शुक्रवार, 1 मई 2020

शिक्षा में नई संभावनाओं का प्रयोगिक दौर


बंदी के इस दौर में हम एक नई प्रविधि की ओर बढ़ रहे हैं । विवशता में ही सही सरकार ने ऑनलाइन शिक्षा की लिए पहल की है । सामाजिक माध्यम और मीडिया मे यह सवाल बार-बार उठाया जा रहा है कि यह कहां तक व्यावहारिक है ?  निश्चित तौर पर इसकी सीमाएं हैं लेकिन सीमाएं तो आधुनिक शिक्षा की भी महसूस हुई होंगी; जब परंपरागत गुरुकुल पद्धति मे बदलाव कर आधुनिक शिक्षा पद्धति लागू की गई होगी। जिस तरह से आधुनिक शिक्षा ने शिक्षा को एक बंद दरवाजे से खुले दरवाजे की ओर जाने का रास्ता दिखाया और शिक्षा के अवसर की समानता दी, उसी तरह यह नवाचारी शिक्षा उसमें कुछ नई सम्भावनाएँ पैदा की हैं ।

दुनिया के लिए ऑनलाइन या मुक्त शिक्षा-व्यवस्था कोई नई बात नहीं हैं, अमेरिका और यूरोपीय देशों में इसका चलन ज़ोरों पर रहा है । हमारे यहाँ भी सरकारी योजना के स्तर पर इस क्षेत्र में तेजी से काम हो रहे हैं । यू जी सी, एन. सी. आर. टी.  की ई- पाठशाला, मूक्स, योजना के साथ मुक्त विद्यालयीय शिक्षा संस्थान की स्वयं, इग्नू की ज्ञानवाणी आदि इसी ही कोशिशे हैं, किन्तु इनके व्यावहारिक रूप में आने में कुछ चुनौतियाँ अभी से महसूस की जाने लगी हैं । इसमें जिस चुनौती को सबसे पहले रेखांकित किया जाता है, वह शिक्षक की सीमित भूमिका और छात्र-शिक्षक संवाद की कमी ।

 अस्सी के दशक के बाद दुनिया में शिक्षण के जो नए पैटर्न स्वीकृत हुए हैं, उनमें बहुलांश शिक्षाल की भूमिका को सीमित करने के ही पक्ष में हैं । शिक्षक को सर्कस का रिंग मास्टर  न होकर फेसेलिटेटर की भूमिका में होना चाहिए, इससे विद्यार्थी का सीखना अधिक सहज और प्रभावी होगा । यह स्वीकृत तथ्य है । इसलिए शिक्षक की भूमिका का सीमित होना नारात्मक नहीं सकारात्मक पहलू है । रही बात सीमित का अर्थ शिक्षा क्षेत्र में शिक्षकों की संखा में कटौती के अर्थ में तो शिक्षा का पहला उद्देश्य रोजगार देना नहीं शिक्षा को प्रभावी और बेहतर बनाना है ।

दूसरी बात शिक्षक-छात्र के आमने सामने संवाद की कमी केवल ऑनलाइन शिक्षण का दोष नहीं बल्कि भारतीय शिख्स्स पद्धति का भी सबसे बड़ा दोष है । विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय तक शिक्षा का व्यावहारिक प्रारूप शिक्षक केन्द्रित है, न कि विद्यार्थी केन्द्रित । शिक्षक अपनी रुचि, ज्ञान और क्षमता के भीतर संबंधित विषय पढ़ा और लिखा देता है, विद्यार्थी उसे प्रायः स्वीकार कर लेता है और याद करके परीक्षा में उसे लिख देता है । इसके विपरीत ऑनलाइन शिक्षण में विद्यार्थी के पास बहुत सारे प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध सामाग्री और संदर्भ होंगे, जिससे वह स्वयं को समृद्ध के शिक्षक से अपने सवालों और समस्याओं और संवाद कर सकेगा । इसमें शिक्षक रिंगमास्टर के बजाय सहभागी या सहयोगी की भूमिका में होगा ।

शिक्षा शिक्षकों के निजी परिसर से निकलकर पाठशालाओं, विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों की अपेक्षाकृत खुली चौहद्दीतक आयी है तो इनकी भी सीमा तोड़कर आगे बढेगी ही और बढी भी है । किंतु या चौहद्दी तोडना अभी सूचना की ओर ही उन्मुख है । गूगल, विकिपीडीया, स्वयं, ई-पाठशाला, ई-पीजी पाठशाला,मूक्स आदि इस दृष्टि से उपयोगी माध्यम बन कर उभरे हैं,किंतु इनकी मूलभूत दो दिक्कते हैं; पहली प्रामाणिकता और दूसरी गम्भीरता का अभाव। पहले का सम्बंध मुख्यतः गूगल, विकिपीडिया और यूट्यूब तथा निजी ब्लोगोँ से है और दूसरे का संस्थानों से। पहली कमी का कारण विशेषज्ञता का अभाव और शुद्ध व्यवसायिकता है, तो दूसरी का कारण सांस्थानिक भ्रष्टाचार तथा रुचि और प्रतिबद्धता की कमी के साथ ही तकनीकी-कुशलता का अभाव भी है । प्रायः संस्थानों में कार्यरत शिक्षक-फेलो अपनी निजी उपलब्धियों, निजी रुचियों और शिक्षा को तकनीकी माध्यमों से जोडने के प्रति उदासीनता के शिकार हैं और उनमें नए प्रयोगों के बजाय परम्परागत शिक्षण-परिपाटी के प्रति सुविधा प्रेरित आकर्षण अधिक है । यह अरुचि और  उदासीनता केवल शिक्षण संस्थानों तक सीमित नहीं है, बल्कि शिक्षा पर शोध और समग्री विकास के लिए स्थापित संस्थान भी इसमें कंधा से कंधा मिला कर चल रहे हैं । 

यह स्थिति भले ही अचानक पैदा हुई हो, पर सरकारी योजनाओं में इसकी तैयारियां काफी पहले से चल रही हैं, जो आज तक इसी स्थिति में पहुंची हैं कि कुछ महीने की परंपरागत कक्षाओं की बंदी से सरकारें और संस्थान पाठ्यक्रमों में कटौती की बात करने लगे हैं । इससे एक दूसरा सवाल पैदा हो गया है कि क्या कोई पाठ्यक्रम केवल कुछ भी पढ़ाकर पास करने के लिए बनाए जाते हैं या उनके पीछे कुछ निश्चित उद्देश्य और लक्ष्य होते हैं, जिन्हें टीचिंग-लर्निंग की प्रक्रिया में लर्नर द्वारा प्राप्त किया जाता है ? कम-से-कम पाठ्यक्रम निर्माण समितियों द्वारा ऐसी ही घोषणा पाठयक्रम निर्माण के समय की जाती हैं और प्रायः उसे पाठ्यक्रम की भूमिका के रूप में नत्थी कर प्रकाशित-प्रसारित भी किया जाता है । ऐसे में पाठ्यक्रम में कटौती जैसे कदमों की प्रासंगिकता क्या है ? यदि इस कटौती किए गए पाठ्यक्रम के बिना भी यह पाठ्यक्रम अपने आप में पूर्वनिर्धारित लक्ष्यों और उद्देश्यों को पूरा करने में समर्थ है तो विद्यार्थियों पर अतिरिक्त पाठ्यक्रम का बोझ क्यों ?

परंपरागत शिक्षण की भी यह समस्या है कि वे विद्यार्थी को चुनने और निर्णय करने की स्वतंत्रता नहीं देता । शिक्षार्थी जिस संस्थान में नामांकन कराता है प्रायः उसी परिसर के संसाधनों, पुस्तकालय शिक्षक आदि का उपयोग कर पाता है । कुछ बड़े संस्थानों या विश्वविद्यालयों आदि को छोड़कर प्रायः महाविद्यालयों और विद्यालय के पुस्तकालय हमारे देश में इतने समृद्धि नहीं हैं कि वे विद्यार्थी को नया सीखने-जानने के पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराएं । विद्यार्थी या तो अपने अध्यापकों द्वारा दी गई शिक्षा और सामाग्री तक सीमित होता है अथवा वह सहायक पुस्तकों सामग्रियों पर आश्रित हो जाता है, जिसमें से अधिकांश व्यावसायिक उद्देश्यों से तैयार की जाती है । उनकी गुणवत्ता को लेकर सवाल भले उठते रहे हैं लेकिन उन्हें रोकने का कोई स्थाई उपाय प्राया नहीं दिखाई  देता । शिक्षकों की तकनीकी दक्षता और उसकी एक बंद परिसरीय मनःस्थिति अथवा अपने पूर्वाग्रहों के कारण वे मुक्त-परिसर पर उपलब्ध सामाग्री की बाढ़ के बीच वे विद्यार्थियों के लिए उनमें से सामाग्री चयन में सहयोगी भी नहीं बन पा रहे हैं । इस समस्या का समाधान यह है कि सस्थानों में शिक्षकों की तुलना में रिसोर्स पर्सन, रिसर्चर, कंटेन्ट डब्लपर और फ़ेलो की संख्या बढ़ाई जाय और ऑनलाइन अधिगम-सहायक सामाग्री का विकास किया जाय । 

यह माध्यम किसी एक परिसर, वहाँ के संसाधनों और शिक्षकों पर विद्यार्थियों की निर्भरता कम करेगा तथा किसी एक विषय पर विद्यार्थियों को विविध सामग्रियों और शिक्षण शैलियों से परिचित होने एवं उनमें से अपने लिए उपयुक्त सामग्री के चयन की स्वतन्त्रता देगा ।  विद्यार्थियों के भीतर उस विषय पर विभिन्न समग्रियों की तुलना से तर्क और विवेक शक्ति को विकसित करेगा और शिक्षा को सब्जेक्टिव से ओब्जेक्टिव बनाने में मददगार होगा । तब सही अर्थों में शिक्षण अधिगम के प्रत्येक स्तर पर ओब्जेक्टिविटी को शामिल किया जा सकेगा, अन्यथा यह ओजेक्टिव प्रश्न पूछने की रश्मअदायगी तक ही सीमित रहेगी । जिस तरह गुरकुल परंपरा में ज्ञान सीमित वर्ग के हाथ में था उसी प्रकार आज भी परिसरों की चौहद्दियों में बंद है, सभा-संगोष्ठी के सीमित अवसरों के अलावा  प्रायः शैक्षिक परिसर परस्पर आदान-प्रदान और संवाद नहीं करते । खुला माध्यम होने से यह संवाद विकसित होगा और शिक्षण प्रक्रिया में पारदर्शिता तथा गुणवत्ता को प्रोत्साहन मिलेगा । 

शिक्षण की संस्थानिक शिक्षण की  एक सीमा यह भी है कि  वाह एक निश्चित समय और निश्चित स्थान पर उपलब्ध कराइए जाती है विद्यार्थी को उसकी रुचि सुविधा और सहज मानसिक स्थिति में सीखने के लिए प्रेरित नहीं करते  वह एक परिसरीय वातावरण का निर्माण तो करती है, जिसमें विद्यार्थी के सर्वांगीण विकास की दृष्टि से संभावनाएं  ऑनलाइन शिक्षा की तुलना में अधिक मानी जा सकती हैं, किन्तु उसका परिसरीय जीवन उसे जीवन और समाज की सहज-स्थितियों से अलग एक सुरक्षित और सुविधाप्रद वातावरण भी मुहैया कराता है, जिससे उसकी सामाजिक सच्चाईयों से काटने की संभावना भी रहती है । ऐसे में वह उस सुविधा और सुरक्षा से परे उसका जीवन सामाजिक वास्तविकताओं के बीच विकसित हो सकेगा ।

शर्त यह है कि बंदी के इस दौर में किए जा रहे शिक्षण को शिक्षकों द्वारा विवशता के पर्याय के रूप में न लेकर एक नई चुनौती या सम्भावना के रूप में लिया जाए, क्योंकि यह दौर इसके प्रयोग का एक उपयुक्त अवसर है । शिक्षण संस्थान केवल रोजी-रोटी देने के जरिया भर नहीं हैं और आज नहीं कल इन्हें री-कंस्ट्रक्ट होना ही होगा, जिसमें इन शिक्षकों को अपनी नई भूमिका तलाशनी होगी । अवसर कम नहीं होंगे, बल्कि बढ़ेंगे ही और शिक्षा के क्षेत्र में सांस्थानिक प्रतिस्पर्धा के साथ-साथ शिक्षकों में भी बेहतर प्रस्तुति की प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी ।  इसका लाभ सीधे-सीधे शिक्षा और शिक्षार्थी दोनों को मिलेगा। तोता रटंत और परिपाटीबद्ध ज्ञान की तुलना में नए शोध और इनोवेशन को वास्तविक रूप में बल मिलेगा ।