रविवार, 29 मई 2016

फगुनहटा बयार



लो भाई फागुन आ गया। बरइठा से लेकर बूढ़ाडीह तक गाँव का पूरा बगीचा आम की बौर और महुए के कोंचे की तीखी मदक गंध से भर गया है। ऐसा लग रहा है, गाँव के सारे पेड़ों को कोई किसी मल्टीनेशल ब्रांड का डियोड्रेंट बाँट गया है, जिसे वे शहर से आये नौछिटिया (नव-युवक) की तरह अपनी देह में पोत मस्ती में झूम रहे हैं। बिना यह सोचे कि धूल-माटी की गंध की अभ्यस्त नाक वाले किसी बड़े-बूढ़े को कहीं इस तीखी गंध से असहजता ना हो— ‘हो तो होती रहे, देहाती-भुच्च! बित्ते भर की दुनिया के बाहर का सब उन्हें असहज ही करता है। कहाँ मॉल और मल्टिपेक्स की चमक-दमक, सुवासित-सुगंधित रेस्त्राँ, फूलों की क्यारियों से सजे-बजे बंगले और कहाँ ये धुरियाये हुए छान-छप्पर ?’ पर इन पेड़ों को इतनी भी फुरसत कहाँ ? इस मस्ती के आलम में भला इतना भी कहाँ सोचें ? वे तो अपने आनंद-लोक में विचरण कर रहे हैं। फगुन की बयार की मादकता ही ऐसी है। जो इसकी मादकता में डूबता है, डूबता ही जाता है आपाद-मस्तक या पोरसा-दो-पोरसा नहीं; अतल, वितल और पाताल तक। यहाँ न डूबने का भय और न दम घुटने की संभावना। बल्कि इस डूबने में अनंत सुख, अनन्य तृप्ति है और अपूर्व आनंद है— ‘अनबूड़े बूड़े, तिरे ते बूड़े सब अंग ’। 

 फगुनहटा बयार से हरी-हरी कचनार दुद्धा के दाँत वाली फसल भी पुष्ट और स्वर्णाभ हो उठी है, मानों अभी-अभी हवा का कोई झोंका उसे यौवन का उपहार बाँट गया हो और इस नवयौवना के स्वागत में सारा सीवान-मथार, सारी सरेहि, बाग-बगीचा एक लय एक धुन में झूम रहे हैं। ऐसा लग रहा है जैसे किसी दूल्हन की डोली आई हो और गाँव-घर टोला-पड़ोसा के बच्चे उसके पीछे-पीछे गाते-बजाते भागे जा रहे हों। बीच-बीच में कोई टहनी ऐसे लचक उठती है जैसे कोई नवोढ़ा अपनी अटारी से झँककर ओट हो गई हो। पत्तियों के कम्पन से उत्पन्न समवेत स्वर मंगल वाद्य का-सा आभास दे रहे हैं और नाना कण्ठ-स्वर वाले पक्षियों की मिली-जुली ध्वनि में स्वागत-गीत गाती स्त्रियों के गीत जैसा रस आ रहा है। इस मिली-जुली ध्वनि ने एक अद्भुत संगीत की सृष्टि की है। यहाँ तक कि रँभाती गाएँ और कीचड़ भरे डबरे में लोटती भैंसों की पूँछ से रह-रह कर उठने वाली छप-छप की ध्वनि तक में भी आज कर्ण-प्रिय लग रही है। सृष्टि का मनोरम और सरस ही नहीं विरस, बेसुरा और बेताल भी रस के इस महासमुद्र में गोता लगाकर सरस और सुश्रव्य हो उठा है। उसमें संगीत की अनगिनत राग-रागिनियाँ आ बसी हैं। द्रुत, सम और विलम्बित की संगत साथ-साथ चल रही है। मृदु, कटु, तिक्त, काषाय आदि षड्-रसीय अभिव्यक्तियाँ घुल-मिलकर एक मधुरतम रस में तिरोहित हो गयीं हैं। शृंगार, रौद्र, करुण के शास्त्रीय विभेद अचानक निःशेष हो गए हैं और उनके भीतर से एक परम मधुर, अपूर्व ललित और अपरूप सुंदर कविता फूट पड़ी है और इस महासृष्टि से छनकर धीरे-धीरे हमारे भीतर उतर रही है। इसके यति, गति और लय में अपूर्व मोहकता है, शब्द-शब्द में सघन अनुभूति है, आरोह-अवरोह में अनंत संगीत है, और समग्र अन्विति में एक अखंड रस है, जो मन-मस्तिष्क और हृदय को परस्पर एकाकार कर उनके पोर-पोर में आ बसा है। यह एक ऐसी कविता है जो अनादि काल से चल रही है, और अनागत अनंतकाल तक चलती रहेगी; यह बात अलग है कि वह किसी सजग मानस आधुनिक कवि की तरह यह दावा नहीं करती कि ‘कवि ने गीत लिखे बार-बार ’ और न ही इस सृजन के लिए किसी ‘संवेदनात्मक ज्ञान’ और ‘ज्ञानात्मक संवेदना’ के बने बनाए पैरामीटर का आग्रह रखती है। वह तो फक्कड़ और स्वछंद है जो किसी स्वच्छ और प्रशांत हृदय का आधार पा अचानक मुखर हो उठती है; कबीर की तरह बिना कविताई और कलात्मक चारुता के दावे के।

 फागुन के बयार की भी अद्भुत माया है। यह सारे परिवेश में एक अजीब नशा भर देती है। लगता है, सारा प्रकृति भाँग के नशे में झूम रही है। नीति-अनीति, करणीय-अकरणीय, उचित अनुचित के सारे विधि-निषेधों से परे सहज और स्वच्छंद। यहाँ हर कोई अपनी धुन में है और बिना ढोलक, झाल और हारमोनियम के ही, फाग गा रहा है। अलग-अलग राग, अलग-अलग धुन और अलग-अलग टेक के बावजूद इसमें कहीं भी बेसुरापन, विसंगति और बिखराव नहीं है। बूढ़ी पाकड़ ने भी अपनी चूनर निकाल ली है। फागुन में बूढ़ा भी जब देवर लग सकता है, तो बिचारी पाकड़ का क्या अपराध? बाग के कोने में चुप-चाप खड़ी रहने वाली सनातन उपेक्षित पाकड़ भी तो किसी की भाभी लग सकती है। बूढ़ा बरगद लाल-लाल बियहुती पगड़ी पहनकर इतरा रहा है तो वह क्यों न साज-शृंगार करे? वह भला क्यों बिना सिंगार-पटार के अपने बुढ़ापे का दुःख मनाए ? लेकिन ‘यह मुआ पीपल है कि मानता नहीं। कभी हाथ मटका-मटका कर मुझे चिढ़ा रहा है तो कभी बरगद की ओर इशारा करके ठहाका लगा रहा है। लुच्चा कहीं का, थोड़ा सज-सँवर क्या गई, लगा बुढ़ऊ से चुगली करने। देखेंगे बच्चू जब अपनी आएगी... तो कितना ढाँप के रखोगे’। पाकड़ की यह बात सुन पीपल और जोर से खिल-खिला उठता है। उसकी इस खिल-खिलाहट की खनक पूरे परिवेश को खन-खना देती है। युवा पीपल और बूढ़ी पाकड़ के इस हास-परिहास में बरगद को भी रस आ रहा है। वह ठहाका लगाकर हँसता भले न हो, पर उसके शरीर (पत्तों) की झुर-झुरी उसकी उत्त्फुल्लता की सूचना देता रही है। वह बूढ़े सौम्य गृहस्थ की तरह धीरे से मुस्कुराकर रह जाता है। पर उसकी आँख की कोर अपनी ओर घूमी देख कर पाकड़ और लला जाती है।

 रूप, रस और गंध के इस महाभोज में पेड़ों की पाँत की पाँत बैठी हुई हैं। सब साथ-साथ छक रहे हैं। कोई साफा बाँधे है, तो कोई लाल पगड़ी, किसी के सिर पर पीला अँगौछा है तो किसी की धानी चूनर और किसी का बासंती आँचल। जटिल मुनि की तरह किसी के सिर से पैर तक लटकी हुई बड़ी-बड़ी लटें हैं, तो किसी के पूरे शरीर पर सेहरे की तरह लटकी हुई लताएँ और कोई सिर पर मौर की तरह बौर और कोंचे लिए बैठा है। कोई अपने पैरों को जमीन से ऊपर उठा कर उँकड़ू बैठा है तो कोई पालथी मार कर और कोई पसरकर। वहाँ न सूट-टाई की बाध्यता है, न कुर्सी मेज की झंझट और छूरी-काँटे की तो जरूरत ही क्या। यहाँ न निमंत्रण-पत्र दिखाने की जरूरत है और न किसी कूपन की। अद्भुत सह-भोज है। न कोई किसी की जात पूछ रहा है, न ओहदा। न कोई छुआ-छूत और न लिंग-भेद ही। आम, महुआ, शीसम, पलाश, सेमल, अमलतास, बरगद, पाकड़, पीपल, नीम, गूलर ही नहीं चना, मटर, अरहर, गेंहूँ, जौ, सरसों, तीसी, यहाँ तक कि बाँस, दूब, गदपुरना(पुनरनवा), ............ सब एक साथ एक पाँत में बैठे इस महाभोज का आनंद ले रहे हैं। हवा सबके पत्तल में व्यंजन परोस रही है। सब अपने-अपने स्वाद और रुचि के अनुसार जी भरकर खा रहे हैं। कोई पूड़ी पर पूड़ी उड़ाए जा रहा है, तो कोई कचौड़ी ही कचौड़ी, किसी को तस्मई (खीर) और रसमलाई रुच रही है, तो कोई सटा-सट दही सरपोट रहा है, किसी ने बूँदी की पूरी बाल्टी अपने सामने रखवा ली है और कोई बारी-बारी रसगुल्ले और गुलाब जामुन के साथ न्याय कर रहा है। आम पत्तल के पत्तल दही और बूँदी उड़ा रहा है, तो महुए ने मिष्ठान्न के भंडार के बगल में ही आसन जमा रखा है नीम को मिर्च की तीखी पकौड़ी अधिक भा रही है। सब अपने में डूबे हैं। मोटका महुआ, लंगडी नीम, नयकी जामुन और पुरनका पीपल से लेकर रोहिनियवा, ठोरहवा, करुअसना, करियवा और कटहरिवा आम की गाँछी तक सब रस ले-लेकर खा रहे हैं। किसी को कोई जल्दी नहीं, कोई हड़-बड़ी नहीं; न खाने वालों को ना खिलाने वाले को। सब इस महामहोत्सव में लीन हैं। प्रकृति कभी बजट बनाकर अपने आमंत्रितों को भोज नहीं देती। वह जी खोल कर खिलाती है। उसके पास जो है, जितना है सब समर्पित है। वह कहीं ‘अतिथि देवो भव’ की तख्ती लगाकर नहीं बैठती। जो सामने आता है, उसे उमह-उमह कर खिलाती है— ‘लो मधु, लो दूध, लो अन्न, लो फल, लो जल, लो वायु’। चाहे जितना लो। वह रोकती टोकती नहीं। हमारा-तुम्हारा का बँटवारा नहीं करती। डाँड़-मेड़ नहीं बनाती और न चहारदीवारी और पनारे के लिए लाठी-भाला और कट्टा-बंदूक निकालती है। उसे ना जाति का पता है, न वर्ण का। वह कोई वर्ग-भेद नहीं मानती। उसे कोई धन-सम्म्पत्ति, कोई हुँडी-खजाना नहीं चाहिए। न नौकरी और न प्रोमोशन। उसे न आस्तिकता से मतलब है, न नास्तिकता से, न हिंदू से न मुसलमान और न ख्रिस्तान से। वह न कुरान, वेद और बाइबिल बाँचती है और न मंदिर या गुरुद्वारे में मत्था टेकती है। यह न मस्जिद में नमाज पढ़ने जाती है और न चर्च में मोमबत्तियाँ जलाती है। न कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो पढ़ती है और न थर्ड वेब, फ्यूचर शॉक और पॉवर-शिफ्ट की दो चार लाइनें रटकर ज्ञान का आतंक मचाती है। उसे हेडाइगर, मार्खेज, रोलांबार्थ, देरिदा और बाख्तिन से कोई वास्ता नहीं। उसकी ज्ञान-परंपरा में इसका कोई मूल्य नहीं। मनुष्य की तरह जटिल नहीं, वह सहज है। उसकी शिक्षा, उसका आचार, उसका न्याय सब सहज है। वह सहजता का पाठ पढ़ाती है। वह ‘सत्यं वद् धर्मं चर’ में विश्वास करती है। उसका धर्म है संसार में प्राण-वायु का संचार करना, वह उसे अनवरत कर रही है। उसका सत्य है ऋतु चक्र के अनुसार बदलना वह सहस्राब्दियों से इस नियम का पालन कर रही है। उसका न्याय है सबका कल्याण करना वह उसमें सतत लीन है। वह जाति, वर्ण, रंग और लिंग का भेद नहीं करती। यह बात अलग है कि अगर हमने अपनी खिड़कियाँ दरवाजे पूरब, पश्चिम और उत्तर की ओर लगा रखे हैं तो दक्खिन की हवा हमारे घर में कैसे आएगी? वह तो उन्हीं के घर में आयेगी जिनके दरवाजे और खिड़कियाँ दक्खिन की ओर खुलेंगे। उसमें भला उसका क्या दोष ? दोष हमारी संकीर्णता का है कि हमने एक समूची दिशा को ही अशुद्ध मान लिया और उधर से आने वाली हवा के लिए भी अपने दरवाजे बंद-खिड़कियाँ बंद कर दीं।

सोमवार, 23 मई 2016

गर्मियों के दिन


गर्मियों के दिन । छुट्टियों का समय । मई के दूसरे या तीसरे सप्ताह में स्कूल और कालेज बंद । घर जाने की उत्सुकता । एक आकर्षण बाबा और दादी की खुशी से चमकती आँखों का । गर्मियों की छुट्टियों के बाद घर से वापस लौटते समय आशीर्वाद में उठे हाथ और भाव-विह्वल आँखों की स्मृतियाँ । ये बचपन के दिन थे । गर्मियों के दिन । आज वे दिन हमें उमस,तपन और चिपचिपपन से भरे लगते है, लेकिन तब ऐसा नहीं था । वे दिन हमारी आजादी के दिन होते थे । किताबों से आजादी के दिन, बड़ों से पढ़ाई लिखाई के लिए डांट-डपट से आजादी के दिन । बाबा-दादी के प्यार - दुलार और अपनत्व के दिन। बाग़-बगीचे से लेकर पोखर-तालाब तक भटकने के दिन । पर ये दिन बहुत छोटे होते थे । पता ही नहीं चलता, कब आए और कब चले गए । हमें फिर वापस उन सबसे दूर आना पड़ता । एक छोटे से कस्बाई जीवन में । यहां गाँव की तरह मिट्टी और खपरैल के छोटे कमरे नहीं होते थे न ही बिजली का अभाव । हाँ तब कूलर तो यहां भी नहीं था । लेकिन इन डोलते हुए पंखों और खुले बड़े कमरों में वह शीतलता कभी नहीं मिली जो गर्मियों की दोपहर में दादी के आँचल में छुपकर सोने में मिलाती थी । अक्सर हमें सुलाते-सुलाते दादी भी सो जाती, कभी-कभी उसका फायदा उठाकर हम धीरे से निकल पड़ते बाग़-बगीचे की ओर । पर ऐसा होता कम ही था दादी की नींद बहुत कच्ची थी। अक्सर हम चोरी से सरकते हुए पकड़ लिए जाते । पर मुझे याद नहीं कि कभी उसके लिए मैंने दादी की डाँट खाई हो। वे हमेशा पुचकार कर मना लेतीं । उनके अस्थि-शेष हाथों में इतना दुलार और उनके झुर्रियों से भरे चहरे में इतना स्नेह था कि हम उसके बंधन को कभी अस्वीकार न कर सके । मुझे याद है घर में जब भी कोई डांटता या मारने को दौड़ाता मैंने हमेशा दादी की शरण ली । उनका आँचल हमारा अमोघ कवच था । अब भी जबकि उस आँचल को हमारे सिर से उठे एक अरसा बीत गया,गर्मियों की इस लू और तपन में मुझे वह आँचल बहुत याद आता है ।