शनिवार, 21 अक्तूबर 2017

जिजीविशेच्छरदंशतः

शरद ऋतु का चाँद अपनी सुंदरता के लिए जाना जाता है। इसकी स्वच्छ चाँदनी में बैठकर ज्ञान, कला और साधना की अनेक सुंदर रचनाएँ रची गईं। तभी तो हमारे ऋषियों ने कहा— कुरवान्नेह कर्माणि जिजीविशेच्छरदंशतः अर्थात् कर्म कराते हुए सौ शारदों तक जीने की इच्छा रखनी चाहिए। खुला आकाश स्वच्छ चाँदनी और पारिजात की गंध लिए मंद वायु; निसर्ग का अत्यंत मोहक रूप जिसकी कल्पना ही जी को अद्भुत प्रशान्ति से भर देती है, फिर अनुभव की बात ही क्या ? इसलिए शरदपूर्णिमा के चंद्रमा से अमृत की बूंदे गिरने की कल्पना दूर की कौड़ी नहीं लगती। भले ही यह कवि रूढ़ि हो, पर आम भारतीय मानस उसपर सहज विश्वास करता है । वह तो शरद पूर्णिमा की रात को मुंडेर पर या आँगन में कटोरे में खीर रखकर सोता है, ताकि रात को टपकने वाली अमृत-बूंदें उसमें टपककर उसमे अमृत भर देंगी, जिसे खाकर वह निरुज और अमर हो जाएगा। किसी इतिहासकार, वैज्ञानिक या तर्कशास्त्री के लिए यह कल्पना हास्यास्पद हो सकती है, पर एक कलाकार, कवि या सौंदर्य मर्मज्ञ ही नहीं एक आम भारतीय के लिए भी या सहज विश्वास की चीज है, तभी तो वह पीढ़ियों से अमृत की चाह में हर शरद पूर्णिमा की रात को खीर रखता है। हममें से बहुतों को यह रूढ़ि लग सकती है, पर यह प्रकृति के प्रति उसके विश्वास, आत्मीयता और सहज राग की अभिव्यक्ति है।
      और, सूरज ! शरद का सूर्य भी  बहुत प्रखर होता है। क्वार की तीखी धूप जेठ-बैशाख की धूप से कम तेज नहीं होती, अंतर मिजाज का होता है। उसकी तप्त-प्रखर रूप राशि बारसात की बूंदों में नहाकर और अधिक स्वच्छा हो जाती है, लेकिन साथ ही उसका रूप भी सौम्य हो जाता है । सौम्यता और प्रखरता का यह संतुलन किसी और ऋतु में उतना संभव नहीं, जितना कि शरद ऋतु में। इसलिए शरद ऋतु का चाँद ही नहीं, उसका सूर्य भी अपने सुंदरतम और सुखकर रूप में उपस्थित होता है। वह अपने किरणों के हर कण में मधु का संचार करता है, जिससे भरकर हमारी फसलें पुष्ट होती हैं, पकती हैं और हमें पोषण देती हैं। ग्रीष्म और वर्षा के चक्रों को पार कर शीत की ओर धीरे-धीरे बढ़ता हुआ सूरज तेजोमय तो होता है, पर उग्र नहीं। सौम्य, शालीन किन्तु तेजोवान। राम की तरह शक्ति समन्वित होते हुए भी शीलानुशासित और इसलिए सुंदर भी। भारतीय मानस में राम की उपस्थिति उनके शक्ति और शील समन्वित सौंदर्य के कारण ही है और यही कारण है। भारत में अकेले-अकेले शक्ति या अकेले अकेले शुभता का कोई मान नहीं। यहाँ दोनों के परस्पर साहचर्य का ही मान है। इसे समझे बिना सत्यम्ब्रूयात्पृयंब्रूयात मा ब्रूयात्सत्यमप्रियम (सच बोलो किन्तु प्रिय सच बोलो अप्रिय सच मत बोलो) एक छल लग सकता है या फिर बुद्ध का मध्यम प्रतिपदा एक थका हुआ समझौतावादी दर्शन, पर इसे समझकर हमें भारतीय चिंतन, कला और साहित्य को समझने की एक नई आँख मिल जाती है। राम, गांधी और बुद्ध तीनों ही अपने कर्म और जीवन-दर्शन में इसी भारतीय मानस की अभिव्यक्ति हैं । इनमें राम उसके आदर्श प्रतिमान है तो बुद्ध और गांधी उसकी व्यावहारिक अभिव्यक्ति। । इसलिए यह आश्चर्य नहीं कि भारतीय महाकवियों ने शरद ऋतु को ही राम की रावण पर विजय और उनकी लंका से अयोध्या वापसी का समय चुना। विजयादशमी विजय का, शक्ति का और असत्य पर सत्य की जीत का त्यौहार है तो दीपावली स्वागत का, मिलन का, प्रेम और माधुर्य का उत्सव। एक में तेज है, प्रखरता है, सत्य के विजय का उद्घोष है, तो दूसरे में माधुर्य, नमनीता और शुभता की अभिव्यक्ति है। विजयादशमी के राम और दीपावली के राम में फर्क है। विजयादशमी के राम शत्रुहंता हैं, वीर हैं योद्धा और विजेता हैं पर दीपावली के राम एक पुत्र एक भाई और प्रजा के प्रिय राजकुमार हैं। ध्यान रहे, भारत में युयुत्सु, आक्रांता या योद्धा के स्वागत की परंपरा नहीं रही है, न ही राम का स्वागत इस रूप में हुआ, बल्कि उनसे प्रेम के अतिरेक में अयोध्या के लोगों ने दीपोत्सव मनाया।

      शरद का सूर्य भी राम की तरह ही प्रखर भी होता है और मधुर भी। इसलिए वह पूज्य, श्रेष्ठ और श्रेयस्कर है । यूं तो भारत में सूर्य-पूजा की परंपरा बहुत पुरानी है, आर्यों के आगमन की इतिहास-कथा को साक्षी मानें तो आमू दरिया से ही इसके साक्ष्य मिलने लगते हैं। इसी आधार पर कुछ विद्वानों ने राम के वंश का संबंध ईराक-ईरान के आर्यों से जोड़ते हुए उनकी भारत तक यात्रा की कल्पना की है, लेकिन भारत में इसका स्पष्ट प्रमाण वैदिक साहित्य में मिलता है। रामायण में राम को तो सूर्यवंशी कहा ही गया है, महाभारत में भी कर्ण की जन्म-कथा में भी कुंती द्वारा सूर्य-उपासना का उल्लेख है। इस आधार पर यह आम धारणा रही है कि सूर्योपासना आर्य परंपरा की देन है। पर इस पूरी सूर्योपासना का कोई सीधा संबंध वर्तमान में बहुत तेजी से प्रचलित हो रहे सूर्य-पूजन के त्यौहार छठ से नहीं दिखाता। यह भारत के बिहार राज्य से शुरू होकर बहुर तेजी से भारत भर में, विशेष रूप से उन महानगरों में फ़ेल रहा है जहां बिहार आए लोग ठीक-ठाक संख्या में रहते हैं। दिल्ली, मुंबई, कलकत्ता ही नहीं उन सभी छोटे-बड़े शहरों में इसका असर दिखने लगा है जहां बिहार के लोग नौकरी, व्यवसाय या मजूरी करने आते हैं।

गुरुवार, 19 अक्तूबर 2017

माटी की सन्तानें



कल दिया-दियारी है. हमारे गाँव घर का जाना-चीन्हा त्यौहार. दिया-दियारी से दीपावली तक हमारे पास बहुत कुछ था जो छूट गया . चन्देव बाबा थे, हमारे पुश्तैनी कुम्हार, उनके हाथ की बारीक कला थी, घुर्ली थी, गुल्लक थे,दिए थे, भोंभा थे, घंटियाँ थी... उनके हाथ की छुअन थी कि माटी के बेडौल टुकड़े में भी जान भर देती— कोई न कोई आकृति निकाल ही देती। बचपन में दादी और माँ कभी किसी बर्तन के लिए भेजतीं तो मैं तमाम छोटी-बड़ी रंग-बिरंगी आकृतियों बीच देर तक चक्कर काटता रहता. कभी-कभी उनके चाक का चलना, हाथों के सहारे नई आकृतियों का उभरना और एक सूत के सहारे बहुत बारीकी से इसे मिट्टी के शेष लोने से काटकर अलग कर लेना देर तक निहारता रहता। कभी पूछता बाबा ये चाक एक डंडे से कैसे चलता है ? चंदेव बाबा बड़े प्यार से समझाते कि यह कोई बड़ी बात नहीं बस थोड़ा सीखना होता है । मैं कहता बाबा में भी चलाऊँगा तो बोलते, बाबू लोग चाक ना चलावे ला। ई त कोंहार क काम ह। कोंहार अलग होता है और बाबू के लाइका-बच्चा अलग ये बात गाँव घर में बहुत छिटपन में ही पता चल जाती है, सो मुझे भी पता था और मैं विशिष्टता-बोध से भरकर हट जाता। हाँ इतना अवश्य था के अपने समवयस्क दूसरे सवर्ण लड़को की तरह नाम लेकर बुलाने में तब भी संकोच होता था और अब भी वय में अधिक लोगों के साथ ऐसा करने में संकोच होता है ।
       जब कभी कोई बर्तन लाने जाना होता वे तो खुद उस बर्तन को अंगुली से बजाकर देखते की कहीं टूटा तो नहीं है और अगर टूटा होता तो बदल देते। घर जाने पर बेहद अपनत्त्व से बैठातीं थी उनकी 'मेहरारू'। दीया, ढकनी, पराई, मेटा, कलसा, कराही आदि किसके घर किस त्यौहार पर कितना लगता है, उन्हें याद रहता। जाते ही उतना गिन कर रख देतीं और अक्सर तो वे खुद ही पहुंचा आतीं त्यौहार से एक दिन पहले या जाने पर साथ आ जातीं सिर पर खाँची में लादे। घर तक पहुंचाकर ही जातीं। सत्ती मैया की पूजा के लिए माटी की चिरई वो खुद अपने हाथ से बानतीं । इस पूजा में माती के मुकुट में फांसी हुई माटी की चिरई का क्या तर्क मेरे समझ से आज भी परे है, लेकिन जब सत्ती मैया के सिर पर इन चिराइयों से लदा माटी की मुकुट गता तो सचमुच बड़ी उत्सुकता होती हम बच्चों को कई बार पूजा पूरी होने से पहले ही बच्चे उसे लूट लेते । घर की बड़ी-बूढ़ी औरतों को उसकी रखवाली करनी पड़ती। गज़ब क्रेज था माटी की उस चिरई का । आज जब सोचता हूँ तो याद आता है की कुछ भी तो नहीं था उसमें; एक चोंचनुमा आकृति के सिवा, बेढब और बेडौल सा दिखाता है , लेकिन उसी के लिए माइकल जैक्सन और शकीरा को सुनने वालों से ज्यादा से मार होती थी उस जमाने में हम बच्चों में। पलक झपकते ही सत्ती मैया का मुकुट चिरई विहीन और कभी-कभी तो जब हाथ में कुछ नहीं आता तो कोई-कोई बच्चा वह मुकुट भी ले उड़ता। तब चंदेव बो आजी हम जैसे दो-चार भीड़-भीरु बच्चों को पास बुलाकर एक एक चिरई थमा देतीं जो उन्होंने पहले ही उसे अतिरिक्त रूप से बनाकर हमारे लिए रखे होते । हाँ गिरहत्त से लेन देन में कोई मुरव्वत नहीं था कभी-कभी किसी गिरहत्तिन से दियरी (दीपक) बदले नाज लेने की हुज्जत में घंटों अड़ी रहतीं और अंत में अनाज छोड़ के चली जातीं फिर गिरहत्त को अपने बच्चों से उसे उनके घर भेजना पड़ता, वो भी उनके मन माफिक ।
       दिवाली के पहले की शाम हमारे लिए खास होती । हम कुछ दिनों पहले दे ही उसका इंतज़ार करते थे। अगर अपने हाथ में भोंभा आने से पहले गाँव में कहीं भोंभा की आवाज सुनाई पड़ जाती तो बहुत कोफ्त होती, लगता कि इस भोंभे की पहली आवाज मेरे क्यों न हुई और हम बार-बार घर के दरवाजे की ओर लपकते । शाम को कुम्हारिन आजी के आते ही हम उन्हें घेर कर बैठ जाते और उनकी खाँची से कपड़ा हटाने का इंतजार करते । जब तक वह मान और दादी को दिए गिनकर देतीं तबतक हमारी उत्सुकता चरम पर पहुँच चुकी होती और बार-बार कपड़े में ढँके खिलौनों की तो लेते रहते थे कि पिटारे में क्या-क्या है । इस बीच कई बार पूछकर दादी और मम्मी की झिड़की भी खा चुके होते और कुम्हारिन आजी के दीयों की गिनती भी भुला चुके होते । दीयों को वे सावधानी से गिनतीं उनकी संख्या के अनुपात में उन्हें अनाज लेना होता, पर मुझे जहां तक याद है गुल्लक को छोड़कर वे बच्चों के खिलौनों का पैसा नहीं लेतीं।
       खिलौने से कपड़ा हटाते ही हमारी उत्सुकता कार्य-रूप में परिणत हो जाती। ये रहा भोंभा, ये घंटी, ये गुल्लक, ये रहा जानता और ये हाथी-घोडा आदि-आदि। सब अपनी-अपनी पसंद का ले उड़ते। दीदी लोगों के हिस्से जाँता और चुल्हा आता तो अपने हिस्से बाकी का साम्राज्य। गुल्लक सबके अपने-अपने होते। सबका साल में एक-एक का कोटा निर्धारित होता, सो वह सबको मिलता था। अब अंत में बारी होती घुर्ली की । हर पुरुष पर एक । यानी, घर में चार पुरुष का मतलब पाँच घुर्ली। घुर्ली यानी मिट्टी का छोटा पात्र जिसमें चिउड़ा या लाई रखकर चीनी की मिठाइयाँ ककनी, कुटकी और घुर्ली (घड़ा के आकार की चीनी की मिठाई) गोबरधन बाबा पर चड़ाई जाती थी । यह मिठाई लड़कियों के लिए वर्जित थी । उनके लिए अलग से निकाल कर पहले रख दी जाती थी । जब कोई लड़की घुर्ली में राखी मिठाई खाने का हाथ करतीं तो बूढ़ी दादियाँ-नानियाँ कह उठतीं कि गोधन की मीठी खाने से मूंछ निकाल आएगी। लड़कियों को नहीं खाना चाहिए।
       हमारे यहाँ दिया तो नैपथ्य में रहता असली महत्त्व घुर्ली और घाँटी (घंटी) का था। पाता नहीं क्यों मेरा मन आज इसका कुछ निहितार्थ खोजाना चाह रहा  है। यह कहाँ तक सही है कह नहीं सकता, पर दिवाली की दियारी पर गोधन की घुर्ली को महत्त्व इतिहास किसी युग की ओर संकेत करता है। शायद कभी ऐसा समय रहा हो जब दियारी से ज्यादा महत्त्व गोधन या अन्नकूट का हो । गोधन यानी पशुपालक संस्कृति का उत्सव और अन्नकूट यानी कृषी संस्कृति का दाय । गोधन को तो स्पष्टतः चरवाहे देवता कृष्ण से ही जोड़ा जाता है । कृषि और गोपालन के साहचर्य ने इन दोनों उत्सवों को एक में मिला दिया और अन्नकूट और गोवर्धन पूजा एक साथ मिल गए। इस सदियों के साहचरी के बावजूद हमारे क्षेत्र की भोजपुरी महिलाओं के लिए गोधन बाबा अब भी पाहुने ही हैं। पहुने यानी अतिथि यानी बाहर से आए हुए। स्पष्ट है कि गंगा की इस घाटी में चरवाही आभीरादि जातियों के आने से पूर्व कृषि-संस्कृति अपने पूर्ण-विकास पर थी। इसलिए उसने पशुचारक घुमंतू अतिथियों को स्वीकार तो किया, लेकिन पहुने बनाकर ही। वैसे भी ये जातीयाँ हमारे यहाँ प्रायः या तो गाँव के सीमांत पर बसती हैं या उनसे दूर किसी पुरवे या डेरे की शक्ल में। मैंने बचपन में गर्मियों के दिनों में अहीर और गंदर जातियों के लोगों को दूर बांड (खुले चारगाह) में हार की हार गाएँ या भेंड़े लेकर रात भर खुले आसमान के नीचे सोते और घूमते देखा है, जो बरसात की शुरुआत के साथ अपने गाँव-घर लौट आते थे।
       अस्तु, अब तो पहुने गोधन बाबा  हमारे क्षेत्र में पूरे पहुने या मेहमान बन चुके हैं और पहुने का अर्थ संकोच होकर दामाद या बहनोई का रूप ले चुके हैं। भारतीय लोक में यः सम्मान संभवतः शिव के बाद गोधन बाबा को ही मिला है (अवश्य ही भगवान राम को छोडकर जो मिथिला के घर-घर के मेहमान या पहुने है, पर बाकी भारत के बेट हैं)। उनके स्वागत में बकायदे परिछन होता है, औरतों के समवेत स्वर में गोधन बाबा इलन पाहुन हो का स्वागत-गीत होता है और उसके बाद आतिथ्य में मिठाई, खील, लाई और चिउड़ा के साथ तरह-तरह की सामर्थ्यानुरूप मिठाइयाँ भी। यह पूरा पूजन, गान और उत्सव पुरुष-विहान होता है, वैसे ही जैसे कोहबर के दरवाजे पर अकेला वर पुरुष होता है बाकी सब स्त्रियाँ। हाँ, इस पूरे उत्सव का प्रसाद पुरुष को मिलता है, स्त्रियाँ उससे वंचित रहती हैं। इससे ऊपर के तथ्य को समझने में एक और छोटा सा सूत्र हाथ लगता है, वह यह कि गोधन बाबा के शामिल होने से पूर्व यह पूर्णतः स्त्रियों का उत्सव था। इसमें पुरुष की उपस्थिति लगभग अब भी वर्जित है, तब यह पूर्ण वर्जित रही होगी। बाद में समाज के गोबरधनों ने उस उत्सव का प्रसाद तो छीन लिया, लेकिन उसमें स्त्रियों के उत्सव का अधिकार और स्त्रियों की मनोव्यथा की अभिव्यक्ति का अवसर नहीं छीन पाए। यः बात इसलिए भी काही जा सकती है, क्योंकि गोबरधन पूजा से पहले स्त्रियाँ  उपवास रखती हैं और शायद यः पहला त्यौहार है, जिसमें घर के सभी पुरुषों को सराप (शाप या गाली) देती हैं और अंत में उनके दीर्घायु होने की कामना भी।
       भारत में कृषि सभ्यता के विकास के सबसे पुराने साक्ष्य बताते हैं कि भारत में गेंहूँ से पूर्व धान अस्तित्व में था और इसकी सबसे अच्छी पैदावार का क्षेत्र गंगा की घाटी है। भारतीय धर्मसाधना में कल्पना, रचना और उत्पादन का दायित्व देवियों के हाथ रहा है;  चाहे वह सरस्वती हों, पृथ्वी हों, शाकंभरी हों या अन्नपूर्णा । इसलिए यह माना जा सकता है कि हमारी आदिम मातृकाओं ने ही भारत में कृषक संस्कृति की नींव रखी, पुरुष तो घुमंतू था, आखेटक या चरवाह था । स्त्रियों ने ही आपनी संतानों की सुरक्षा के लिए घरौंदों के सपने रचे, घर बसाए, चूल्हा, चाकी, रोटी, दाल की चिंता की और एक जगह रहकर कृषि की शुरुआत की। यह गलत धारणा है कि भारतीय जन-मानस केवल शिवलिंग के रूप में पुरुष के वारचास्व को पूजता है, सच यह है कि वह कलश को शिवलिंग से अधिक महत्त्व देता है। शिवलिंग की पूजा मंदिरों में जाकर होती है, उसे हम सामान्य भारतीयों के घरों में स्थान नहीं, जबकि कलश हमारे घरों में छोटी बड़ी पूजाओं में भी स्थापित होता है। कलश केवल घड़ा नहीं हैं, वह जा पूरित होता है, उसके आसपास गीली मिट्टी में बोये गए अन्न के अंकुर और उसके मुझ पर आम्र पल्लव, पात्र और उसमें रखा अन्न होता है। यह कलश वस्तुतः सृजन का, मांगल्य का मातृत्व का प्रतीक है। उसकी पूर्णता और उसके पार्श्व में हरा-भरा शस्य उसके मातृका रूप को व्यक्त करता है। हाँ उसके साथ गौरी-गणेश के रूप में गोबर की लघु आकृति अवश्य गोधन और अन्नकूट की तरह बाद में कृषि और पशुपालक संस्कृति के बीच स्थापित होने वाले साहचर्य का प्रतीक है । गोबर से बनी आकृति गौरी और गणेश दोनों ही नहीं, बल्कि गणेश का प्रतीक है। गौरी तो कलश रूप में वहाँ पहले से उपस्थित थीं, गणेश बाद में जुड़े । इसीलिए मान-पुत्र के रूप में गौरी गणेश का युग्म चल निकाला। गणेश के मानस के मानस पुत्र होने की कल्पना भी शायद इसी साहचर्य की ओर इशारा करती है, जो सीधा न होकर दो संस्कृतियों के सम्मिलन से हुआ है। यह सहास्तित्व भारतीयता की अविरोधी धर्म की महाभारतीय और तत्तुसमन्वयात् औपनिषदीय संकल्पनाओं के मेल में बैठती है।

       बाबा कहा करते थे कि हमारे पूर्वज बाद में गंगा के इस मध्य क्षेत्र में आए, वे मूलतः कन्नौज के थे। उससे पहले यह क्षेत्र कैसा था क्या था इसका अनुमान न इतिहास की पोथियों में है और न हमारे अनुभव ज्ञान के दायरे में। पर, अनुमान और किंवदंतियों के आधार पर हमारे पूर्वजों के इस क्षेत्र में आबाद होने से पूर्व इस क्षेत्र में कहार, कुम्हार, कमकर, चेरो-खरवार आदि रहते थे । इन्हीं लोगों ने हमारे गाँव के आस-पास के कई गांवों में बड़े-बड़े तालाब खोदे हैं, जो सैकड़ों बीघे लंबे चौड़े हैं और इन गांवों के वर्तमान बाशिंदों से पुराने हैं। हालांकि अब काफी कुछ सिमट भी गए हैं। बाबा के शब्दों में ये मटियार जातियाँ थीं , मटियार यानि माटी का काम करने वाली । माटी में जन्मीं माटी की सन्तानें। भारत की खेती, भारत की कला और भारत के लोक-पर्व इन्हीं माटी की संतानों की देन है। बाद में आने वाले बाशिंदों ने तो बस इनमें खुद को मिला लिया या ये खुद ही अपना माटी के तरह अपना वजूद खोकर अलग आकृति में ढल गए। ये माटी की सन्तानें ही हमारी धरती के वे असंख्य दीप हैं जो कृत्रिमता की रंगीन झालरों के बीच भी संस्कृति के असंकशी टिपटिमाते दीपों की तरह अपना वजूद बनाए हैं । 

सोमवार, 2 अक्तूबर 2017

खुले में शौच सवाल ज्यादा जवाब कम



खुले में शौच को जिस तरह का हव्वा बनाया गया है, उससे लगता है कि जलवायु परिवर्तन का सारा दारोमदार खुले में निपटान पर ही है क्योंकि देश में औद्योगिक कचरे और नगरीय कचरे के प्रसार तो स्वच्छता अभियान का सहायक है। किसी भी शहर की सम्पन्नता और आकार का पता उस शहर के बाहर पड़े कचरे के ढेर से चल जाता है, जिससे मुक्ति का कोई उपाय हाल-फिलहाल नहीं दिखता। खुले में शौच पर सरकार ने जितना ध्यान दिया उतना कचरों के निपटान पर क्यों नहीं दिया ? दूसरा पहलू यह भी है कि शौचालयों में पानी की बरबादी अधिक होती है। एक लोटे का काम बाल्टियों में निबटाना पड़ता है। क्या सरकार ने उस अनुपात में भूमिगत जल के पुनर्भरण का कोई मास्टर प्लान बनाया है, जिस अनुपात में वह शौचालयों के निर्माण का दावा कर रही है। शौचालयों की संख्या के साथ उसे यह भी बताना चाहिए कि वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम का उसने कितना प्रचार-प्रसार किया और उसके निर्माण के लिए उसने कितने रूपए किये ? क्या शौचालय निर्माण की तरह इसमें कमीशन खोरी का स्पेस गाँव से लेकर जिले तक बैठे अधिकारियों, नेताओं और मंत्रियों के लिए नहीं है या अभी उसकी और उनका ध्यान नहीं गया है ? सरकार को शौचालय निर्माण प्रचार के साथ या भी बताना चाहिए कि मल-जल के प्रवाह के लिए उसने क्या क्या प्लान तैयार किए हैं और कितना लागू किया है ? खेतों में अपघटित होने वाले अपशिष्ट की तुलना में बिना ट्रीटमेंट के नदियों में बहने वाला यह दूषित जल कितना अधिक फायदेमंद होगा ? कितने गांवों में सरकार ने सीवर की व्यवस्था की है ताकि शौचालयों के टैंक से निकलने वाला दूषित जल खुली नालियों में बहकर आस-पास गन्दगी न फैलाए। गाँव के पुराने जल केंद्रीकरण के स्रोत (गड्ढे,ताल,पोखरे, सामुदायिक जमीन आदि) दबंगों के कब्जे में गई। फिर बाधा हुआ पानी कहाँ जाएगा ?