शुक्रवार, 13 नवंबर 2020

रोशनी की प्रजाएँ


                                                                            कुबेरनाथ राय 

दीपावली अर्थात नन्हे-नन्हे दीपकों का उत्सव। रोशनी के नन्हे-नन्हे बच्चों का उत्सव! ‘जब सूर्य-चन्द्र अस्त हो जाते हैं तो मनुष्य अन्धकार में अग्नि के सहारे ही बचा रहता है।’ ‘छान्दोग्य उपनिषद’ के ऋषि का यह बोध हमारे दैनिक अनुभव के मध्य होता है। एक-एक नन्हा दीपक सूर्य, चन्द्र और अग्नि का प्रतिनिधि बन कर हमारे घरों में रोज अपनी देवोपम भूमिका निभाता है। उसकी देह भले ही पार्थिव धातु की हो, परन्तु है वह वस्तुत: रोशनी की प्रजा। प्रजा से हमारा तात्पर्य सन्तान से है और गांव-गांव, नगर-नगर अपनी देदीप्यमान भूमिका में प्रतिष्ठित असंख्य दीप-शिखाएं उस रोशनी की असंख्य प्रजाएं हैं, जो सूर्य, सोम और अग्नि तीनों में निहित व्यापक देवशक्ति के रूप में सृष्टि की प्रथम उषा के साथ सक्रिय हैं। रोशनी एक भगवती शक्ति है। इसका संस्कृत रूप है ‘रोचना’। ईरानी ‘रोशनी’ और संस्कृत ‘रोचना’ के मूल में ही हिंदी आर्य-ध्वनिखंड है, जो मूलत: दीप्ति या द्युति से जुड़ा है। रोशनी के भगवती-शक्ति होने के कारण ही ‘ललितासहस्रनाम’ में देवी का एक नाम ‘रोचना’ भी है। स्वयं में ‘देवी’ शब्द का अर्थ ही होता है ‘देदीप्यमान’।

 

  भारतीय मन नारी में भी तेज और दीप्ति का प्राधान्य देखता है। इसी से यहां पर नारी व्यक्तिवाचक संज्ञाओं के साथ ‘देवी’ शब्द जोड़ने की प्रथा है। आजकल अवश्य नई पीढ़ी की लड़कियां अब अपने नाम के आगे देवी शब्द लगाना नहीं पसन्द करतीं। परन्तु है यह बड़ा ही अर्थ-गम्भीर और महिमामय शब्द। इसके अनुसार प्रत्येक भारतीय कन्या ही देदीप्यमान ज्योतिर्मय सत्ता है। वस्तुत: भारतीय मन रोशनी या द्युति से बड़े ही घनिष्ठ भाव से जुड़ा है। रोशनी या द्युति देवता है, जीवन, प्राण, शक्ति और चेतना का प्रतीक है। इसके प्रतिकूल अन्धकार आसुरी है, तामसिक है, मृत्यु-रूप है और चैतन्यविहीन जड़ता का, अगति का और अधोगति का प्रतीक है। रोशनी के ही परिवेश में मनुष्य की इच्छा, ज्ञान और क्रिया का स्वस्थ और समुचित विकास होता है, क्योंकि रोशनी के संदर्भ में दुराव-छिपाव और ग्लानि का कोई स्थान नहीं। फलत: कहीं कोई अवदमन नहीं, कहीं कोई आत्मक्षय नहीं। 

इसके विपरीत अन्धकार छिपाव, दुराव, संशय, कुटिलता, कपट और व्यभिचार का सहज परिवेश रचता है। क्रूरता इसके भीतर अपने नख-दन्त निरन्तर रगड़ कर तीक्ष्णतर करती रहती है। अशुभ और अशोभन इसकी शाखा-दर-शाखा पर घोंसले बांध कर उल्टे पांव लटके हैं और निरन्तर अमंगल ध्वनि द्वारा संकेत देते रहते हैं। वैसे तो मनुष्य मात्र ही रोशनी में एक दिव्यबोध का अनुभव करता है, परन्तु हिन्दुस्तानी जाति ने अपनी दैनिक प्रार्थना ‘गायत्री’ से लेकर अपने पारस्परिक सम्बोधन ‘जी’ तक सर्वत्र ही एक रोशनी अर्थात ‘तेज’ तत्व को विशेष महत्व दिया है। ‘जी’ की बात लें। उत्तर भारत में श्रद्धा और प्रेम के साथ किसी का नामोच्चरण करते हुए ‘जी’ लगा दिया जाता है। रामजी, कृष्णजी, हनुमानजी से लेकर गांधाजी, नेहरूजी तक सभी के साथ ‘जी’ है। यह ‘जी’ भी अप्रत्यक्ष रूप से रोशनी का ही सगोत्र शब्द है।

पहले मेरी धारणा थी कि यह ‘जीव’ का रूपान्तर है और भारतीय दृष्टि में हम सब प्रत्येक ‘जीवात्मा’ हैं। परन्तु बाद में मैंने धारणा का संशोधन किया, तब इस शब्द का असली रहस्य पकड़ में आया। ‘देव’ और ‘जी’ दोनों ही संस्कृत के ‘द्यु’ से जुड़े हैं। संस्कृत ‘द्यु’, द्युति, ज्योति, दिव, देव और प्राकृत ‘जी’ आदि सारे शब्दों के मूल में ‘द्यु’ ध्वनिखण्ड का मूल प्रारूप निहित है। और ये सारे शब्द ज्योति या प्रकाश से जुड़े हैं। मध्य एशिया की शकार्य बोलियों के प्रभाव से यह ‘जी’ शब्द आया होगा, क्योंकि मध्य एशिया तथा यवन अंचलों में ‘द’ का ‘ज’ में रूपान्तर हो जाता है। संस्कृत में भी सन्धि करते समय ‘द’ का ‘ज’ हो जाता है, अत: द और ज मूलत: एक ही ध्वनियां हैं। किसी आर्यभाषा में ‘द’ चला तो किसी में ‘ज’। जैसे द्युपितर (संस्कृत) का लाटीनी रूप ‘ज्यूपितर’ है। द्यौस का ‘जेउस’ है। शायद यवन भाषा के प्रभाव से ही भारतीय ज्योतिष में बृहस्पति को ‘जीव’ (जे उसका विकृत रूप) कहा जाता है। 

अत: किसी कारणवश देव का देऊ, जेऊ, फिर ‘जू’ और ‘जी’ हो गया है। पुरानी हिन्दी में, राजस्थानी में ‘जू’ ही चलता है ‘जी’ नहीं। उत्तर भारतीय-भाषा और संस्कृति पर उत्तरकुरु की आर्य संस्कृति तथा कालान्तर की शक संस्कृति का प्रभाव बड़ा सघन पड़ा है और इन्हीं अंचलों में ‘जी’ या ‘जू’ चलता है, जहां यह प्रभाव विशिष्ट रहा है। असम-बंगाल में अब भी ‘देव’ चलता है। द्युति और ज्योति का अर्थ एक ही है। हमारे दैनिक जीवन में ‘जी’ का प्रयोग आर्य भावधारा में प्रतिष्ठित ‘देवता’ और द्यु तत्व यानी रोशनी के प्रति पक्षधरता का एक अच्छा सबूत है। वैसे मैं मानता हूं कि पूर्णांश भारतीय संस्कृति में केवल तेज द्युति का ही महत्व नहीं। एक और तत्व है, जो समान रूप से महत्वपूर्ण है। वह है ‘मधु’ या ‘रस’। इस मधु या सोमतत्व का मौलिक स्रोत आर्येतर अधिक है, आर्य कम। तो भी दोनों महत्वपूर्ण माने गए हैं। वैदिक भाषा में इन्हें ही अग्नि (तेज) और सोम (मधु) कहा गया है। उत्तर वैदिक काल का आर्य सांस्कृतिक-दृष्टि से विमिश्र आर्य है और इस विमिश्रता का प्रवेश उसके भीतर भारत में प्रवेश करने के पूर्व ही हो गया था।

अत: ऋग्वैदिक युग से ही भारतीय आर्य अग्नि और सोम के युग्म को सृष्टि-विकास की मूल शक्ति मानता है। परन्तु वैदिक सृष्टि-विद्या में अग्नि-सोम के द्वैत का मूल ‘उत्स’ माना गया है सविता को, जो तेज और मधु दोनों का दाता है। वस्तुत: सबसे ऊपर स्थिर द्यु-लोक में जो सविता है, वही अन्तरिक्ष में इन्द्र (आदित्य) और सोम है और वही पृथ्वी पर अग्नि है। मूल है एक ही देवता, जो द्यु का अधिदेवता है। भारतीय संस्कृति के तीन प्रधान पर्व इन देवताओं से अलग-अलग जुड़े हैं। विजयादशमी सविता का पर्व है तो दीपावली अग्नि अर्थात पार्थिव तेज का, जिसका लघुतम और सामान्यतम प्रतीक है रोशनी का नन्हा बच्चा यानी दीपक। तीसरा पर्व है होली का वसन्तोत्सव, जो स्पष्टतया सोम-प्रधान है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि दीपावली का त्योहार भारतीय मनोभूमि से अत्यन्त घनिष्ठ भाव से जुड़ा है, क्योंकि प्रकाश, द्युति या रोशनी से भारतीयता का गर्भनालगत सम्बन्ध है। यही नहीं, प्रत्येक दीपक या बत्ती भारतीय जीवन आदि-साधना और केन्द्रीय पुरुषार्थ ‘क्रतु’ अर्थात यज्ञ का प्रतीक है। दीपक के लिए दो शब्द चलते हैं। एक तो है दीप या दीया, जो दीपक का ही रूपान्तर है। दूसरा बत्ती है। असमिया भाषा में यह बंती हो जाता है। बत्ती शब्द वर्तिका से निकला है। वर्तिका अर्थात बाती। यह वर्तिका तिलतिल करके जलती है, तब कहीं ज्योतिशिखा का जन्म होता है। प्रकाश बन जाना, उजाला फैलाना, घर-आंगन और इतिहास के अंधेरे को भगाना कोई मौज-शौक की बात नहीं। बड़ी कठिन साधना है। बिना अपने ‘सम्पूर्ण’ का त्याग किए, बिना सर्वान्तक आत्मदान के यह सम्भव नहीं। आत्मदान जितना ही सर्वात्मक होगा, उतना ही प्रकाश प्रखर और विस्तृत होगा।

हम कहते हैं कि दीपावली के पर्व में केन्द्रीय महत्व दीप या ज्योतिर्मयी वर्तिका का ही है। यही ऐसा है तो इस त्योहार की आकृति-प्रकृति में विशुद्ध यज्ञ-भाव, आत्मदान, क्रतु का ही मौलिक महत्व है। तब इसे ज्ञान, चैतन्य और सतोगुण का त्योहार मानना चाहिए। ‘सदा दीपावली सन्त घर’ जैसी कहावतें इसी सन्दर्भ में तात्पर्यपूर्ण हो सकती हैं। सन्त का व्यक्तित्व ही क्योंकि साक्षात दीपावली होता है, उसकी आत्मा का चेतन प्रकाश उसके रोम-रोम में नित्य दीपशिखा की ही तरह जलता है। हम सभी जानते हैं कि सारा उत्तर भारत इसे ‘अर्थ’ की देवी माधवी या लक्ष्मी के त्योहार के रूप में ही मनाता है। तब क्या प्रकाश के जगमगाते असंख्य दीपकों की पांत अर्थ-गरिमा की द्योतक है। क्या यह सब धन-सम्पत्ति का गौरव-गान है! भारतीय संस्कृति के बारे में अल्प समझ-बूझ रखने वाला भी इस बात को कभी नहीं स्वीकार करेगा।


  ऐसा कहना ही रोशनी की असंख्य प्रजाओं का अपमान है। भारत का गरीब से गरीब आदमी भी, जिसका एकमात्र गौरव उसका धर्म-बोध ही है, माटी का एक जोड़ा दीया अपने दरवाजे के सामने इस दिन जरूर रखता है। उन दीपकों में उसका अहंकार नहीं, उसकी श्रद्धा प्रकाशित हो रही है। यह श्रद्धा उसके अन्तर्निहित मनुष्यता की गरिमा है और श्रद्धा धर्मबोध और पवित्रबोध से जुड़ी है, अत: यह हमारे अवचेतन को धर्म-मोक्ष के मार्ग पर ठेलती है। इसे हम अहंकार का प्रदर्शन या उस अदेवता की मात्र चापलूसी कह कर टाल नहीं सकते, जिसका कि नाम ही है चंचल और जिसका वाहन है रात्रिचर पक्षी उलूक। तब यहां लक्ष्मीजी की प्रतिष्ठा क्यों की गई है? इसका उत्तर दीपावली की रात्रि-शेष में प्रात: से पूर्व असंख्य मातृकण्ठों से निकले उद्घोष में खोजा जा सकता है। यह उद्घोष है : ‘ईश्वर का प्रवेश हो, दारिद्र दूर हो’ (ईस्सर पइसे, दलिद्दर निकसे)। अर्थात दैन्य, ग्लानि, दारिद्र को भगा कर उसके स्थान पर जिस लक्ष्मीजी की प्रतिष्ठा का स्वप्न भारतवर्ष देखता है, वह है ‘ईश्वरीय लक्ष्मी’। लक्ष्मी (धन) सच्चे पुरुषार्थ द्वारा अजिर्त हो कर ही ईश्वर की शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित होती है। वह विष्णु भगवान की माधवी है।


(मराल)

सोमवार, 8 जून 2020

कुबेरनाथ राय : एक भारतीय लेखक






हिंदी साहित्य की परम्परा में कुबेरनाथ राय की गणना आचार्य   हजारी प्रसाद साथ ललित-निबंध-त्रयी के रूप में होती है . किंतु, केवल इतना कहना उनके भरतीय सहित्य में दाय को एक सीमित परिधि मैं बांधना होगा . वे बीसवी सदी के उन भरतीय लेखकोन में हैं जिन्होंने भारत को एक भारतीय की दॄष्टि से देखने की दॄष्टि दी . उनके निबन्धों में व्यक्त ‘मैं’  आसेतु हिमालय भारत में बसने वाली उसकी संतति का ‘मैं’ है . इसीलिए उनके निबंधोन को पढने पर ऐसा महसूस होता है कि लेखक उद्बाहु होकर ‘अहम भरतोस्मि’ की घोषणा कर रहा है . 
 कुबेरनाथ राय का जन्म  26 मार्च 1933 ई को गाजीपुर जनपद के मतसा  गांव के एक समान्य किसान परिवार में हुआ था . पिता स्व. बैकुंठनारयण राय किसान के साथ ही भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के प्रखर कार्यकर्ता थे और छोटे बाबा पं. बटुकदेव शर्मा  डॉ.  राजेंद्रप्रसाद के सहयोगी, स्वातंत्र्य समर के योद्धा, पत्रकार एवम्‌ अविवाहित अनिकेत यायावर . कुलदेवी चंडी की उपासना और ठाकुर जी का भोग-भजन उन्हें अपनी विरासत में मिला था . उनके सहज संकोची, शील-संयुत, गम्भीर किंतु स्वातंत्र्य प्रेमी व्यक्तित्व तथा भारतीय शील-बोध की सुंगंधि से भीने उनके साहित्य दोनों की बनावट और बुनावट में इन सबकी प्राथमिक भूमिका रही है .
 उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यलय से स्नातक के बाद कलकत्ता विश्वविद्यालय से अंग्रेजी विषय में  परास्नातक किया और नलबारी असम के एक महाविद्यलय में अध्यापन करने लगे . असम में अशांति के कारण अपने जीवन के अंतिम वर्षों में वे अपने गृह जनपद गाजीपुर के सहजानंद सरस्वती महाविद्यालय में प्राचार्य नियुक्त हुए . वहाँ से सेवानिवृत्ति के बाद उनके पैत्रिक गांव में  5 जून 1996 को उनका देहावसान हो गया  .

 

कुबेरनाथ राय हिंदी के एकनिष्ठ निबंधकार हैं. उन्होंने अपने लेखन के आरंभ से लेकर अपने जीवन के अवसान तक स्वयं को एक मात्र विधा ललित निबंध को समर्पित कर दिया. इस तरह का समर्पण हिंदी साहित्य की परम्परा में सर्वथा दुर्लभ है. अपने पूरे रचनाकाल मैं उन्होने लगभग साढे तीन सौ निबंध लिखे, जो उनके बीस निबंध संकलनों में संकलित हैं . ‘प्रिया नीलकंठी’  (भारतीय ज्ञानपीठ, 1969) से अरम्भ उनकी रचना-यात्रा का अवसान रामायण महातीर्थम (भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली2002) से हुआ . इसके बीच मैं पडने वाले पड़ाव हैं- रस आखेटक (1971) .गंधमादन(1972). निषाद बांसुरी (1973), विषद योग (1974). पर्ण-मुकुट, लोक भारती (1978), महाकवि की तर्जनी(1979), पत्र मणिपुतुल के नाम (1980), मनपवन की नौका, 1983, किरात नदी में चन्द्रमधु (1983), दृष्टि-अभिसार (1984), त्रेता का वृहत्साम (1986), कामधेनु (1990) मराल(1993), उत्तर कुरु, 1993. चिन्मय भारत (1996), अन्धकार में अग्निशिखा  (2000) आगम की नाव,वाणी का क्षीरसागर . ये सभी उनके निबंध संग्रह हैं . कउनका एक मत्र काव्य-संग्रह ‘कंथामणि’ उनकी देहावसान के पश्चात सप्रकाशित हुआ, जो उनकी डायरी और इधर उधर अस्त-व्यस्त पन्नों से लेकर संग्रहीत किया गया .’ पुनर्जागरण का अंतिम शलाका पुरुष : स्वामी सहजानंद सरस्वती’ सहजानंद सरस्वती समग्र की भुमिका के रुप में लिखी गई उनकी अन्य निबंधेतर रचना है .  उनके निबंध-संग्रह ‘कामधेनु’ पर उन्हें 1993 में भार्तीय ज्ञानपीठ के मूर्ति देवी पुरस्कार से सम्मानित किया गया .

 

 एक मात्र विधा के रूप में समर्पित होने के बावजूद उनके चिंतन का फलक बहुत व्यापक और लेखन बहुमुखी है . वे एक उदार चेता सजग भारतीय चिंतक थे . वे भारतीय चिंतन को 'एकोहं बहुस्यां ' और 'ऊर्ध्वमूल अधोशाखः' के सूत्र के सहारे पढ़ने की बात करते हैं । प्रमाण है उनके चिन्मयभारत के निबंध, जिनमें उन्होंने अपने चिंतन को निचोड़ दिया है । निचोड़ने का अर्थ यह भी है कि यह उनके जीवन-काल में प्रकाशित उनकी अंतिम पुस्तक है । इसमें उन्होंने इन दोनों सूत्रों के   साथ 'अनन्तो वै वेदाः' के सूत्र को भी जोड़कर भारतीय चिंतन और जीवन की लोकतान्त्रिक बहुलता को बड़े साफ ढंग से व्याख्यायित किया है । वे न तो द्वंद्व के सातत्य में विश्वास कराते थे और न अधिनाकीय एकात्मवाद में । शायद इसीलिए उन्हें शकराचार्य का अद्वैत उतना नहीं रुचा, बल्कि उन्होने बुद्ध के मध्यमप्रतिपदा को अधिक महत्व दिया । सत्य और धर्म की तुलना में उन्हें बौद्ध चिंतन का शील-तत्त्व अधिक ग्राह्य लगा । वे शीलानुरागी थे । उन्होने बौद्ध धर्म को भारतीय जीवन-दर्शन का अंतराष्ट्रीय संस्करण और वैष्णवता को राष्ट्रीय संस्करण कहा तो उसके पीछे भी उनकी लोकतान्त्रिक दृष्टि ही थी । भारतीय संदर्भ में वैष्णव धर्म सबसे अधिक लोकतान्त्रिक और बहुलतावादी रहा है , ठीक वैसे ही जैसे अंतराष्ट्रीय संदर्भ में बौद्ध । दुनिया में बौद्ध धर्म के जीतने रूप हैं उतने शायद दुनिया के किसी धर्म में न हों, पर भारत में यह संघ बद्ध होकर सिमट गया । यहाँ वैष्णवता ने इसके लिए पर्याप्त जगह बनाई । विष्णु के वटवृक्ष के नीचे सम्पूर्ण धार्मिक बहुलता को बिलमने की पूरी छूट दी । आलवारों से लेकर नामदेव और कबीर से लेकर रैदास, सूर, तुलसीदास, हरिदास आदि मध्यकालीन संत इसके गवाह हैं ।
 कुबेरनाथ राय दार्शनिक स्तर पर किसी भी आधुनिक चिंतन की तुलना में गांधी से अधिक प्रभावित हैं। उन्होंने राम और गांधी इन दो को भारतीय जीवन की शीलाचारिकी समझने के लिए सबसे अहम माना, उनके राम आर्य और अनार्य भारत के बीच साहचर्य स्थापित करने वाले, प्राचीन आर्यत्व के प्रतिमान रावण का वध करने वाले और आर्यानार्य साहचर्य के आधार पर नव्य भारतीयता की नींव डालने वाले राम हैं . अपने रघुवंश  की कीर्ति बांसुरी निबंध में कुबेरनाथ राय ने रघुवंश को भारतीय शील का महाकाव्य माना है और राम को इसका प्रतिमान .

 

 वे भरतीयता को कोई बनी-बनाई चीज नहीं मानते बल्कि उसे एक ऐतिहासिक सातत्य में विकसित होता हुआ देखते हैं . अपने उत्तर कुरु संग्रह के ‘अनार्यावर्त’ निबन्ध में उन्होंने भारतीयता की नृजातीय निर्मिति की संघटक जातियों की पहचान नृतात्विक एवं भाषा वैज्ञानिक अध्ययनों के आधार पर स्पष्ट की है। उनका मानना रहा है कि ‘‘सारा भारतवर्ष एक ‘मुस्तर्का मिल्कियत’ है। एक सर्वनिष्ट सांस्कृतिक उत्तराधिकार है और भारत का कोई अंश चाहे वह गंगा की घाटी हो या ब्रह्मपुत्र-कावेरी की एक ही साथ सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टि से ‘निषाद-किरात-द्रविण और आर्य’ चारों है, तो ‘द्रविड़ राष्ट्रवाद या किरात राष्ट्रवाद का अलगाववादी तार्किक आधार स्वयं समाप्त हो जाता है’’. वे अपने समूचे लेखन में इस बात पर जोर देते रहे हैं कि भारत में कोई भी जाति विशुद्ध नहीं रही। सब के सब अविशुद्ध हैं। भारतीयता इन सभी जातियों की संयुक्त विरासत ‘कामन-वेल्थ’ है।
 इस तरह कुबेरनाथ राय को हम एक ऐसे सहित्यकार के रूप में पाते हैं, जो भारतीय जीवन, इतिहास और चेतना से अविभाज्य रूप से जुड़ा और उसके अनुशीलन-परिशीलन के प्रति अनन्य रूप से समर्पित रहा .

शुक्रवार, 1 मई 2020

शिक्षा में नई संभावनाओं का प्रयोगिक दौर


बंदी के इस दौर में हम एक नई प्रविधि की ओर बढ़ रहे हैं । विवशता में ही सही सरकार ने ऑनलाइन शिक्षा की लिए पहल की है । सामाजिक माध्यम और मीडिया मे यह सवाल बार-बार उठाया जा रहा है कि यह कहां तक व्यावहारिक है ?  निश्चित तौर पर इसकी सीमाएं हैं लेकिन सीमाएं तो आधुनिक शिक्षा की भी महसूस हुई होंगी; जब परंपरागत गुरुकुल पद्धति मे बदलाव कर आधुनिक शिक्षा पद्धति लागू की गई होगी। जिस तरह से आधुनिक शिक्षा ने शिक्षा को एक बंद दरवाजे से खुले दरवाजे की ओर जाने का रास्ता दिखाया और शिक्षा के अवसर की समानता दी, उसी तरह यह नवाचारी शिक्षा उसमें कुछ नई सम्भावनाएँ पैदा की हैं ।

दुनिया के लिए ऑनलाइन या मुक्त शिक्षा-व्यवस्था कोई नई बात नहीं हैं, अमेरिका और यूरोपीय देशों में इसका चलन ज़ोरों पर रहा है । हमारे यहाँ भी सरकारी योजना के स्तर पर इस क्षेत्र में तेजी से काम हो रहे हैं । यू जी सी, एन. सी. आर. टी.  की ई- पाठशाला, मूक्स, योजना के साथ मुक्त विद्यालयीय शिक्षा संस्थान की स्वयं, इग्नू की ज्ञानवाणी आदि इसी ही कोशिशे हैं, किन्तु इनके व्यावहारिक रूप में आने में कुछ चुनौतियाँ अभी से महसूस की जाने लगी हैं । इसमें जिस चुनौती को सबसे पहले रेखांकित किया जाता है, वह शिक्षक की सीमित भूमिका और छात्र-शिक्षक संवाद की कमी ।

 अस्सी के दशक के बाद दुनिया में शिक्षण के जो नए पैटर्न स्वीकृत हुए हैं, उनमें बहुलांश शिक्षाल की भूमिका को सीमित करने के ही पक्ष में हैं । शिक्षक को सर्कस का रिंग मास्टर  न होकर फेसेलिटेटर की भूमिका में होना चाहिए, इससे विद्यार्थी का सीखना अधिक सहज और प्रभावी होगा । यह स्वीकृत तथ्य है । इसलिए शिक्षक की भूमिका का सीमित होना नारात्मक नहीं सकारात्मक पहलू है । रही बात सीमित का अर्थ शिक्षा क्षेत्र में शिक्षकों की संखा में कटौती के अर्थ में तो शिक्षा का पहला उद्देश्य रोजगार देना नहीं शिक्षा को प्रभावी और बेहतर बनाना है ।

दूसरी बात शिक्षक-छात्र के आमने सामने संवाद की कमी केवल ऑनलाइन शिक्षण का दोष नहीं बल्कि भारतीय शिख्स्स पद्धति का भी सबसे बड़ा दोष है । विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय तक शिक्षा का व्यावहारिक प्रारूप शिक्षक केन्द्रित है, न कि विद्यार्थी केन्द्रित । शिक्षक अपनी रुचि, ज्ञान और क्षमता के भीतर संबंधित विषय पढ़ा और लिखा देता है, विद्यार्थी उसे प्रायः स्वीकार कर लेता है और याद करके परीक्षा में उसे लिख देता है । इसके विपरीत ऑनलाइन शिक्षण में विद्यार्थी के पास बहुत सारे प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध सामाग्री और संदर्भ होंगे, जिससे वह स्वयं को समृद्ध के शिक्षक से अपने सवालों और समस्याओं और संवाद कर सकेगा । इसमें शिक्षक रिंगमास्टर के बजाय सहभागी या सहयोगी की भूमिका में होगा ।

शिक्षा शिक्षकों के निजी परिसर से निकलकर पाठशालाओं, विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों की अपेक्षाकृत खुली चौहद्दीतक आयी है तो इनकी भी सीमा तोड़कर आगे बढेगी ही और बढी भी है । किंतु या चौहद्दी तोडना अभी सूचना की ओर ही उन्मुख है । गूगल, विकिपीडीया, स्वयं, ई-पाठशाला, ई-पीजी पाठशाला,मूक्स आदि इस दृष्टि से उपयोगी माध्यम बन कर उभरे हैं,किंतु इनकी मूलभूत दो दिक्कते हैं; पहली प्रामाणिकता और दूसरी गम्भीरता का अभाव। पहले का सम्बंध मुख्यतः गूगल, विकिपीडिया और यूट्यूब तथा निजी ब्लोगोँ से है और दूसरे का संस्थानों से। पहली कमी का कारण विशेषज्ञता का अभाव और शुद्ध व्यवसायिकता है, तो दूसरी का कारण सांस्थानिक भ्रष्टाचार तथा रुचि और प्रतिबद्धता की कमी के साथ ही तकनीकी-कुशलता का अभाव भी है । प्रायः संस्थानों में कार्यरत शिक्षक-फेलो अपनी निजी उपलब्धियों, निजी रुचियों और शिक्षा को तकनीकी माध्यमों से जोडने के प्रति उदासीनता के शिकार हैं और उनमें नए प्रयोगों के बजाय परम्परागत शिक्षण-परिपाटी के प्रति सुविधा प्रेरित आकर्षण अधिक है । यह अरुचि और  उदासीनता केवल शिक्षण संस्थानों तक सीमित नहीं है, बल्कि शिक्षा पर शोध और समग्री विकास के लिए स्थापित संस्थान भी इसमें कंधा से कंधा मिला कर चल रहे हैं । 

यह स्थिति भले ही अचानक पैदा हुई हो, पर सरकारी योजनाओं में इसकी तैयारियां काफी पहले से चल रही हैं, जो आज तक इसी स्थिति में पहुंची हैं कि कुछ महीने की परंपरागत कक्षाओं की बंदी से सरकारें और संस्थान पाठ्यक्रमों में कटौती की बात करने लगे हैं । इससे एक दूसरा सवाल पैदा हो गया है कि क्या कोई पाठ्यक्रम केवल कुछ भी पढ़ाकर पास करने के लिए बनाए जाते हैं या उनके पीछे कुछ निश्चित उद्देश्य और लक्ष्य होते हैं, जिन्हें टीचिंग-लर्निंग की प्रक्रिया में लर्नर द्वारा प्राप्त किया जाता है ? कम-से-कम पाठ्यक्रम निर्माण समितियों द्वारा ऐसी ही घोषणा पाठयक्रम निर्माण के समय की जाती हैं और प्रायः उसे पाठ्यक्रम की भूमिका के रूप में नत्थी कर प्रकाशित-प्रसारित भी किया जाता है । ऐसे में पाठ्यक्रम में कटौती जैसे कदमों की प्रासंगिकता क्या है ? यदि इस कटौती किए गए पाठ्यक्रम के बिना भी यह पाठ्यक्रम अपने आप में पूर्वनिर्धारित लक्ष्यों और उद्देश्यों को पूरा करने में समर्थ है तो विद्यार्थियों पर अतिरिक्त पाठ्यक्रम का बोझ क्यों ?

परंपरागत शिक्षण की भी यह समस्या है कि वे विद्यार्थी को चुनने और निर्णय करने की स्वतंत्रता नहीं देता । शिक्षार्थी जिस संस्थान में नामांकन कराता है प्रायः उसी परिसर के संसाधनों, पुस्तकालय शिक्षक आदि का उपयोग कर पाता है । कुछ बड़े संस्थानों या विश्वविद्यालयों आदि को छोड़कर प्रायः महाविद्यालयों और विद्यालय के पुस्तकालय हमारे देश में इतने समृद्धि नहीं हैं कि वे विद्यार्थी को नया सीखने-जानने के पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराएं । विद्यार्थी या तो अपने अध्यापकों द्वारा दी गई शिक्षा और सामाग्री तक सीमित होता है अथवा वह सहायक पुस्तकों सामग्रियों पर आश्रित हो जाता है, जिसमें से अधिकांश व्यावसायिक उद्देश्यों से तैयार की जाती है । उनकी गुणवत्ता को लेकर सवाल भले उठते रहे हैं लेकिन उन्हें रोकने का कोई स्थाई उपाय प्राया नहीं दिखाई  देता । शिक्षकों की तकनीकी दक्षता और उसकी एक बंद परिसरीय मनःस्थिति अथवा अपने पूर्वाग्रहों के कारण वे मुक्त-परिसर पर उपलब्ध सामाग्री की बाढ़ के बीच वे विद्यार्थियों के लिए उनमें से सामाग्री चयन में सहयोगी भी नहीं बन पा रहे हैं । इस समस्या का समाधान यह है कि सस्थानों में शिक्षकों की तुलना में रिसोर्स पर्सन, रिसर्चर, कंटेन्ट डब्लपर और फ़ेलो की संख्या बढ़ाई जाय और ऑनलाइन अधिगम-सहायक सामाग्री का विकास किया जाय । 

यह माध्यम किसी एक परिसर, वहाँ के संसाधनों और शिक्षकों पर विद्यार्थियों की निर्भरता कम करेगा तथा किसी एक विषय पर विद्यार्थियों को विविध सामग्रियों और शिक्षण शैलियों से परिचित होने एवं उनमें से अपने लिए उपयुक्त सामग्री के चयन की स्वतन्त्रता देगा ।  विद्यार्थियों के भीतर उस विषय पर विभिन्न समग्रियों की तुलना से तर्क और विवेक शक्ति को विकसित करेगा और शिक्षा को सब्जेक्टिव से ओब्जेक्टिव बनाने में मददगार होगा । तब सही अर्थों में शिक्षण अधिगम के प्रत्येक स्तर पर ओब्जेक्टिविटी को शामिल किया जा सकेगा, अन्यथा यह ओजेक्टिव प्रश्न पूछने की रश्मअदायगी तक ही सीमित रहेगी । जिस तरह गुरकुल परंपरा में ज्ञान सीमित वर्ग के हाथ में था उसी प्रकार आज भी परिसरों की चौहद्दियों में बंद है, सभा-संगोष्ठी के सीमित अवसरों के अलावा  प्रायः शैक्षिक परिसर परस्पर आदान-प्रदान और संवाद नहीं करते । खुला माध्यम होने से यह संवाद विकसित होगा और शिक्षण प्रक्रिया में पारदर्शिता तथा गुणवत्ता को प्रोत्साहन मिलेगा । 

शिक्षण की संस्थानिक शिक्षण की  एक सीमा यह भी है कि  वाह एक निश्चित समय और निश्चित स्थान पर उपलब्ध कराइए जाती है विद्यार्थी को उसकी रुचि सुविधा और सहज मानसिक स्थिति में सीखने के लिए प्रेरित नहीं करते  वह एक परिसरीय वातावरण का निर्माण तो करती है, जिसमें विद्यार्थी के सर्वांगीण विकास की दृष्टि से संभावनाएं  ऑनलाइन शिक्षा की तुलना में अधिक मानी जा सकती हैं, किन्तु उसका परिसरीय जीवन उसे जीवन और समाज की सहज-स्थितियों से अलग एक सुरक्षित और सुविधाप्रद वातावरण भी मुहैया कराता है, जिससे उसकी सामाजिक सच्चाईयों से काटने की संभावना भी रहती है । ऐसे में वह उस सुविधा और सुरक्षा से परे उसका जीवन सामाजिक वास्तविकताओं के बीच विकसित हो सकेगा ।

शर्त यह है कि बंदी के इस दौर में किए जा रहे शिक्षण को शिक्षकों द्वारा विवशता के पर्याय के रूप में न लेकर एक नई चुनौती या सम्भावना के रूप में लिया जाए, क्योंकि यह दौर इसके प्रयोग का एक उपयुक्त अवसर है । शिक्षण संस्थान केवल रोजी-रोटी देने के जरिया भर नहीं हैं और आज नहीं कल इन्हें री-कंस्ट्रक्ट होना ही होगा, जिसमें इन शिक्षकों को अपनी नई भूमिका तलाशनी होगी । अवसर कम नहीं होंगे, बल्कि बढ़ेंगे ही और शिक्षा के क्षेत्र में सांस्थानिक प्रतिस्पर्धा के साथ-साथ शिक्षकों में भी बेहतर प्रस्तुति की प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी ।  इसका लाभ सीधे-सीधे शिक्षा और शिक्षार्थी दोनों को मिलेगा। तोता रटंत और परिपाटीबद्ध ज्ञान की तुलना में नए शोध और इनोवेशन को वास्तविक रूप में बल मिलेगा ।