शुक्रवार, 13 नवंबर 2020

रोशनी की प्रजाएँ


                                                                            कुबेरनाथ राय 

दीपावली अर्थात नन्हे-नन्हे दीपकों का उत्सव। रोशनी के नन्हे-नन्हे बच्चों का उत्सव! ‘जब सूर्य-चन्द्र अस्त हो जाते हैं तो मनुष्य अन्धकार में अग्नि के सहारे ही बचा रहता है।’ ‘छान्दोग्य उपनिषद’ के ऋषि का यह बोध हमारे दैनिक अनुभव के मध्य होता है। एक-एक नन्हा दीपक सूर्य, चन्द्र और अग्नि का प्रतिनिधि बन कर हमारे घरों में रोज अपनी देवोपम भूमिका निभाता है। उसकी देह भले ही पार्थिव धातु की हो, परन्तु है वह वस्तुत: रोशनी की प्रजा। प्रजा से हमारा तात्पर्य सन्तान से है और गांव-गांव, नगर-नगर अपनी देदीप्यमान भूमिका में प्रतिष्ठित असंख्य दीप-शिखाएं उस रोशनी की असंख्य प्रजाएं हैं, जो सूर्य, सोम और अग्नि तीनों में निहित व्यापक देवशक्ति के रूप में सृष्टि की प्रथम उषा के साथ सक्रिय हैं। रोशनी एक भगवती शक्ति है। इसका संस्कृत रूप है ‘रोचना’। ईरानी ‘रोशनी’ और संस्कृत ‘रोचना’ के मूल में ही हिंदी आर्य-ध्वनिखंड है, जो मूलत: दीप्ति या द्युति से जुड़ा है। रोशनी के भगवती-शक्ति होने के कारण ही ‘ललितासहस्रनाम’ में देवी का एक नाम ‘रोचना’ भी है। स्वयं में ‘देवी’ शब्द का अर्थ ही होता है ‘देदीप्यमान’।

 

  भारतीय मन नारी में भी तेज और दीप्ति का प्राधान्य देखता है। इसी से यहां पर नारी व्यक्तिवाचक संज्ञाओं के साथ ‘देवी’ शब्द जोड़ने की प्रथा है। आजकल अवश्य नई पीढ़ी की लड़कियां अब अपने नाम के आगे देवी शब्द लगाना नहीं पसन्द करतीं। परन्तु है यह बड़ा ही अर्थ-गम्भीर और महिमामय शब्द। इसके अनुसार प्रत्येक भारतीय कन्या ही देदीप्यमान ज्योतिर्मय सत्ता है। वस्तुत: भारतीय मन रोशनी या द्युति से बड़े ही घनिष्ठ भाव से जुड़ा है। रोशनी या द्युति देवता है, जीवन, प्राण, शक्ति और चेतना का प्रतीक है। इसके प्रतिकूल अन्धकार आसुरी है, तामसिक है, मृत्यु-रूप है और चैतन्यविहीन जड़ता का, अगति का और अधोगति का प्रतीक है। रोशनी के ही परिवेश में मनुष्य की इच्छा, ज्ञान और क्रिया का स्वस्थ और समुचित विकास होता है, क्योंकि रोशनी के संदर्भ में दुराव-छिपाव और ग्लानि का कोई स्थान नहीं। फलत: कहीं कोई अवदमन नहीं, कहीं कोई आत्मक्षय नहीं। 

इसके विपरीत अन्धकार छिपाव, दुराव, संशय, कुटिलता, कपट और व्यभिचार का सहज परिवेश रचता है। क्रूरता इसके भीतर अपने नख-दन्त निरन्तर रगड़ कर तीक्ष्णतर करती रहती है। अशुभ और अशोभन इसकी शाखा-दर-शाखा पर घोंसले बांध कर उल्टे पांव लटके हैं और निरन्तर अमंगल ध्वनि द्वारा संकेत देते रहते हैं। वैसे तो मनुष्य मात्र ही रोशनी में एक दिव्यबोध का अनुभव करता है, परन्तु हिन्दुस्तानी जाति ने अपनी दैनिक प्रार्थना ‘गायत्री’ से लेकर अपने पारस्परिक सम्बोधन ‘जी’ तक सर्वत्र ही एक रोशनी अर्थात ‘तेज’ तत्व को विशेष महत्व दिया है। ‘जी’ की बात लें। उत्तर भारत में श्रद्धा और प्रेम के साथ किसी का नामोच्चरण करते हुए ‘जी’ लगा दिया जाता है। रामजी, कृष्णजी, हनुमानजी से लेकर गांधाजी, नेहरूजी तक सभी के साथ ‘जी’ है। यह ‘जी’ भी अप्रत्यक्ष रूप से रोशनी का ही सगोत्र शब्द है।

पहले मेरी धारणा थी कि यह ‘जीव’ का रूपान्तर है और भारतीय दृष्टि में हम सब प्रत्येक ‘जीवात्मा’ हैं। परन्तु बाद में मैंने धारणा का संशोधन किया, तब इस शब्द का असली रहस्य पकड़ में आया। ‘देव’ और ‘जी’ दोनों ही संस्कृत के ‘द्यु’ से जुड़े हैं। संस्कृत ‘द्यु’, द्युति, ज्योति, दिव, देव और प्राकृत ‘जी’ आदि सारे शब्दों के मूल में ‘द्यु’ ध्वनिखण्ड का मूल प्रारूप निहित है। और ये सारे शब्द ज्योति या प्रकाश से जुड़े हैं। मध्य एशिया की शकार्य बोलियों के प्रभाव से यह ‘जी’ शब्द आया होगा, क्योंकि मध्य एशिया तथा यवन अंचलों में ‘द’ का ‘ज’ में रूपान्तर हो जाता है। संस्कृत में भी सन्धि करते समय ‘द’ का ‘ज’ हो जाता है, अत: द और ज मूलत: एक ही ध्वनियां हैं। किसी आर्यभाषा में ‘द’ चला तो किसी में ‘ज’। जैसे द्युपितर (संस्कृत) का लाटीनी रूप ‘ज्यूपितर’ है। द्यौस का ‘जेउस’ है। शायद यवन भाषा के प्रभाव से ही भारतीय ज्योतिष में बृहस्पति को ‘जीव’ (जे उसका विकृत रूप) कहा जाता है। 

अत: किसी कारणवश देव का देऊ, जेऊ, फिर ‘जू’ और ‘जी’ हो गया है। पुरानी हिन्दी में, राजस्थानी में ‘जू’ ही चलता है ‘जी’ नहीं। उत्तर भारतीय-भाषा और संस्कृति पर उत्तरकुरु की आर्य संस्कृति तथा कालान्तर की शक संस्कृति का प्रभाव बड़ा सघन पड़ा है और इन्हीं अंचलों में ‘जी’ या ‘जू’ चलता है, जहां यह प्रभाव विशिष्ट रहा है। असम-बंगाल में अब भी ‘देव’ चलता है। द्युति और ज्योति का अर्थ एक ही है। हमारे दैनिक जीवन में ‘जी’ का प्रयोग आर्य भावधारा में प्रतिष्ठित ‘देवता’ और द्यु तत्व यानी रोशनी के प्रति पक्षधरता का एक अच्छा सबूत है। वैसे मैं मानता हूं कि पूर्णांश भारतीय संस्कृति में केवल तेज द्युति का ही महत्व नहीं। एक और तत्व है, जो समान रूप से महत्वपूर्ण है। वह है ‘मधु’ या ‘रस’। इस मधु या सोमतत्व का मौलिक स्रोत आर्येतर अधिक है, आर्य कम। तो भी दोनों महत्वपूर्ण माने गए हैं। वैदिक भाषा में इन्हें ही अग्नि (तेज) और सोम (मधु) कहा गया है। उत्तर वैदिक काल का आर्य सांस्कृतिक-दृष्टि से विमिश्र आर्य है और इस विमिश्रता का प्रवेश उसके भीतर भारत में प्रवेश करने के पूर्व ही हो गया था।

अत: ऋग्वैदिक युग से ही भारतीय आर्य अग्नि और सोम के युग्म को सृष्टि-विकास की मूल शक्ति मानता है। परन्तु वैदिक सृष्टि-विद्या में अग्नि-सोम के द्वैत का मूल ‘उत्स’ माना गया है सविता को, जो तेज और मधु दोनों का दाता है। वस्तुत: सबसे ऊपर स्थिर द्यु-लोक में जो सविता है, वही अन्तरिक्ष में इन्द्र (आदित्य) और सोम है और वही पृथ्वी पर अग्नि है। मूल है एक ही देवता, जो द्यु का अधिदेवता है। भारतीय संस्कृति के तीन प्रधान पर्व इन देवताओं से अलग-अलग जुड़े हैं। विजयादशमी सविता का पर्व है तो दीपावली अग्नि अर्थात पार्थिव तेज का, जिसका लघुतम और सामान्यतम प्रतीक है रोशनी का नन्हा बच्चा यानी दीपक। तीसरा पर्व है होली का वसन्तोत्सव, जो स्पष्टतया सोम-प्रधान है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि दीपावली का त्योहार भारतीय मनोभूमि से अत्यन्त घनिष्ठ भाव से जुड़ा है, क्योंकि प्रकाश, द्युति या रोशनी से भारतीयता का गर्भनालगत सम्बन्ध है। यही नहीं, प्रत्येक दीपक या बत्ती भारतीय जीवन आदि-साधना और केन्द्रीय पुरुषार्थ ‘क्रतु’ अर्थात यज्ञ का प्रतीक है। दीपक के लिए दो शब्द चलते हैं। एक तो है दीप या दीया, जो दीपक का ही रूपान्तर है। दूसरा बत्ती है। असमिया भाषा में यह बंती हो जाता है। बत्ती शब्द वर्तिका से निकला है। वर्तिका अर्थात बाती। यह वर्तिका तिलतिल करके जलती है, तब कहीं ज्योतिशिखा का जन्म होता है। प्रकाश बन जाना, उजाला फैलाना, घर-आंगन और इतिहास के अंधेरे को भगाना कोई मौज-शौक की बात नहीं। बड़ी कठिन साधना है। बिना अपने ‘सम्पूर्ण’ का त्याग किए, बिना सर्वान्तक आत्मदान के यह सम्भव नहीं। आत्मदान जितना ही सर्वात्मक होगा, उतना ही प्रकाश प्रखर और विस्तृत होगा।

हम कहते हैं कि दीपावली के पर्व में केन्द्रीय महत्व दीप या ज्योतिर्मयी वर्तिका का ही है। यही ऐसा है तो इस त्योहार की आकृति-प्रकृति में विशुद्ध यज्ञ-भाव, आत्मदान, क्रतु का ही मौलिक महत्व है। तब इसे ज्ञान, चैतन्य और सतोगुण का त्योहार मानना चाहिए। ‘सदा दीपावली सन्त घर’ जैसी कहावतें इसी सन्दर्भ में तात्पर्यपूर्ण हो सकती हैं। सन्त का व्यक्तित्व ही क्योंकि साक्षात दीपावली होता है, उसकी आत्मा का चेतन प्रकाश उसके रोम-रोम में नित्य दीपशिखा की ही तरह जलता है। हम सभी जानते हैं कि सारा उत्तर भारत इसे ‘अर्थ’ की देवी माधवी या लक्ष्मी के त्योहार के रूप में ही मनाता है। तब क्या प्रकाश के जगमगाते असंख्य दीपकों की पांत अर्थ-गरिमा की द्योतक है। क्या यह सब धन-सम्पत्ति का गौरव-गान है! भारतीय संस्कृति के बारे में अल्प समझ-बूझ रखने वाला भी इस बात को कभी नहीं स्वीकार करेगा।


  ऐसा कहना ही रोशनी की असंख्य प्रजाओं का अपमान है। भारत का गरीब से गरीब आदमी भी, जिसका एकमात्र गौरव उसका धर्म-बोध ही है, माटी का एक जोड़ा दीया अपने दरवाजे के सामने इस दिन जरूर रखता है। उन दीपकों में उसका अहंकार नहीं, उसकी श्रद्धा प्रकाशित हो रही है। यह श्रद्धा उसके अन्तर्निहित मनुष्यता की गरिमा है और श्रद्धा धर्मबोध और पवित्रबोध से जुड़ी है, अत: यह हमारे अवचेतन को धर्म-मोक्ष के मार्ग पर ठेलती है। इसे हम अहंकार का प्रदर्शन या उस अदेवता की मात्र चापलूसी कह कर टाल नहीं सकते, जिसका कि नाम ही है चंचल और जिसका वाहन है रात्रिचर पक्षी उलूक। तब यहां लक्ष्मीजी की प्रतिष्ठा क्यों की गई है? इसका उत्तर दीपावली की रात्रि-शेष में प्रात: से पूर्व असंख्य मातृकण्ठों से निकले उद्घोष में खोजा जा सकता है। यह उद्घोष है : ‘ईश्वर का प्रवेश हो, दारिद्र दूर हो’ (ईस्सर पइसे, दलिद्दर निकसे)। अर्थात दैन्य, ग्लानि, दारिद्र को भगा कर उसके स्थान पर जिस लक्ष्मीजी की प्रतिष्ठा का स्वप्न भारतवर्ष देखता है, वह है ‘ईश्वरीय लक्ष्मी’। लक्ष्मी (धन) सच्चे पुरुषार्थ द्वारा अजिर्त हो कर ही ईश्वर की शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित होती है। वह विष्णु भगवान की माधवी है।


(मराल)