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि भक्ति आंदोलन के ठीक पीछे आचार्य शंकर और उनके व्याख्याकार भी खड़े थे । इसलिए केवल इसे लोक-जगरण (लोक को सीमित अर्थों में ग्रहण करने वालों के लिए) कहकर उसे सीमित करना होगा। शंकर, रामानुज, रामानंद, बल्लभ, माध्व जैसे आचार्य इसे शास्त्रीय आधार भी दे रहे थे। इस लिए भक्ति आंदोलन केवल भाव-प्रवाह नहीं शास्त्रीय गरिमा से भी समन्वित था। लोक और शस्त्र को आमने सामने रखकर भिड़ा देना द्वन्द्वात्मक भौतिकवादियों के द्वन्द्व-प्रमाण के लिए अधिक आसान काम था, इसलिए उन्होंने यही किया। पहली-परंपरा और दूसरी परंपरा, शास्त्रवाद और लोकवाद या कबीर और तुलसी का द्वन्द्व कांड रचना इस विचारधारा के 'जीन' में था। सेमेटिक परंपरा में यहूदी, ईसाई और इस्लाम का जन्म एक ही उद्गम से होते हुए भी वे आज भी लड़ रहे हैं मार्क्स की शब्दावली में सेमेटिकों के बीच द्वन्द्व चल रहा है। फिर वही सूत्र चूँकि सेमेटिकों के बीच द्वन्द्व चल रहा है इसलिए भारत में ब्राहमण और श्रमण परंपराओं के बीच द्वन्द्व चलता रहा, कबीर और तुलसी भक्त और संत प्रतिद्वंदी हैं। यदि यह पूर्वग्रह निकाल दिया जाए तो कबीर जहाँ से चले थे तुलसी उसकी स्वाभाविक परिणिति थे। संतों की सहज बानियों और शंकर तथा उनके परवर्ती व्याख्याकारों का परस्पर समन्वित विकास हमें गोस्वामी तुलसी दास के यहाँ दिखाता है।
इस सारे माया जाल के रचे जाने के पीछे एक बड़ी वजह और है। सत्य को तथ्य में दबाकर ओझल कर देने की प्रवृति। इसका एक नमूना इरफान हबीब की भक्ति काव्य के उदय संबंधी अवधारणा है। संत कविता के पीछे वे इस्लाम के आने साथ तकली कमानी के चलन और कामगार जातियों की आर्थिक स्थिति में सुधार और समाज में अपनी स्थिति के प्रति उपाजे असंतोष को उन जातियों का प्रतिनिधित्व करने वाले संत कवियों के उभार का कारण मानते हैं। यदि यह सच है तो इस्लाम में नव दीक्षित कबीर जैसे संत के इस्लाम विरोधी वचनों को वे किस रूप में लेंगे? वे अल्लाह की जगह बार बार राम,गोविंद,हरि आदि पदों का प्रयोग कर रहे थे और खुदा, अल्लाह, या पैगंबर का जिक्र नहीं कर रहे थे, तो क्या किसी खास 'एजेंडे' के तहत ऐसा कर रहे थे? इसका जवाब कबीर के माया संबंधी साखियों में मिलेगा। इनसे पता चलता है कि वे साम्राज्य विरोधी थे और यह साम्राज्य निश्चित तौर पर मुस्लिम साम्राज्य ही था। वे के भी हिंसा विरोधी थे और हिंसा इस साम्राज्य की जीवन-वृत्ती थी। यदि वे इस साम्राज्य के प्रति थोड़ी भी सहानुभूति रखते तो सूफी कवियों की तरह शाहेवक्त की वंदना करते, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। बाकी के भक्ति कालीन कवि भी प्रायः बाहरी आक्रमणों पर चुप ही दिखते हैं, इसका मतलब ये समय और समाज से बेफिक्र लोग थे, लेकिन यह मानना गलत होगा। अपनी बाकी रचनाओं में इस्लाम के प्रति गहरी सहानुभूति के बावजूद मलिक मुहम्मद जायसी 'पद्मावत' में अलाउद्दीन खिलजी के चित्तौड़ विजय पर जिस तरह "जौहर भईं इस्तरी पुरूष भए संग्राम। /पात साहि गढ़ चूरा चितउस भा इस्लाम।" कहते हैं, वह इस बात की साफ गवाही है कि वे चित्तौड़ में जो हुआ उससे सहमत नहीं थे । वे अलाउद्दीन से ही असहमत नहीं हैं, बल्कि इस्लाम के प्रचार के नाम पर जनसंहार और लूट किया जाए इससे भी असहमत हैं। बल्लभाचार्य और तुलसी ने तो स्पष्टतः समकालीन शासन की आलोचना की है।  इससे यह पता चलता है कि भारत में इस्लाम ने भक्तिकालीन समाज को अचानक चौंका दिया था।                                                                                                                इसके उलट प्रगतिशील कही जाने वाली परम्पराएं मठवादी थीं और बहुत दूर तक राजनीतिक परिस्थितियों से प्रेरित संचालित या संचालक की भूमिका में। श्रमण परंपरा का या अकेले महात्मा बुद्ध का जितना गहरा संबंध राजघरानों से था और जितना उनका उनपर भाव पड़ा, उतना शायद ही किसी एक परंपरा या व्यक्ति ने अपने समय की राजनीतिक धारा को प्रभावित किया हो। सम्राट अशोक की एकनिष्ठता और बौद्ध-शिक्षा के वैश्विक-प्रसार का उपक्रम भारतीय इतिहास में अद्वितीय है और आधुनिक काल के नव-बौद्धों की चेतना धर्म और अध्यात्म के बजाय राजनीतिक अस्मिता से जुड़ी है। कबीर या अन्य संत कवियों की गद्दियाँ आज भी देश भर में मौजूद हैं, सूफियों का कहना ही क्या ? जिस तरह दक्षिण भारत में मंदिरों की केन्द्रीय भूमिका रही, उत्तर भारत में उनकी उस तरह की भूमिका कभी नहीं रही। यहाँ मंदिर शासन और संपत्ति के एकाधिकारी केंद्र नहीं रहे।  दक्षिण भारत में भी एकमात्र मंदिर और उनसे जुड़ी सामाजिक राजनीतिक व्यवस्थाएं ही नहीं, उनके इतर परम्पराएं और आंदोलन भी रहे।

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