गुरुवार, 25 मई 2017

मैं तीसरे गांव का आदमी हूं


जेठ-बैशाख की नीम दुपहरिया में मेरा गांव गपिया रहा है । खटिया पर उठंगकर, सुर्ती मलते हुए, खैनी से भरे हुए लार वाले मुंह को आगे कर पिच्च से थूकते हुए या फिर ताश के पत्ते फेंटते हुए मेरा गांव गपिया रहा है । गांव के पूरब पुरनका पोखरा के भीटे पर, लाला जी के बैठका में, पंडी जी के दुआर पर, बाबा के बरगद के नीचे या दक्खिन टोला की नीम के तले जगह-जगह, जहां भी ढरकने की, बिलमने की, घड़ी-आध घड़ी टेक लेने की जगह है, वहां टिककर मेरा गांव गपिया रहा है । कोई ताश फेंट रहा है, कोई ताश बाँट रहा है, कोई बाजी समेट कर उत्साह से सीना चौड़ा कर रहा है और कोई केवल और केवल गपिया रहा है । किसी के पास कहकहे हैं तो किसी के पास अपने रोजमर्रे की बातें, किसी के पास बेटे बहू की कहानियाँ तो किसी के कूल्हे या घुटने के दर्द और किसी के पास डांड़-मेढ़, गोतिया-दायाद और भाई-बंधु । सबके पास वक्ता हैं, सबके पास श्रोता हैं और सबके पास अपनी-अपनी कहानियाँ हैं । सब उसे कहने और सुनने में मशगूल हैं।

इस गपियाते हुए गांव के पीछे भी एक गांव है । वह दरवाजे के पल्ले भिड़ा कर घर में उठंघा हुआ है । वह दो पहरों की आपाधापी के बाद अब थोड़ा सुस्ता लेना चाहता है । घर-बासन, चूल्हा-चौका और लड़के-बच्चे के बाद अपने लिए थोड़ा-सा समय निकाल लेना चाहता है । गप्प उसे भी पसंद है । वह भी गपियाना चाहता है, लेकिन इस चिपचिपाती हुई दोपहर में सोए हुए बच्चे को भला कैसे जागा सकता है ? उसके पंखा झलते हुए हाथों में दर्द होने लगा है, लेकिन बच्चा ! पंखे के रुकते ही कुनमुना उठता है । फुसफुसा कर बतियाते हुए भी उसके जगने का डर उसे बोलने नहीं देता । थकान से आँखें झपक रही हैं लेकिन बच्चे की कुनमुनाहट उसे फिर सचेष्ट कर देती है और वह नींद की शिथिलता में हाथ से छूटे पंखे को फिर संभालकर और तेजी से झलने लगता है ।


इन दोनों से अलग एक तीसरा गाँव भी है । उस गाँव के पांव दुपहरिया से बहुत पहले ही गाँव की चौहद्दी और सिवान को पार कर सड़क पर जा टिकते हैं । किसी चाय की दुकान के जलते टप्पर या छान के नीचे धूनी रमाए वह अनंत ज्ञान साधना में लीन है । वह दुनिया-जहां की हर बात जानता है, हर क्षेत्र में दखल रखता है । वह अपना दुक्खम-सुक्खम नहीं बतियाता । गांव-जवार की तो उसे फुरसत ही नहीं । वह राष्ट्रनीति का व्याख्याता है, विदेशनीति का परम आचार्य है और ज्ञान-विज्ञान की नाना शाखाओं का प्रकांड पंडित। जो उसकी जद में नहीं है, वह ज्ञान-विज्ञान की किसी दूसरी शाखा-प्रशाखा में भी नहीं है । वह महाअवधूत है । श्मशान-सी सुनसान सड़क के किनारे बैठ पूरी दुपहरिया ज्ञान-साधना करता है । दुपहरिया ही क्यों तिझरिया और शाम, बल्की देर रात; जब तक कि कालभैरव का महाप्रसाद पा स्वयं महाभैरव न हो जाय और उसके मुंह से मोहन, उच्चाटन और मारण के मंत्रों का भैरव नाद न होने लगे, तब तक निरंतर यह मसान उससे सेवित ही रहता है । 

पहला गाँव मेरे बचपन के साथ विदा हो गया और दूसरा बंद किवाड़ों के भीतर बंद । कभी-कभी उससे उठती सिसकियाँ, गाली-गलौज के स्वर या कभी-कभार मंगलगान की मधुर आवाजों से अधिक उस गाँव की परिधि में प्रवेश की अनुमति घर के बाहरी आदमी को नहीं है । वह तो दरवाजे पर खड़ा होकर आवाज दे सकता है । उस आवाज का जवाब भी पहले या तीसरे गांव का आदमी ही देगा, दूसरे गाँव ने तो सनातन चुप्पी साध रखी है; ऐसा लगता है गोया वह जबान हिलाना ही नहीं जानता । वह जन्मजात गूंगा और बहरा है । या फिर, उसकी जबान पहले या तीसरे के पास गिरवी है और उसीके कर्ज की रोटी खा कर सूद में पहले या दूसरे गाँव की पौधें तैयार कर रही है । हाँ, कभी-कभी भूलवश किसी ‘खेझरा’ धान का बीज इस्तेमाल कर लेने से नर्सरी में दूसरे गाँव की पौध भी तैयार हो जाती है । समझदार किसान उसे रोपाई से पहले ही छांट देता है । जब ऐसा नहीं होता तो समझदारी इसी में है कि उसे समय से पहले काट-पीट कर गोदाम में रख दो, नहीं तो झरंगा की तरह वह जल्दी पककर झड़ जाएगी और किसान हाथ मलता रहा जाएगा खेत और किसान का हर्जा करेगा सो अलग ।


बहरहाल, मैं तीसरे गांव का आदमी हूं । इसलिए उसी की बात करूंगा । मेरी ये बहकी-बहकी बातें सुनकर आप पूछ सकते हैं मेरे इस गांव का नाम क्या है ? गांव ! कोई भी हो सकता है । मेरा, आपका, इनका, उनका । किसी का भी । अजी, छोड़िए भी क्या फर्क पड़ता है ? किसी का हो । कहीं का हो । पते की जरूरत डाक पहुँचने तक है । जब यह डाक आप तक पहुंच ही जाएगी तो पते की भला क्या जरूरत । लिफाफे और मजमून तो खिलंदड़ों के भाँपने के लिए होते हैं । अपन को न खिलंदड़ी आती है और न खिलंदड़ों से वास्ता ठहरा । अपन तो ठहरे ठेठ गंवई आदमी । जैसा मेरा गाँव वैसा आपका । वैसा ही इनका और उनका भी । सुबह उठाकर दिशा-फरागत, खैनी-गुटखा और सांझा को ठर्रा । बीच का दौर झक्क उज्जर नील-टिनोपाल पड़े कुर्ते, चाय की चुस्कियों और आग के गोलों की तरह उछलती बहसों का । भला जेठ की दुपहरिया की धूप में वह ताप कहाँ जो इन आग के गोलों में है । अमेरिका की बड़ी-बड़ी मिसाइलें हों या चीन और रूस के आणविक हथियार सब उसके ताप में गलकर तरल और कभी-कभी हवा भी हो जा रहे हैं । बीच-बीच में पान की पिच्च और ताम्बूल रंजीत ठहाकों के कहने ही क्या ? वे तो संक्रामक रोग की तरह गांव के एक ताश अड्डे से दूसरे ताश अड्डे और एक नुक्कड़ से दूसरे नुक्कड़ तक हवा में तैर रहे हैं । यह बात अलग है की इस घोर दुपहरिया में हवा भी पेड़ों की छाँव में दुबक जाती है, अन्यथा यह बीमारी डेंगू चिकनगुनिया आदि-आदि से अधिक तेजी से पूरी दुनिया में फैल गई होती ।


यह तीसरा गांव पहले और दूसरे से अधिक पढ़ा लिखा और हुशियर है । अखबार बांच सकता है , देश जहान की बातें कर सकता है, बात-बात में देश की राजनीति, विदेशनीति और युद्ध-नीति पर बहसें कर सकता है, चौराहे पर बैठा-बैठा चाय की चुस्की लेते हुए सीरिया-लेबनान तक टहल कर आ सकता है, (कभी-कभार मंगल और चंद्रमा तक भी उड़ाने भर सकता है, लेकिन उसके लिए एनर्जी ज्यादा लगती है), गाँव-घर की मरनी-जियानी से लेकर दुनिया जहां की बातें कर सकता है । और तो और, सामने वाले से कमतर महसूस होते ही दूसरी सूचनाओं की जगह अपनी डिगरियाँ गिनाकर सामने वाले पर धौंस दिखा सकता है । लब्बोलुआब यह, वह दुनिया में कोई भी करणीय और अकरणीय काम कर सकता है; सिवाय एक काम, घर में दो जून की रोटी के इंतज़ाम के । सानी-पानी, फावड़ा-कुदाल चलाना कौन कहे ? खेत की डाँड-मेढ़ तक उसके लिए अछूत हैं । देश-दुनिया में अस्पृश्यता भले कम हुई हो, उसे क्या ? उसके लिए तो ये सब सनातन अस्पृश्य चीजें हैं । भला, सारी पढ़ाई-लिखाई या कलम घिसाई इसी की खातिर की थी ! नहीं न ! फिर ! खेती रही होगी बाप दादों के लिए उत्तम चीज, पर उसके लिए वह अपमानजनक है । खेतिहर भी क्या कोई मानुष्य होता है; दिनभर खेत में घिसाई और रात को मौसम की चिंता में उनींदी आँखें ।

देखि दुपहरी जेठ की छाहों चाहत छाँह


मई का मध्याह्न। चिलचिलाती हुई धूप और तेज लू की लपटों के बीच किसी आम के पेड़ के नीचे बोरे बिछा
टिकोरों की आस में पूरी दुपहिया-तिझरिया काट देने वाली पीढ़ी अब कुछ जवान हो चली है, कुछ अधेड़ और कुछ बूढ़ी। अब बाग भी कहाँ रहे? शहरों की तपती तारकोल की सडकें ही नहीं गांव की कच्ची-पक्की पगडंडियां भी अनावृत्त हो गई हैं। रीतिकालीन कवि इस भयंकर गर्मी में जिस 'छाहों माँगत छाँह' की कल्पना कर रहे थे, वह छाँह भी हमारी अनुदारतावश आँचल से अपने मुँह को लू की थपेड़ों में छिपाए किसी मकान के छज्जे के नीचे आ सिमटी है। सिवान तो किसी महानग्न अवधूत की तरह धुनि रमाए महत्साधना में निमग्न है, और उसके सामने सूर्य की किरणें अनावृत्त भैरवी के रूप में उत्ता नृत्य कर रही हैं, गोया यह किसी गाँव-देश का सिवान न होकर, कोई महाश्मशान हो। यह भैरवी साधना हमारी अमंगल-वृत्ति की ही उपज है और इस वृत्ति के केंद्र में हैं, हमारी अबाध आकांक्षाएँ
       हम असभ्य थे, वनचर थे, खाद्यसंग्रही थे, हमने आग की खोज नहीं की थी; तब हमने इन वृक्षों से धूप में छाँह और बारिश में आड़ माँगी इन्होंने उमग कर हमें दिया, हमने अपना पेट भरने को फल मांगे इसने अपनी फल-लदी डालियाँ झुका दीं,  हमने तन ढंकने को वस्त्र माँगा, इसने खुद नंगा होकर हमें अपने पत्ते और छाल दे दिए यही नहीं जब पत्थरों ने हमें पहली बार आग का दान दिया, ये स्वतः उसके पात्र बन गए- खुद अपना तन हमारे लिए समर्पित कर दिया। जब हम बस्तियों में बसे इन्होंने हमें अपनी झोपड़ियाँ बनाने के लिए लकड़ी दी, पत्ते दिए । और-तो-और, मानव सभ्यता की महान खोजों में से एक पहिया भी इन्हीं का दान है जब पहले-पहल इनके गोल तने को जमीन पर ठेल कर मनुष्य ने यह जाना कि इनके सहारे हम भारी से भारी पत्थर को एक स्थान से दूसरे स्थान पर लेजा काटे हैं। यहाँ तक कि विकास के सारे महत्तर आयोजन इन्हीं के सहारे सम्भव हु। चेतना, कला और संगीत के तमाम आरम्भिक सूत्र इन्ही की प्रेरणा से प्राप्त हुए। छालों और पुष्पों से रंगे हुए हाथों की दीवारों पर छाप में हमें कला की पहली पहचान, हवा में लहराते पत्तों के संगीत, हवा की थाप पर लचक उठती डालियों से नृत्य तथा आंधी के तेज वेग में टूटकर गिरते हुए वृक्षों और उनके जड़ों से फिर फूटकर निकालने वाले किल्लों से जन्म-मृत्यु,पुनर्जन्म एवं किसी अज्ञात सत्त्ता में आस्था —यह सबकुछ हमने इन्हीं के सानिध्य में सीखा। यह अनायास नहीं की दुनिया के प्राचीनतम साहित्य की ऋचाएं और न्यूटन का गुरुत्व सिद्धांत दोनों की प्रेरणा ये वृक्ष ही हैं।
       इस पूरी प्रक्रिया में मनुष्य केवल याचक रहा और हमेशा हाथ फैलाए वह वृक्षों के सामने खड़ा रहा है। वृक्ष ही क्यों, समूची प्रकृति उसके तृण-तृण और रोम-रोम के सामने यह महामानव हमेशा एक याचक ही रहा है। अपनी सारी उपलब्धियाँ, सारा सभ्यता-व्यापर और सारा ज्ञान-विज्ञान सामने रखकर भी, वह हमेशा अदना ही रहा। यह बात अलग है कि अपने इस बौनेपन के बावजूद मनुष्य हमेशा उर्ध्वबाहु होकर प्रकृति के औदात्य को चुनौती देता रहा । जब उसके सामने उसने खुद को अदना ही पाया तो झिझक कर स्वीकार भी कर लिया— 'यद्यपि छोटी बाँहों वाला बौना मैं, बड़ी बाँहों वाले मनुष्यों को सहज लभ्य फलों को तोड़ने के लिए ऊपर बाँह करके हंसी का पात्र ही बनूँगा'पर, यह आत्मदैन्य कालीदास जैसे किसी महाकवि के लिए ही सम्भव था; हम जैसे रोटी-पानी के जुगाड़ में लगे 'मनाई' तो अपने मनुष्य होने की उपलब्धि पर ही इतराते रहे। पेड़ों को कौन कहे, पूरी प्रकृति ही हमें चाकर नज़र आती रही और हम 'श्रेष्ठतम (अर्थत् मनुष्य ) की उत्तरजीविता को अनिवार्य मानते रहे । हमारी दृष्टि में इस सृष्टि का चरम विकास है, मनुष्य । इसलिए वह प्रकृति से श्रेष्ठ है और इस समूची सृष्टि की धुरी बनाकर उसे अपने इंगित पर नचाने की क्षमता है । सृष्टि उसके जीवन की संभावनाएं प्रस्तुत करती है और मनुष्य इनका कुशल दोहन करता है। इसक्रम में, कुशलता और अकुशलता के बीच की पतली दीवार कब दरक गई और कब यह धरती उघाड़ हो गई यह हम नहीं समझ सके । ज्ञान-विज्ञान की सारी साधनाएँ, सारी चिंताएँ और सारा व्यावहारिक क्रिया-व्यापार केवल और केवल मनुष्य को केंद्र में रखकर ही चलते रहे, हम भूल गए कि इस सृष्टि में कोई सखा, कोई सहचर या कोई मित्र भी है; मनुष्य धरती की संतान है, वह इसी की धूल-माटी में पल-सनकर बड़ा हुआ है—ये बातें तो हम बहुत पहले ही भूल चुके थे। परिणाम, प्रकृति का हर संसाधन धीरे-धीरे हमारी मुट्ठी में सिमटता गया और हम अपनी विजय का उत्सव मनाते रहे ।

       निश्चित रूप से आरंभ में मनुष्य और प्रकृति के बीच का रिश्ता इतना सरल, इतना एक रेखीय और इतना सपाट नहीं था । मनुष्य लेता तब भी था और अब भी है, लेकिन तब मनुष्य में कुछ हया बची थी । वह लेता था तो उसकी दानशीलता का सम्मान भी करता था । वह प्रकृति के साथ एक रागात्मक लगाव भी महसूस करता था या फिर उसे पूजता भी था । दुनिया की तमाम आदिम संस्कृतियों में प्रकृतिपूजा के जो साक्ष्य मिलते रहे हैं, वे केवल प्रकृति से भय या आतंक के कारण नहीं हैं, बल्कि उससे लगाव और सम्मान के कारण भी हैं । भारत को ही लें तो गंगा मैया बाढ़ के लिए नहीं, अपनी पोषक-वृत्ति के कारण उपास्य हैं, श्रेष्ठ हैं या माँ हैं । इसी तरह पीपल देवता है तो अपनी छाँव शीतलता और हवा के कारण और यह देवत्व ही कई बार प्रकृति की रक्षा का हेतु बन जाता था ।  आज हम वैज्ञानिक चेतना सम्पन्न हैं और उन पुरानी रूढ़ियों को नहीं मानते, लेकिन उसके भीतर निहित प्रकृति के प्रति सम्मान-भाव हमारे लिए आज भी उतना ही अनिवार्य है, जितना तब था । सच कहूँ, मेरा मन आज भी गर्मी की तपती दोपहर में रोहीनयवा आम या नयका पोखरा के उचे भीटे की उस गूलर के नीचे बिलम जाता है, जहां कभी गाँव के बच्चे गूर-गोटी और बाघ-बकरी खेला कराते थे और चरवाहे गमछा बिछाकर उसकी छाँव में लेते गलचौर कराते थे । वह गूलर आज भी है, लेकिन पूरी दुपहरिया उदास बैठी गाँव की ओर ताकता रहता है; कोई बच्चा, कोई गवैया, कोई किस्सा-गो उसकी छाँव में बैठ दुपहरिया मनसायन नहीं करता । रोहिनियावा आम की कंचन आभा अब धूप के तेज को चुनौती नहीं देती और न ही अब उसे पकाकर टपकने में वह आनंद आता है, जो टकटकी लगाए देखने वाली दो चार-छह जोड़ी आँखों की उत्सुकता देखकर होता है । अब वह सूखे पत्तों में बेमन ढुलक जाता है । उसके साथी कटहरियावा, ठोरहवा, मिठका, करुयसना, सेनुरियावा सिरफलियावा आदि की गाछें तो जाने कब की ढुलक गईं, पर जाने यह किसकी प्रतीक्षा में अब भी खड़ा है, अब भी बसंत आते महमहा उठता है और रोहिणी नक्षत्र के आते-आते पूरी गांछ पियारा उठती है । बाबा के जमाने में समाहूत के दिन इस आम का विशेष सम्मान था । दही, अक्षत, रोली, समहूती लाठी और कुदाल के साथ-साथ एक कटोरे या थाली में चौके पर यह आ बिराजता था । अब बाबा तो नहीं रहे, लेकिन यह आम अब भी है और हर रोहिणी नक्षत्र में इसके हरे-हरे पत्तों के बीच से चमकती बाबा की स्मृति झांक उठती है ।

मातृ दिवस

                    'मातृ दिवस' इस दुनिया की सबसे सुंदर व्यंग्यात्मक उक्ति है । इस पद को रचने वाला अद्भुत व्यंग्य प्रतिभा का धनी रहा होगा । इस एक पद के लिए उसे साहित्य का नोबल दे दिया जाना चाहिए । मेरी अस्थि, मज्जा और मांस ही नहीं प्राण, आत्मा और बुद्धि सबकुछ जिसका अंश है, उस माँ के लिए बस और बस एक दिन । शायद उसने यह व्यंग्य मुझ जैसी नालायक संतानों के लिए ही रचा है जो अपनी माँ से कोसों दूर रहते हैं और जिनके पास मातृ दिवस फेसबुक पर शेयर करने के लिए माँ की गोद में सिर रखे हुए एक चित्र भी नहीं है, जिससे जाहीर हो सके कि मेरी माँ मुझे कितना प्रेम करती है या मुझे उससे किताना लगाव है । मैं उन अभागे मनुष्यों में हूँ जिन्हें अपनी माँ का साथ बहुत कम मिला और मेरी माँ उन माताओं में जिन्होंने अपने बच्चे के भविष्य के लिए अपनी ममता और इच्छा को भी दबा दिया । उन्होने मेरे भविष्य के लिए बहुत कम वय में मुझे अपने से दूर जाने दिया । तबसे अब तक मैंने अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा माँ से दूर ही रहकर जिया है और अब भी जी रहा हूँ । मैंने बचपन से लेकर आज तक उन्हें केवल दूसरों की जिंदगी जीते ही देखा है, पहले भी और अब भी । अपनी इच्छा, अपना अधिकार और अपना सुख उनके हिस्से कभी आया ही नहीं । वे पहले भी सारे अधिकारों से वंचित थीं और अब भी हैं । वे तब भी डरते सकुचाते बोलती थीं और अब भी । उनकी इच्छाओं का खयाल तब भी किसी को नहीं था और अब भी नहीं है । काश वे अपनी इच्छाएँ कह पातीं तो जरूर कहतीं 'पूरे साल में मेरे नाम पर बस एक दिन बहुत कम है। वह भी, उस देश और समाज में जहां स्वर्ग में जाकर खटिया तोड़ने वाले पितरों को याद के लिए पूरा का पूरा पंद्रह दिन मिलता है ।'


सोमवार, 15 मई 2017

वाया सहारनपुर

सहारनपुर की घटना केवल एक घटना नहीं है, जो बाऊ साहेब और दलितो की लड़ाई से जुड़ी है ; एक पूरा मनोविज्ञान है इसके पीछे । इसे केवल दो जातियों या सवर्ण-अवर्ण या बड़ी जातियों के बर्चस्व की पुनरास्थापना की कोशिश तक सीमित करके देखना उसे एकरेखीय ढंग से देखना है । इन सारी बातों को स्वीकार करते हुए भी उसमें कुछ और बातें जोड़कर देखनी चाहिए; जैसे- आरक्षण को सवर्णविरोधी के रूप में प्रचारित करना, रोजगार के नए क्षेत्रों के विकास और नए पदों के सृजन की उपेक्षा और बेरोजगारी में बेतहाशा वृद्धि, दलितवादी, पिछड़ावादी और आरक्षणवादी बुद्धिजीवियों का लगातार तथा कथित सवर्ण जातियों को कोसना, असंसदीय भाषा का इस्तेमाल करना और सरकार को कोसने के बजाय इन जातियों को कोसना आदि । इन सबका मिला-जुला प्रभाव सामाजिक वैमनस्य का जो बीज बोरहा था, उसकी लहलहाती फसल है सहरनपुर । जो बौद्धिक लोग सहारनपुर को लेकर आज चिंतित हैं (अबौद्धिक होने के बावजूद मैं भी इसमें शामिल हूं ) उन्हें तभी इसके बारे में चिंता करनी चाहिए थी, जब कि वे सामाजिक ताने-बाने को तार-तार करने में जोर-शोर से लगे थे; बजाय सबके समान और समेकित विकास पर जोर देने के, जातिवादी वोट बैंकों में नागरिकों के तब्दील करनेवाली राजनीतिक पार्टियों का विरोध करने के, सरकार पर रोजगार के नए अवसर उत्पन्न करने के लिए दबाव डालने के, जातिगत मतभेदों को बढ़ाने से रोकने और उसे हवा देने वाली ताकतों का विरोध करने के तथा आरक्षण के संबंध में भ्रांतियाँ दूर करने के लिए व्यापक प्रयास करने के । ये तमाम पहलू हैं, जो भारतीय समाज को क्रमशः ज्वालामुखी के मुख-विवर की ओर धकेलते रहे। तब हम सब तमाशाबीन रहे और एकदूसरे खिलाफ खड़े होकर तालियाँ बजाते रहे । संभालना अब भी जरूरी है, अन्यथा समय जवाब नहीं माँगेगा फैसले सुनाएगा और हम सब कटघरे में खड़े या तो बेबस फैसला सुनेंगे या चुपचाप अपने पापों की फंदे पर लटक जाएंगे । समय पंडी जी, बाऊ साहब, यादव जी, मौर्या जी, पटेल जी, या किसी दलित और जनजाति के लिए पालागन करने या आरक्षण देने नहीं आएगा , वह जाति-गोत्र के आधार पर फंदे या कठघरे नहीं तैयार करेगा, वह सबको एक साथ लपेटेगा । तब कोई न कोई तारनहार रहेगा न तमाशाबीन । सब मारे जाएंगे । सहारनपुर उस आपदा की पूर्वसूचना भर है । इसलिए बेहतर हो, सरकार पर समेकित विकास और रोजगार सृजन के लिए सामूहिक प्रयास किए जाएँ, बजाय सिरफुटौवल और आपसी गाली-गलौज में ऊर्जा जाया करने के ।

रविवार, 14 मई 2017

शहादतें सिर्फ सीमाओं नहीं होतीं

शहादतें सिर्फ सीमाओं पर और जंगलों में नहीं होतीं । अपने गावों और घरों में भी होती हैं । भरोसा न हो तो सहारनपुर देख लीजिए । देश में केवल सुकमा और कश्मीर नहीं सहारनपुर भी है । सर्जिकल स्ट्राइक केवल कश्मीर के मोर्चे पर क्यों ? जवाबी कारवाई केवल सुकमा और बस्तर में क्यों ? आपके घरों में क्यों नहीं ? अरे आप तो काँपने लगे, बावु साहेब! मैंने तो केवल बात की आप तो पूरी कारस्तानी कर आए हैं। तब आपके हाथ नहीं काँपे अब आपका पूरा वजूद काँप गया । यही सोच रहे हैं न कि आपके इन कोमल हाथों का प्रतिवाद अगर किसी कठोर हाथों ने दे दिया तो संभाल भी नहीं पाएंगे । फिर किस बात का दंभ है-- देश के गृहमंत्री का या प्रदेश के मुख्यमंत्री का ( आप के गोतिया हैं न दोनों 'रामराज' के भविष्य ?) या अपनी कुलीनता का? माफ कीजिएगा वो आपके लिए कुछ नहीं कर सकते और न आपकी अमानवीय नीचकर्मा 'कुलीनता' । अगर ये सब अकुलीन मिल उठ खड़े हुए तो ... अरे ! आप नाहक सोच में पड़ गए । मैं तो बस सामाजिक और मानसिक सर्जिकल स्ट्राइक की बात कर रहा हूँ। सीमा और सुकमा के शहीदों को सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी । आप जिस मानसिकता में लोगों के घर जलाते हैं, वही मानसिकता सीमा और जंगलों में हमारे सैनिकों को शहीद करती है । जैसे आप ठाकुर और वे दलित हैं, वैसे ही सीमा पार का आदमी यह सोचता है कि वह पाकिस्तानी है और आपके सिपाही भारतीय या सुकमा के माओवादी सोचते हैं कि वे सर्वहारा के लिए संघर्ष कर रहे हैं और सिपाही सत्ता के एजेंट तथा उसकी शक्ति हैं, इसलिए उन्हें नष्ट करना या क्षति पहुंचाना वे अपनी जन्मसिद्ध धिकार मानते हैं । पहले मनुष्य को मनुष्य मानने की तमीज तो पैदा करिए , अन्यथा सहारनपुर तो नहीं रुकेगा, सुकमा और कश्मीर भी नहीं रुकेगा । सब यूं ही चलता रहेगा और आप जैसी आकृति वाले विभिन्न जाति, गोत्र, देश और विचारधारा के लोग यूं ही कटते रहेंगे ।

मंगलवार, 9 मई 2017

शब्दों से नहीं बयान होते रिश्ते

शब्दों से नहीं बयान होते रिश्ते । शब्दों से संबोधित होकर भी शब्दों की जद से छूट जाते हैं । शब्दों के हाथ से फिसले हुए रिश्ते एक साथ कई अर्थ देते हैं । माँ को ही लीजिए । इस एक शब्द की जितनी अर्थ-छवियाँ हैं उतनी शायद ही किसी और की हों । इस एक शब्द से एक साथ कई छवियाँ उभर आती हैं । नौ महीने तक अपने गर्भ में अपना रक्त पिलाकर पोसने वाली माँ, थोड़ी सी खरोंच पर बेचैन हो जाने वाली माँ, अपने आँचल में समेटकर जीवन का अमृत रस पिलाने वाली माँ, अपने सारे अभावों और दुःखों को एक ओर रख असीम ममत्व के आँचल में लपेट लेने वाली माँ, खुद खाली पेट आधा पेट रहकर संतान को अपने हिस्से का सबकुछ सौंप देने वाली माँ, मुश्किल या संकट में बरबस होठों से फूट पड़ने वाले बोल में बसी हुई माँ । इन तमाम अर्थ छवियों को एक साथ ध्वनित करता यह एक शब्द दुनिया का सबसे अर्थवान शब्द है । यह इतना शाश्वत है की इसे देखकर ही शायद किसी कवि मानस दार्शनिक ने शब्द-ब्रह्म की कल्पना की होगी ।