सोमवार, 14 जनवरी 2019

यात्रा और यादें

यात्रा में खुले हरे भरे मैदानों से गुजरना मुझे अपने गाँव घर की यादों में धकेल देता है। निश्चित तौर पर वह बेहद आत्मीय अनुभव होता है। पर, ऊबड़-खाबड़ बंजर पठारों से गुजरना मेरे लिए उससे कुछ अधिक रुचिकर है। सूखे बेजान पत्थरों के बीच बसे गांव और उनका पूरा परिवेश संवाद-सा करता है। वे एक कथा-सी कहते हैं अपनी दुर्दमनीय जिजीविषा की, अपनी चट्टान की सी कठोर जिंदगी और उसके भीतर दबी हुई करुणा की, उस सरस धार की जो बरसात की एक आत्मीय झकोर-मात्र से अनेक छोटी-बड़ी धाराओं में फूट पड़ती हैं। उनका विकुंठ-निरुज मन उल्लसित हो उठता है। वे अपनी सहस्र-सहस्र बहुवर्णी बाहें फैलाकर बादल को अपनी बाहों में भरने को उत्कट हो उठते हैं। कुछ भी दबाने-छुपाने या गोपन रखने का गुण उन्होंने नहीं सीखा चाहे निदाघ के ताप से झुलसा हुआ निर्वसन रक्त-श्याम तन हो या वर्षा की फुहारों से भीगे हुए मन का अपूर्व उल्लास। यह जिजीविषा, उन्मुक्तता और सौंदर्य ही इनकी थाती है । मैदान उनकी तुलना में अधिक गोपन-वृत्ति वाले हैं वे बरसात के जल में आकंठ डूबने के बावजूद सबकुछ सोख डालते हैं। कहीं-कहीं पचपच पनियल दूब में ढंके हुए तो कहीं नीति और आदर्श की चिंता में डूबे हुए गंभीर आचार्य की तरह निस्पृह। जहाँ यह दूर्वा-हरित एकरंगापन अधिक है, वहां गोपन की प्रवृत्ति भी अधिक है। वह अपना सारा कीच-कर्दम काई-सेवार और दूब की परत में ढँके मूंदे' धरती के शस्य श्यामल मुखमंडल का जयगान करता रहा है।