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मंगलवार, 1 अक्टूबर 2024

महात्मा गांधी की जीवन-दृष्टि और आधुनिकता का भारतीय स्वरूप

 


गांधी आधुनिक भारतीय की रीढ हैं। आधुनिकता का प्रस्थान-विन्दु आप जहां से निकले और अपने आधुनिकता के ऑइकन की तलाश में हैं , बिना गांधी के आधुनिक भारतीय विचारधारा की चर्चा संभव नहीं है। उनके दर्शन का फलक किसी भी अन्य समकालीन चिंतक से बहुत अधिक विस्तृत और बहुसंख्यक था। भारत में आधुनिक विश्व और विशेषकर तीसरी दुनिया में भी आधुनिकता की चर्चा नहीं हो सकती। दुनिया में अधुनिकता के अलग-अलग रूप रह रहे हैं। यूरोप में जिस आधुनिकता का जन्म हुआ वह यूरोप के कई देशों में भी आधुनिकता का अनुवाद नहीं किया गया था , ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में यूनानी और इडो-अर्बिक विचारधारा की ' ग्राफ़्टिंग ' कर एक नई पौध तैयार की गई और उसे यूरोप की विचारधारा में बदल दिया गया। तैयार कर दुनिया को शामिल किया गया। कलम स्याही जिस भी उपाय की हो अबोहवा और मिट्टी उसपर अपनी छाप छोड़ती है , यह बात यूरोपियन आधुनिकता पर भी लागू हुई। अन्य लोकतंत्र , मानववाद और विश्वबन्धुत्व का जयकारा संविधान मिले भी अपने वे बर्बर और दमिश्ल चरित्र से मुक्त नहीं हो सके। दुनिया भर में औपनिवेशिक शासन और उसकी बर्बरता के दस्तावेज इसके गवाह हैं।

महात्मा गांधी के राजनीति व्यक्तित्व की अहिंसा, एकता और सत्य की टेक यूरोपियन आधुनिकता के इस चरित्र की सीख ही देन थी। पश्चिमी आधुनिकता के सम्मुख इन नीतियों को चुनौती के रूप में खड़ा कर देना दुनिया के सामने भारत की सांस्कृतिक संस्कृति को उद्घाटित करना था। स्वामी विवेकानंद जिस भारतीय शास्त्र को नए संदर्भ में ज्ञान-मार्ग से उद्घाटित कर रहे थे , गांधी कर्म-पथ पर उसी का सक्रिय भाष्य रच रहे थे।

लोकतंत्र और अहिंसा की दुहाई देने वाले सभ्यता की बात करने वाले और ज्ञान में स्वयं को श्रेष्ठ करने की घोषणा करने वाले बर्बर औपनिवेशिक शासन का प्रतिवाद अहिंसा और तर्क के रास्ते से करते हुए गांधी ने अपनी निर्ममता , असभ्यता और जीवन-दृष्टि और विश्व-दृष्टि की फुहदता दी को ही नहीं देखा गया , बल्कि भारतीय जीवन दृष्टि और विश्व-दृष्टि की श्रेष्ठता को मूर्ति के रूप में पूरी दुनिया के सामने स्थापित किया गया।

      गांधी देश आधुनिकता के लोक-चिंतक थे। उनका अभिहित व्यवहार प्रसूत था। उन्हों ने शस्त्रों के साथ-साथ भारत-जन के मनोभावों को भी गहराई से समझाया और उनके सिद्धांतों और वैचारिक सिद्धांतों को समझाया। उनके लेखन और संयोजन शैली शास्त्रीय या पंडितौ न संवाद परक था। संवादपरकता दुनिया की सबसे प्राचीन और लोकप्रिय शैली है। हिंदुस्वराज जो अपनी प्रारंभिक रचना है , वह प्रमाणित है।

भारतीय परंपरा सृष्टि के कण-कण में ईश्वर का निवास है। इस वैज्ञानिक सृष्टि में ईश्वर के निवास का अर्थ है इस ईश्वरीय सृष्टि के प्रति ईश्वर के समान सम्मान-भाव।   दूसरे शब्दों मेंयह सृष्टि ही ईश्वर है। इसलिए उसे प्रत्येक तत्व के प्रति हमें सम्मान का भाव रखना चाहिए। लोभ इस सम्मान भाव में बाधक हैइसलिए उसका निषेध है।  गांधी जी ने लोभ के विषय में जो लिखा है , उसे यह सिद्धांत और भी अधिक पुष्टि देता है। उन्होंने  ' हिंद स्वराजमें डॉक्टरी मंथन पर विचार करते हुए कहा कि डॉक्टर के सामने इंसान के संयम का असर पड़ापहले इंसान का ही खाता थाजितनी उसकी भूख होती थी। परंतुअब मनुष्य अपनी भूख से अधिक उद्यम भी करने की चिंता से मुक्त रहता हैक्योंकि वह डॉक्टर की दवा की प्रतिकृति है। मुख्यतः यह मनुष्य के भीतर प्रबल लोभ-प्रवृत्ति की ओर संकेत है और उसका प्रतिषेध भी है। गांधी अहिंसा के बारे में वे जानते थे कि लोभ और हिंसा के बीच अभेद संबंध है। गांधी जी ने यह बात मनुष्य और मनुष्य के बीच संबंध को स्पष्ट रूप से समझाया थालेकिन यह केवल मनुष्य और मनुष्य के बीच संबंध तक सीमित नहीं हैउनकी रचनाकार मानवेतर सृष्टि तक भी विस्तृत हो जाती है। प्राकृतिक का अनियमित दोहनवनों की अबाध कटाईमानव अधिवासों का असीमित विस्तारकूड़ा - कचरा और अपशिष्ट गैसों का उपयोग यह सब कुछ मनुष्य की समान-प्रवृत्ति की उपजाति और   मनुष्य की प्रकृति या पर्यावरण पर तीव्र प्रभाव है। सच कहा जाए तो यह एकमात्र प्रकृति के प्रति मनुष्य की ओर से की जा रही हिंसा नहीं हैबल्कि यह स्वयं मनुष्य द्वारा अपने समय के सिद्धांतों और आने वाली साध्य के प्रति की जाने वाली हिंसा है। हमारे द्वारा छोड़ी गई उपभोक्ता गैसें उन्हें अपंग और बीमार बना देंगी ; बल्कि संभव है, उनके  शव का दम घोंटकर उन्हें मार भी दें। इसलिए हमें बताएं कि लोभ-प्रवृत्ति और हिंसा-प्रवृत्ति को लाभ होगा, हमारे द्वारा बताए गए पर्यावरण को नृत्य करने को अमादा है। औरइसका एकमात्र उपाय है त्याग और अहिंसा। अतः हीअपने सीमित अर्थ में नहींउस व्यापक अर्थ मेंजिसमें एकता सम्मान और साहित्य के प्रति स्वीकृति का भाव भी सम्मिलित है।

                अनायास ही भारतीय मानस में अहिंसा की दुंदुभी बजाता है, विश्व में निजी की प्रचार-यात्रा पर कोई नाममात्र नहीं हैबल्कि बल हैभारतीय मानस में प्रकृति-मानुष्य के प्रति गहन स्वीकृति-भाव से। प्रकृति-मानव-साहचर्य के प्रति स्वीकृति-भाव ही मनुष्य में मनुष्य के प्रति सहिष्णुतारागात्मकता और सह-अस्तित्व का भी बीज है। डी. डी. कोसंबी जब भारतीय संस्कृति को याद करते हैं तो उनके जेहन में पहला सवाल यही है कि वे किस कारण से थे कि विश्व के मित्र राष्ट्रों की भारत में रक्त-रंजित क्रांतियाँ नहीं हुईं  ?   उनका ध्यान सहज ही आ अटका हैभारत की शस्य-श्यामला धरती पर और वे कहलाते हैं कि  ' यहां अन्न-जल की कमी नहीं थी इसलिए मनुष्य ने रक्तरंजित क्रांतियां नहीं कींबल्कि यह भूमि पर विरासत क्रांतियां कायम हैं ' एक बात वे कहते हैं कि भूल जाते हैं कि रक्तरंजित क्रांति का न होना अन्न-जल की बर्बादी का कारण ही नहीं हुआबल्कि इस सरस भूमि के सरस अनूठे के रागात्मक प्रवाह ने कठोर भावों की जगह मृदु भावों को अधिक खाद-पानी दिया। विश्व में प्रेम और करुणा का संदेश भारतीय ज्ञान-साधना के प्रतीक के रूप में अनायास ही फल नहीं हैबल्कि भारत के प्राकृतिक वातावरण ने उसे अपनी कुक्षी में धारण कर अनंत काल तक विकसित और संवर्धित किया।   यूनान की महान सभ्यता को याद किया जाए तो उसके विनाश के बीज में उसकी उदात्त वीरता निहित थीअभिव्यक्ति होमर की कविता में सहज-लब्ध है। परभारत की सांस्कृतिक अजेयता उसकी मधुरता की मांद है। हमारे यहां अकेले-अकेले वीरता मापन हैउद्दंड हैठीक है। दुर्योधनबालीहिरण्याक्ष , मेघनाद कोई भी ग्रीक काव्य-नायकों से कम वीर नहीं हैपर भारतीय मानस ने उन्हें नायकत्व का मान दिया। क्यों  ?  चूँकिउनमें माधुर्य न था ; करुणा न थीप्रेम न थादया न थी। अपनी तितिक्षा और सत्य-वीरता के बावजूद भी वह मन न पा सके। भारतीय मानस में नायकत्व का गौरव राम को मिलाअर्जुन को मिलाकृष्ण को मिला। अब आपका आदर्श चरित्र प्रकृति से क्या वास्तु है  ?  जी हांहै । ज़रूर प्रकृति से वास्ता है। ऐसा हुआ कि भारतीय युयुत्सु न थे। उन्हें मंगोलियाअरब या जर्मनी की-सी कठोर प्रकृति का सानिध्य नहीं मिला था। उनकी प्रकृति और परिवेश शांत थेकोमल थे और इसलिए उनके मन में उतरने वाले भाव भी कोमल थे। हमारी परंपरा में वीरत्व या सत्यनिष्ठा की अनदेखी नहींबल्कि सम्मान है। लेकिनकरुणा और प्रेम का सन्निवेश अप्राप्य है।  मनु (यद्यपि आजकी दृष्टि से वे अपनी प्रतिष्ठा के लिए अधिक ख्यात हैं) सत्य को प्रियता के सायुज्य भाव में ही स्वीकार किया गया है- "सत्यं ब्रूयाद्प्रियं मा ब्रूयात्सत्यमप्रियम्।" आचार्य शुक्ल जैसे आधुनिक विद्वान ने तो वीरता का विस्तार भी दान-वीर जैसे भावों के साथ जोड़ा हैप्रेरणा में करुणा जैसी मधुर-वृत्ति सहज ही विद्यमान है। 

 

मंगलवार, 17 सितंबर 2024

प्रकृति: भारतीय दृष्टि


 भारतीय परंपरा सृष्टि के कण-कण में ईश्वर का निवास मानती है । समूची सृष्टि में ईश्वर के निवास का अर्थ है इस समूची सृष्टि के प्रति ईश्वर के समान सम्मान-भाव ।  दूसरे शब्दों में, यह सृष्टि ही ईश्वर है । इसलिए उसके प्रत्येक तत्त्व के प्रति हमें सम्मान भाव रखना चाहिए । लोभ इस सम्मान भाव में बाधक है, इसलिए उसका निषेध है । गांधी ने लोभ के विषय में लिखा है,जो लिखा है उसे पढ़कर यह मान्यता अधिक पुष्ट ही होती है । उन्होंने हिंद स्वराज में डाक्टरी पेशे पर विचार करते हुए कहा है कि डाक्टर के आने से मनुष्य के संयम पर असर पड़ा, पहले मनुष्य उतना ही खाता था, जितनी उसकी भूख होती थी । लेकिन, अब मनुष्य अपनी भूख से अधिक खाकर भी अस्वस्थ होने की चिंता से मुक्त रहता है; क्योंकि वह डाक्टर की दवा के प्रति आश्वस्त है। वस्तुतः यह मनुष्य के भीतर बढ़ती लोभ-वृत्ति की ओर संकेत है और उसका प्रतिषेध भी । गांधी अहिंसक थे वे जानते थे कि लोभ और हिंसा के भीतर अभेद संबंध है । गांधी ने यह बात मनुष्य और रोटी के संबंध द्वारा समझाई जरूर, लेकिन यह केवल मनुष्य और मनुष्य के बीच के रिश्ते तक सीमित नहीं है; उसका दायरा मानवेतर सृष्टि तक भी विस्तृत हो जाता है । प्राकृतिक संसाधनों का अनियंत्रित दोहन, वनों की अबाध कटाई, मानवीय अधिवासों का असीमित विस्तार, धूल-धुआँ और विषाक्त गैसों का उत्सर्जन यह सब कुछ मनुष्य की इसी लोभ-वृत्ति की उपज और  मनुष्य का प्रकृति या पर्यावरण पर हिंसक प्रहार है । सच कहा जाए तो यह केवल प्रकृति के प्रति मनुष्य द्वारा की जा रही हिंसा नहीं है, बल्कि यह स्वयं मनुष्य द्वारा अपने समय के मनुष्यों और आने वाली पीढ़ियों के प्रति की जाने वाली हिंसा है । हमारे द्वारा छोड़ी गईं जहरीली गैसें उन्हें अपंग और बीमार बनाएँगी;बल्कि संभव है, उनके शैशव का दम घोंटकर उन्हें मार भी दें । इसलिए हमें अपनी उस लोभ-वृत्ति और हिंसा-वृत्ति को रोकना होगा जिसकी फैलती हुई चादर हमारे समूचे पर्यावरण को डंस लेने को अमादा है। और, इसका एकमात्र रास्ता है त्याग और अहिंसा। अवश्य ही, अपने सीमित अर्थ में नहीं; उस व्यापक अर्थ में, जिसमें परस्पर सम्मान और साहचर्य के प्रति स्वीकार का भाव भी इसके भीतर समाहित रहता है ।


                अनायास ही भारतीय चिंतन अहिंसा की दुंदुभी बजाता हुआ विश्व में चेतना की प्रसार-यात्रा पर नहीं निकलता है, बल्कि उसको बल मिलता है, भारतीय मानस में प्रकृति-मनुष्य के साहचर्य के प्रति गहरे स्वीकार-भाव से । प्रकृति-मानव-साहचर्य के प्रति स्वीकार-भाव ही मनुष्य में मनुष्य के प्रति सहिष्णुता, रागात्मकता और सह-अस्तित्व का भी बीज है । डी. डी. कोसम्बी जब भारतीय संस्कृति को याद करते हैं तो उनके जेहन में पहला सवाल यही उठता है कि वे कौन से कारण थे कि दुनिया के तमाम देशों की तरह भारत में रक्त-रंजित क्रांतियाँ नहीं हुईं ?  उनका ध्यान सहज ही आ अटकता है, भारत की शस्य-श्यामला धरती पर और वे कह उठाते हैं कि यहाँ अन्न-जल की कमी नहीं थी इसलिए मनुष्य ने रक्तरंजित क्रांतियाँ नहीं कीं, बल्कि इस भूमि पर बौद्धिक क्रांतियाँ हुईं। एक बात वे कहना भूल जाते हैं कि रक्तरंजित क्रान्ति का न होना अन्न-जल की अपर्याप्तता के कारण ही नहीं हुआ, बल्कि इस सरस भूमि की सरस चेतना के रागात्मक प्रवाह ने कठोर भावों की जगह मृदु भावों को अधिक खाद-पानी दिया । विश्व में प्रेम और करुणा का संदेश भारतीय ज्ञान-साधना के प्रतीक के रूप में अनायास ही नहीं फैले, बल्कि भारत के प्राकृतिक परिवेश ने उसे अपनी कुक्षि में धारण कर अनंत काल तक विकसित और पुष्ट भी किया ।  यूनान की महान सभ्यता को याद करें तो उसके विनाश के बीज उसकी उदात्त वीरता के भीतर निहित थे, जिसकी अभिव्यक्ति होमर के काव्य में सहज-लब्ध है । पर, भारत की सांस्कृतिक अजेयता उसके माधुर्य की देन है । हमारे यहाँ अकेले-अकेले वीरता अनैतिक है, उद्दंड है, अस्वीकार्य है । दुर्योधन, बालि, हिरण्याक्ष,मेघनाद कोई भी यूनानी काव्य-नायकों से कम वीर नहीं है, पर भारतीय मानस ने उन्हें नायकत्व का मान न दिया । क्यों ? क्योंकि, उनमें माधुर्य न था;करुणा न थी, प्रेम न था, दया न थी । अपनी तितीक्षा और सत्य-वीरता के बावजूद युधिष्ठिर भी वह मान न पा सके । भारतीय मानस में नायकत्व का गौरव राम को मिला, अर्जुन को मिला, कृष्ण को मिला । अब आप कहेंगे भला इसका प्रकृति से क्या वास्ता ? जी हाँ, है । जरूर वास्ता है प्रकृति से । ऐसा इसलिए हुआ कि भारतीय युयुत्सु न थे । उन्हें मंगोलिया, अरब या जर्मनी मनुष्यों  की-सी कठोर प्रकृति का सानिध्य नहीं मिला था । उनकी प्रकृति और परिवेश शांत थी, कोमल थी और इसलिए उनके मन में पलने वाले भाव भी कोमल थे । हमारी परंपरा में वीरत्व या सत्यनिष्ठा की उपेक्षा नहीं, बल्कि सम्मान है । लेकिन, उसमें करुणा और प्रेम का सन्निवेश अपरिहार्य है ।  मनु (यद्यपि आजकी दृष्टि से वे अपनी प्रतिगामिता के लिए अधिक ख्यात हैं) सत्य को प्रियता के सायुज्य भाव में ही स्वीकार किया है— “सत्यं ब्रूयाद्प्रियं मा ब्रूयात्सत्यमप्रियम ।” आचार्य शुक्ल जैसे आधुनिक विद्वानों ने तो वीरता का विस्तार भी दान-वीर जैसे भावों के साथ जोड़कर किया है, जिनकी प्रेरणा में करुणा जैसी मधुर-वृत्ति सहज ही मौजूद है । 

बुधवार, 25 अक्टूबर 2023

महात्मा गांधी

 महात्मा गांधी पिछली सदी में दुनिया की सर्वाधिक चर्चित हस्तियों में से एक रहे। वे एक कुशल राजनीतिज्ञ, सफल दार्शनिक और सच्चे जननेता थे। वे अपने सच्चेअर्थों में 'वैष्णव जन' और भारतीय किसान की मनोयात्रा के सहयात्री भी थे। वैष्णवता और किसान दोनों ही पूरक तथा भारतीय मन की शाश्वत धुरी हैं और दोनों ही अपनी मूल वृत्ति में अहिंसक हैं। इसलिए 'अहिंसा' उनके लिए राजनीतिक हाथियार से अधिक जीवन-व्यवाहार रही।

'हिंद स्वराज' के गांधी उन अर्थों में राजनीतिक व्यक्ति नहीं थे, जैसे वे दक्षिण-अफ्रीका से लौटने के बाद थे। फिर भी उनके उठाए गए सवाल और उसके उत्तर खांटी भारतीय वैष्णव जन के उहापोह की ही उपज हैं। वे वहां वकील, डॉक्टर या रेल की भूमिका को लेकर जो बातें करते हैं, उसमें 'अहिंसा' का सीधा जिक्र भले न हो, पर अपने व्यापक परिप्रेक्ष्य में उनकी अलोचना के संदर्भ अहिंसा से ही जुड़े हैं।
वे पिछली सदी के अकेले चिंतक रहे जो भारतीय चित्त और मानस से पूर्ण तादात्म्य कर सके। वे बीसवीं शताब्दी में तर्क और आस्था दोनों के संतुलन कसौटी हैं। इसीलिए भारतीय जन मानस का जितना कुशल राजनितिक उपयोग वे कर सके दूसरा कोई भी आजादी का सिपाही वैसा नहीं कर सका।
वे ईश्वर या अवतार नहीं थे। न उन्होंने कभी इसका दावा किया और न उनके अनुयायियों ने। इसलिए उन्हें निर्विवाद या निष्कलंक मानना या उनसे किसी दैवीय चमत्कार की अपेक्षा करना गलत होगा और अंध आलोचनाएं एक स्वस्थ बौद्धिक समाज के लिए खतरनाक। यह खतरा मूर्तिपूजक और मूर्तिभंजक दोनों विचारधाराओं की ओर से है। दोनों के लिए ही स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी उपस्थिति की तलाश में वे खड़ी पाई की तरह अड़े दिखाई देते हैं। इसलिए आवश्यक है कि खड़ी पाई से अटक कर समय नष्ट करने या उसे काट-पिट कर आगे वाक्य-विस्तर कर करने की ऊल जुलूल कोशिश के बजाय पूर्व-वाक्य के 'गैप' (यदि कोई लगता है) को पूरा करते हुए अगला नया वाक्य रचा जाय।

शुक्रवार, 20 अक्टूबर 2023

आजादी का उत्तराधिकार है खादी

आजादी का उत्तराधिकार है खादी

खादी वस्त्र नहीं विचार है। खादी ग्रमोद्योग विभाग के विपणन केंद्रों पर परदर्शित यह वाक्य कोई ध्येय वाक्य या स्लोगन नहीं एक ऐतिहासिक सच है। भारतीय राष्ट्रीय अंदोलन की वह हर आवाज जो बीसवीं सदी में देश के परिवेश में गूंजती है, उसकी संवेदना के तार खादी के धागों के बने हैं और उसकी कताई स्वदेसी के चरखे पर हुई है, चाहे उसकी तकली क्रांतिकारी हो या अहिंसक। यह हमारा राष्ट्रीय उत्तराधिकार है, जो हमें देश के लिए बलिदान होने वाले बलिदानियों, सत्याग्रहियों, क्रंतिकारियों और सामाजिक सांस्कृतिक जागरण के अग्रदूतों से विरासत में मिला है। यह एक ऐसे जन आंदोलन का प्रतीक है, जिसने 1947 में 33 करोड भारतीयों के सिर पर आजाद भारत का ताज रख दिया। इसकी साखी हमें राष्ट्रकवि सोहनलाल द्विवेदी की इन पंक्तियों में मिलती है :

 

खादी में कितनी ही नंगों-भिखमंगों की है आस छिपी,

कितनों की इसमें भूख छिपी, कितनों की इसमें प्यास छिपी।

खादी ही भर-भर देश प्रेम का प्याला मधुर पिलाएगी,

खादी ही दे-दे संजीवन, मुर्दों को पुनः जिलाएगी।

खादी ही बढ़, चरणों पर पड़ नुपूर-सी लिपट मना लेगी,

खादी ही भारत से रूठी आज़ादी को घर लाएगी।

 

      उन्हीं के समकलीन और छायावाद के प्रवर्तक सुमित्रनंदन पंत ने भी चरखा गीतमें कुछ इसी तरह के विचार दिए हैं :  

भ्रम, भ्रम, भ्रम—

'धुन रूई, निर्धनता दो धुन,

कात सूत, जीवन पट लो बुन;

अकर्मण्य, सिर मत धुन, मत धुन,

थम, थम, थम!'

'नग्न गात यदि भारत मा का,

तो खादी समृद्धि की राका,

हरो देश की दरिद्रता का

तम, तम, तम!'

यहाँ खादी के प्रति जो विश्वास दिखाई दे रहा है, वह भारत की जनता का विश्वास है, क्योंकि ये कविताएँ गुलाम भारत की जन-संवेदना का अंकित दस्तावेज है। 1905 में खडा हुआ बंग-भंग विरोधी आंदोलन ब्रिटिश सत्ता पर स्वदेशीकी पहली चोट थी। 1920 के असहयोग अंदोलन में महत्मा गांधी ने इसे विस्तार दिया और खादी राष्ट्रीय मुक्ति का प्रतीक बन गयी। खादी और चरखे का प्रचार-प्रसार गाँव-गाँव तक हो गया। घर-घर में चरखे और गाँव-गाँव में करघे की जो बयार चली, उसने आजादी को भावनात्मक आधार दिया। घरों की चहारदिवारियों में कैद स्त्रियों ने पहली बार अर्थिक आत्म-निर्भरता का स्वाद चखा और धिरे-धिरे नैपथ्य से निकल कर आजादी की लडाई के अग्रिम मोर्चे पर खडी हुईं और राजनीतिक के साथ-साथ देश सामाजिक और लैंगिक विभेद की मुक्ति की राह भी बढ चला। संसद ने नारी शक्ति वंदनअधिनियम भले 2023 में भले पास हुआ हो, चरखा और खादी ने पर्दे के पीछे बैठी देश की आधी आबादी की आजादी की लडाई में सक्रिय सहभागिता सुनिश्चित कर दी। चरखा कातती औरतों के बीच आजादी के तराने तमाम लोकगीतों की धुन पर गूँजने लगे :

मोरे चरखे का टूटे न तार चरखवा चालू रहे ।

महात्मा गाँधी दूल्हा बने हैं दुल्हन बनी सरकार । चरखवा

X            X          X

गौर्मेंट ठाढी बिनती करे

जीजा गवने में देबो सुराज, चरखवा चालू रहे ।  

इनके माध्यम से खादी, चरखे और स्वदेशी ने भारत में ब्रिटिश सत्ता को प्रतिस्थपित कर आजाद भारत का स्वप्न और सरकारी अर्थव्यवस्था के समानांतर एक देसी अर्थव्यवस्था का विकल्प प्रस्तुत किया और भारतीयों में आत्मनिभरता का बीज डाला। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया शासन से पूर्व मुर्शिदाबाद, ढाका, बनारस जैसे आर्थिक केंद्रों चमक जो सरकार के कडे प्रतिबंधों से फीकी पड गई थी, वह फिर से कुछ-कुछ निखरने लगी। देशी कुटीर उद्योगों की पुनर्स्थापना भी उसी पृष्ठभूमि में हुई, क्योंकि महत्मा गांधी चरखा और खादी के साथ-साथ ऐसे उद्योगों के भी हिमायती थे।

 भूमंडलीकरण, उपभोक्तावाद और बाजारवाद के वर्तमान दौर में ग्लोबल साउथ के देशों के सम्मुख एक बार फिर सस्ते और गटिया माल की डम्पिंग एक समस्या है और नवउपनिवेशवाद एक नई चुनौती के रूप में सामने खडा है । ये वे देश हैं जिनके पास सीमित संसाधनों के कारण दुनिया की बडी अर्थव्यवस्थाओं से लोहा लेना आसान नहीं और देश दिवलियापन की कगार पर आ गए हैं। उनके पास न रोजगार है और न उद्योग या व्यापार की बडी संभावनएँ। अपनी अर्थव्यवस्था को डूबने से बचाने के लिए उन्हें आयात सीमित करने के साथ-साथ उन्हें आत्म-निर्भरबनना होगा। सीमित संसाधनों में अपनी अर्थव्यवस्था को पुनर्गठित और पुनर्जीववित करने का सबसे अच्छा विकल्प लघु एवं कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन है। यद्यपि भारत प्रत्यक्षतः अर्थव्यवस्था के स्तर पर एक मजबूत राष्ट्र बनकर उभरा है, तथापि इसे बरकरार रखने के लिए विशाल जनसंख्या को रोजगार मुहैय्या कराना एक बडी चुनौती है । लघु एवम कुटीर उद्योगों का प्रोत्साहन और परिवर्धन इस दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है।

जिस तरह औद्योगिक क्रांति ने दुनिया को औपनिवेशिक शोषण का उपहार दिया ठीक उसी प्रकार उत्तर-औपनिवेशिक दौर ने प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग, पारिस्थितिकीय असंतुलन जैसी तमाम चुनौतियाँ हमें उपहार में दीं हैं। ये अंधाधुंध मशीनीकरण और बडे उद्योगों की देन हैं। विकसित देश जहाँ कर्बन क्रेडिट और कर्बन टेक्स की बात कर रहे हैं, वहीं विकासशील देश इसमें अपने वधिक की छवि देख रहे हैं । ऐसे में खादी ग्रमोद्योग जैसे प्रयास दुनिया को भारत के अनमोल उपहार हो सकते हैं, क्योंकि इनकी उत्पादन प्रक्रिया परिस्थितिकि के अनुकूल और पर्यवरण-प्रदूषण से मुक्त है । उत्पादन-सामग्री में जूट-कपास आदि जैविक पदार्थों के प्रयोग के कारण यह शरीर और स्वास्थ्य के लिए भी अधिक उपयोगी और पूर्णत: जैविक रूप से नष्ट होने योग्य है।

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