शुक्रवार, 12 अप्रैल 2013

वक्त

वक्त

सुनाता रहा बोलना
शब्द-प्रतिशब्द
टटोलता रहा आहट
हर एक पद-चाप की
झांकता रहा
हर नीम अँधेरे कोने में
पर
वक्त फिसलता रहा
धीरे-धीरे
बिना किसी शब्द
बिना आहट
बिना पहचान .

सच




सच !
तुम तनहा हो कितने ?
तुम्हें नहीं आते वादे 
सुन्दर भविष्य के 
बाँचने हाथों की लकीरें 
दिखने जादू-तमाशे 
या फिर
गाजे-बाजे
झंडे-पताके के बीच
दिखाना अपना खुशदिल मुस्कुराता चेहरा?

सच !
तुम हो कितने उदास
नहीं खेल सकते तुम
भावनाओं से लोगों की
दुखों से नहीं कर सकते चुहल
औरों के,
क्या सचमुच
नहीं मुस्कुरा सकते तुम
किसी के आंसुओं के बदले ?

सच!
कितने उपेक्षित हो तुम
क्या है तुम्हारा जाति-गोत्र-शील
क्यों नहीं झूमते
डाल गलबहियाँ
साथ अपने गोतियों के ?

बोलो तो
कब तक रहोगे चुप
बांधे लाल रिबन
मुंह पर ?

आओ बैठो
करें बातें
कुछ अपने मन की
कुछ तुम्हारे.

भाई सच !
मैं भी हूँ
तनहा
उदास
उपेक्षित
तुम्हारी तरह
पर अब
नहीं रहा जाता चुप
दम साधे.

अब बोलना ही होगा
मुझे
तुम्हें
और उन्हें
जो रहते आये हैं चुप
सदियों से .