शनिवार, 29 अप्रैल 2017

परफ़ार्मिंग बनाम अंडरपरफ़ार्मिंग

देश की आजादी के बाद भारत सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि आयोगों के गठन हैं । आलम यह है की सरकार यदि हंसने, रोने, छींकने आदि-आदि विषयों पर भी कोई आयोग बना दे तो भी जनता को कोई खास आश्चर्य नहीं होगा । ऐसे में उच्च शिक्षा के नियमन और निर्देशन के लिए एक आयोग का होना आश्चर्य की बात नहीं । संयोग से उसका गठन भी बहुत पहले हो चुका है और यह आयोग तमाम छोटे-बड़े काम कर भी रहा है । उनमें से कुछ की जानकारियाँ सामान्य जन को हैं कुछ की नहीं । भारत के उच्च शिक्षित युवाओं के लिए इसकी सबसे अधिक उपयोगिता या प्रासंगिकता यूजीसी, नेट (राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा ) के कारण है । मुझे याद है अपने छात्र-जीवन में हम उन तिथियों का इंतजार करते थे जब कि नेट की विज्ञप्ति आती, उसकी परीक्षा होती या उसके परिणाम आते थे । इसी क्रम में कभी पता लगता कि यूजीसी ने अचानक बहुत से लोगों को एकमुश्त छूट दे दी है और पहले से पात्रता अर्जित कर चुके अभ्यर्थियों में नई योग्यता वाले अभ्यर्थियों का एक रेला आ जुड़ता । तर्क यह कि पदों की तुलना में योग्य पात्रों की कमी है। मैं यह निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि इसका परिणाम भीड़ बढ़ाने के अलावा कुछ नहीं हुआ । न तो शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ी और न देश भर के खाली पद भरे जा सके । हुआ तो केवल यह कि यूजीसी ने अपनी ही पात्रता परीक्षा को बार-बार प्रश्नांकित किया और अंततः आज अप्रासंगिक बना दिया है । एक समय वह भी आया कि यूजीसी द्वारा अनुदानित विश्वविद्यालयों के माध्यम से यूजीसी द्वारा संचालित की जाने वाली नेट परीक्षा का केंद्र लेने से कुछ विश्वविद्यालयों ने हाथ खड़ा कर दिये और फिर अराजकता और अव्यवस्था का आलम फैल गया । आयोग ने उससे उबरने के लिए पूरी परीक्षा को ठेके पर सीबीएसई को सौंपा और सुन रहा हूँ अंततः उसने भी हाथ खड़े कर दिये हैं। अतः यह स्पष्ट नहीं है कि जून में होने वाली यह परीक्षा होगी भी या नहीं ? कहीं ऐसा तो नहीं कि इसे पूरी तरह अप्रासंगिक बनाकर समाप्त करने की तैयारी हो रही है ?
लब्बोलुआब यह कि केवल एक काम, देशभर से उच्च शिक्षा के योग्य युवाओं के चुनाव, में जो संस्था असफल रही हो उसकी विश्वसनीयता निश्चित ही संदिग्ध है । इसपर आँख बंद करके भरोसा करना आसान नहीं । इधर सुनने में आया है कि इस संस्था ने कुछ विश्वविद्यालयों से कहा है कि अपने आर्थिक संसाधनों का उत्पादन स्वयं करें, जाहीर है सरकार अनुदान नहीं देना चाहती । फिर अनुदान आयोग का ड्रामा क्यों किया जा रहा है?
मजेदार बात यह कि जो संस्था अपनी स्थापना से आज तक आध्यापक की योग्यता का मानदंड तय नहीं कर पाई, अपने ही नियमों को पलटती रही और बार-बार विसंगतिपूर्ण स्थितिया पैदा करती रही , वह भारत में उच्च शिक्षा की नियामक है । इसके निर्णय संस्थाओं की सरकारी चाकरी के बहुत पुष्ट उदारहरण रहे हैं, ऐसे में यह कैसे उम्मीद की जा सकती है कि यह आयोग संस्थाओं का उचित नियमन, मूल्यांकन और संचालन में सहयोगी भूमिका निभा सकेगा ? इस आयोग की टीमों और जाँचों के परिणामो को वस्तुनिष्ठ कैसे माना जाय ? क्या कभी आयोगा ने स्वयं अपना मूल्यांकन कराया है कि वह परफ़ार्मिंग है या अंडरपरफ़ार्मिंग । ऊपर मैंने केवल एक मुद्दे पर इस आयोग के परफारमेंस का मूल्याकन किया है और रिजल्ट आपके सामने है । इसआधार पर आप स्वयं इसका निर्णय कर सकते हैं ।

शनिवार, 8 अप्रैल 2017

फागुन

·        राजीवरंजन

लो भाई फागुन आ गया। बरइठा से लेकर बूढ़ाडीह तक गाँव का पूरा बगीचा आम की बौर और महुए के कोंचे की तीखी मदक गंध से भर गया है । पुरवा-पछुवा की हवा के साथ झोंके की झोंके गंध गाँव के गली-कूचों में भी उतर आई है। गाँव की धूल-धूसरित गालियां अचानक महमहा उठी हैं । ऐसा लग रहा है कि यह गंगा तट का एक सामान्य मैदानी गांव न होकर गंधर्व लोक का कोई कोई पुर हो, याकि अचानक धरती की सतह तोड़कर अचानक सुगंध का कोई सोता फूट पड़ा हो;  चहुं ओर सुगंध ही सुगंध है । और, इसकी गंध से मदमस्त समूची प्रकृति का पोर-पोर झूम उठा है । फागुन की हवा एक अल्हड़ बालिका की तरह बिना किसी अवरोध के पूरे गाँव में कुँलाचें भर रही है। हर एक घरहर एक आँगन उसका अपना है। वह कहीं भी बिलम कर सुहता लेती हैबिना किसी सोच-संकोच के। सारी सरेह (खेत) उसके छोटे-छोटे कदमों के ताल पर थिरक उठी है। चतुर्दिक ऊल्लास की आभा फूट रही है। बूढ़ा से बूढ़ा वृक्ष भी पुलकित हो उठा है। उसके जीर्ण पत्रहीन शरीर से भी नए-नए किल्ले फूट पड़े हैं। फिर युवाकिशोर और बाल वृक्षों का कहना ही क्यासब मगन हैं। पीपल ताली बजा-बजाकर नाच रहा हैआम और महुए  उसकी संगत कर रहे हैं। पाकड़ लाल-लाल चुनर पहन इधर उधर मटक रही है। बेला और चम्पा इत्रदान लिए खड़ी हैं। रातरानी और हरसिंगार फूलों से होली खेल रहे हैं। अमलतास के हाथ में पीला गुलाल हैतो पलाश के हाथ में लाल रंग की पिचकारी। प्रकृति के अंग-प्रत्यंग पर फागुन उतर आया है।
                    फगुनहटा बयार से हरी-हरी कचनार दुद्धा के दाँत वाली फसल भी पुष्ट और स्वर्णाभ हो उठी हैमानों अभी-अभी हवा का कोई झोंका उसे यौवन का उपहार बाँट गया हो और इस नवयौवना के स्वागत में सारा सीवान-मथारसारी सरेहिबाग-बगीचा एक लय एक धुन में झूम रहे हैं। ऐसा लग रहा है जैसे किसी दूल्हन की डोली आई हो और गाँव-घर टोला-पड़ोसा के बच्चे उसके पीछे-पीछे गाते-बजाते भागे जा रहे हों। बीच-बीच में कोई टहनी ऐसे लचक उठती है जैसे कोई नवोढ़ा अपनी अटारी से झँककर ओट हो गई हो। पत्तियों के कम्पन से उत्पन्न समवेत स्वर मंगल वाद्य का-सा आभास दे रहे हैं और नाना कण्ठ-स्वर वाले पक्षियों की मिली-जुली ध्वनि में स्वागत-गीत गाती स्त्रियों के गीत जैसा रस आ रहा है।  इस मिली-जुली ध्वनि ने एक अद्भुत संगीत की सृष्टि की है। यहाँ तक कि रँभाती गाएँ और कीचड़ भरे डबरे में लोटती भैंसों की पूँछ से रह-रह कर उठने वाली छप-छप की ध्वनि तक में भी आज कर्ण-प्रिय लग रही है। सृष्टि का मनोरम और सरस ही नहीं विरसबेसुरा और बेताल भी रस के इस महासमुद्र में गोता लगाकर सरस और सुश्रव्य हो उठा है। उसमें संगीत की अनगिनत राग-रागिनियाँ आ बसी हैं। द्रुतसम और विलम्बित की संगत साथ-साथ चल रही है। मृदुकटुतिक्तकाषाय आदि षड्-रसीय अभिव्यक्तियाँ घुल-मिलकर एक मधुरतम रस में तिरोहित हो गयीं हैं। शृंगाररौद्रकरुण के शास्त्रीय विभेद अचानक निःशेष हो गए हैं और उनके भीतर से एक परम मधुरअपूर्व ललित और अपरूप सुंदर कविता फूट पड़ी है और इस महासृष्टि से छनकर धीरे-धीरे हमारे भीतर उतर रही है। इसके यतिगति और लय में अपूर्व मोहकता हैशब्द-शब्द में सघन अनुभूति हैआरोह-अवरोह में अनंत संगीत हैऔर समग्र अन्विति में एक अखंड रस हैजो मन-मस्तिष्क और हृदय को परस्पर एकाकार कर उनके पोर-पोर में आ बसा है। यह एक ऐसी कविता है जो अनादि काल से चल रही हैऔर अनागत अनंतकाल तक चलती रहेगीयह बात अलग है कि वह किसी सजग मानस आधुनिक कवि की तरह यह दावा नहीं करती कि ‘कवि ने गीत लिखे नये-नये बार-बार,/पर उसी एक विषय को देता रहा विस्तार/ जिसे पूरा पकड़ पाया नहीं—/ किसी एक गीत में वह अँट गया दिखता/ तो कवि दूसरा गीत ही क्यों लिखता ?’ और न ही इस सृजन के लिए किसी ‘संवेदनात्मक ज्ञान’ और ‘ज्ञानात्मक संवेदना’ के बने बनाए पैरामीटर का आग्रह रखती है। वह तो फक्कड़ और स्वछंद है जो किसी स्वच्छ और प्रशांत हृदय का आधार पा अचानक मुखर हो उठती हैकबीर की तरह बिना कविताई और कलात्मक चारुता के दावे के।
        सारे परिवेश में एक अद्भुत उमंग है। सारी प्रकृति भँग की तरंग में झूम रही हैनीति-अनीतिकरणीय-अकरणीयउचित-अनुचित के सारे विधि-निषेधों से परे सहज और स्वच्छंद। तृणतरुलतागुल्मपशुपक्षीमनुज सब अपनी-अपनी मौज में हैं और बिना ढोल-मजीरे के हीफाग गाए जा रहे हैं। अलग-अलग राग,अलग-अलग धुन और अलग-अलग टेक के बावजूद इसमें कहीं भी बेसुरापनविसंगति और बिखराव नहीं है। सब मिलकर एक ऐसे महाफाग की सृष्टि कर रहे हैं,जिसकी ताल पर कोई अवघड़ देवता अनादि काल से नृत्य कर रहा है। इस सृष्टि का सारा कार-बार — सृजन-लय और उन्मीलन-निमीलन इसीकी नृत्य-भंगिमाएँ हैं। कबीराजोगीड़ा और फगुआ सब उसी अवघड़ की महिमा के गान हैं। इसीलिए समाज के लिए जो असंगतअस्वीकृतअश्लील और अशोभन हैवह सब यहाँ लोक-स्वीकार्यश्लील और शुभ हो जाता है। यह अवघड़ ही इस परमाप्रकृति का सनातन प्रेमी है और प्रकृति का सारा शृंगार-पटारकिसलयकोंचेबौर और पुष्प अपने इस प्रियत्म को ही रिझाने के उपादान हैं। यह अवघड़ देवता ही 'पुरुष और प्रकृतिके युग्म का 'पुरुष', 'शिव और शक्तिके युग्म का 'शिवतथा अमिताभ बुद्ध और प्रज्ञा-पारमिता' के युग्म का शिव हैजो इस नवयौवना प्रकृति के साथ साहचर्य स्थापित कर नई सृष्टि की रचना करता है। यह अनायास नहीं कि पौराणिक आख्यानों में भी फागुन की महाशिवरात्रि को शिव-पार्वती के विवाह का उल्लेख है। यह किसी आदिम लोक-कल्पना को शास्त्र-सम्मत ठहराने का उपक्रम है। परंपरागत हिंदू-मानस के लिए बिना दांपत्य के प्रेम की कल्पना अग्राह्य है। वह राधा-कृष्ण के लुका-छिपी वाले प्रेम को ईश्वरीय लीला मानकर एक हद तक भले सहन कर लेलेकिन बिना विवाह के नव-सृजन (संतान-उत्पत्ति) उसके लिए असह्य है। हाँयह बात अलग है कि उसे बूढ़े शिव और नवयौवना पार्वती के बेमेल विवाह में उतनी असंगति नहीं दिखती। वैसे भीजब ‘फागुन में बुढ़वा देवर लागे’, तो इस बेमेल विवाह की कल्पना क्यों नहीं की जा सकती?
            रूप, रस और गंध के इस महाभोज में पेड़ों की पाँत की पाँत बैठी हुई हैं। सब साथ-साथ छक रहे हैं। कोई साफा बाँधे है, तो कोई लाल पगड़ी, किसी के सिर पर पीला अँगौछा है तो किसी की धानी चूनर और किसी का बासंती आँचल। जटिल मुनि की तरह किसी के सिर से पैर तक लटकी हुई बड़ी-बड़ी लटें हैं, तो किसी के पूरे शरीर पर सेहरे की तरह लटकी हुई लताएँ और कोई सिर पर मौर की तरह बौर और कोंचे लिए बैठा है। कोई अपने पैरों को जमीन से ऊपर उठा कर उँकड़ू बैठा है तो कोई पालथी मार कर और कोई पसरकर। वहाँ न सूट-टाई की बाध्यता है, न कुर्सी मेज की झंझट और छूरी-काँटे की तो जरूरत ही क्या। यहाँ न निमंत्रण-पत्र दिखाने की जरूरत है और न किसी कूपन की। अद्भुत सह-भोज है। न कोई किसी की जात पूछ रहा है, न ओहदा। न कोई छुआ-छूत और न लिंग-भेद ही। आम, महुआ, शीसम, पलाश, सेमल, अमलतास, बरगद, पाकड़, पीपल, नीम, गूलर ही नहीं; चना, मटर, अरहर, गेंहूँ, जौ, सरसों, आलसी, यहाँ तक कि बाँस और दूब तक सब एक साथ एक पाँत में बैठे इस महाभोज का आनंद ले  रहे हैं। हवा सबके पत्तल में व्यंजन परोस रही है। सब अपने-अपने स्वाद और रुचि के अनुसार जी भरकर खा रहे हैं। कोई पूड़ी पर पूड़ी उड़ाए जा रहा है, तो कोई कचौड़ी ही कचौड़ी, किसी को तस्मई (खीर) और रसमलाई रुच रही है, तो कोई सटा-सट दही सरपोट रहा है, किसी ने बूँदी की पूरी बाल्टी अपने सामने रखवा ली है और कोई बारी-बारी रसगुल्ले और गुलाब जामुन के साथ न्याय कर रहा है। आम पत्तल के पत्तल दही और बूँदी उड़ा रहा है, तो महुए ने मिष्ठान्न के भंडार के बगल में ही आसन जमा रखा है नीम को मिर्च की तीखी पकौड़ी अधिक भा रही है। सब अपने में डूबे हैं। मोटका महुआ, लंगडी नीम, नयकी जामुन और पुरनका पीपल से लेकर रोहिनियवा, ठोरहवा, करुअसना, करियवा और कटहरिवा आम की गाँछी तक सब रस ले-लेकर खा रहे हैं। किसी को कोई जल्दी नहीं, कोई हड़-बड़ी नहीं; न खाने वालों को ना खिलाने वाले को। सब इस महामहोत्सव में लीन हैं।
        प्रकृति कभी बजट बनाकर अपने आमंत्रितों को भोज नहीं देती। वह जी खोल कर खिलाती है। उसके पास जो हैजितना है सब समर्पित है। वह कहींअतिथि देवो भव’ की तख्ती लगाकर नहीं बैठती। जो सामने आता हैउसे उमह-उमह कर खिलाती है— ‘लो मधुलो दूधलो अन्नलो फललो जललो वायु। चाहे जितना लो। वह रोकती टोकती नहीं। हमारा-तुम्हारा का बँटवारा नहीं करती। डाँड़-मेड़ नहीं बनाती और न चहारदीवारी और पनारे के लिए लाठी-भाला और कट्टा-बंदूक निकालती है। उसे ना जाति का पता हैन वर्ण का। वह कोई वर्ग-भेद नहीं मानती। उसे कोई धन-सम्म्पत्तिकोई हुँडी-खजाना नहीं चाहिए। न नौकरी और न प्रोमोशन। उसे न आस्तिकता से मतलब हैन नास्तिकता सेन हिंदू से न मुसलमान और न ख्रिस्तान से। वह न कुरानवेद और बाइबिल बाँचती है और न मंदिर या गुरुद्वारे में मत्था टेकती है। यह न मस्जिद में नमाज पढ़ने जाती है और न चर्च में मोमबत्तियाँ जलाती है। न कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो पढ़ती है और न थर्ड वेब,फ्यूचर शॉक और पॉवर-शिफ्ट की दो चार लाइनें रटकर ज्ञान का आतंक मचाती है। उसे हेडाइगरमार्खेजरोलांबार्थदेरिदा और बाख्तिन से कोई वास्ता नहीं। उसकी ज्ञान-परंपरा में इसका कोई मूल्य नहीं। मनुष्य की तरह जटिल नहींवह सहज है। उसकी शिक्षाउसका आचारउसका न्याय सब सहज है। वह सहजता का पाठ पढ़ाती है। वह ‘सत्यं वद् धर्मं चर’ में विश्वास करती है। उसका धर्म है संसार में प्राण-वायु का संचार करनावह उसे अनवरत कर रही है। उसका सत्य है ऋतु चक्र के अनुसार बदलना वह सहस्राब्दियों से इस नियम का पालन कर रही है। उसका न्याय है सबका कल्याण करना वह उसमें सतत लीन है। वह जातिवर्णरंग और लिंग का भेद नहीं करती। यह बात अलग है कि अगर हमने अपनी खिड़कियाँ दरवाजे पूरबपश्चिम और उत्तर की ओर लगा रखे हैं तो दक्खिन की हवा हमारे घर में कैसे आएगीवह तो उन्हीं के घर में आयेगी जिनके दरवाजे और खिड़कियाँ दक्खिन की ओर खुलेंगे। उसमें भला उसका क्या दोष ? दोष हमारी संकीर्णता का है कि हमने एक समूची दिशा को ही अशुद्ध मान लिया और उधर से आने वाली हवा के लिए भी अपने दरवाजे बंद-खिड़कियाँ बंद कर दीं।
         दिशा-कुदिशा का बोध मानवीय मस्तिष्क की उपज है। सबको जात-कुजात के खानों में बाँट कर देखना मनुष्य की फितरत है। ऊँच-नीचछोटा-बड़ा,अमीर-गरीब का भेद मनव-मन की कल्पनाएँ हैँ। जातिधर्मवर्णगोत्रआदि के तमाम भेद-उपभेद तो मनुष्य ने गढ़े है। यहाँ हर ओछा से ओछा मनुष्य अपने से भी तुच्छ दो-एक आदमी तलाश लेता है। भला प्रकृति का इससे क्या वास्ता ? वह इन बँटवारों को नहीं मानती। वह दिशा-कुदिशा का भेद नहीं करती। वह पुरवा,पछुआउतरहिया और दखिनहिया उसके लिए सब समान हैं। वह माँ हैसब उसके प्रिय हैं। वह ममतामयी और समदर्शिणी हैवह सबको समान प्रेम करती है। वह हम हैं जो उसे भोग्य-भोजक भाव से देखते हैंउसके प्रेम पर अपना एक छ्त्र राज्य समझते हैंउसकी सारी सम्पत्तिउसका सारा स्नेहसारा संचित कोश अकेले-अकेले हजम कर जाना चाहते हैं। उसे राष्ट्र और राज्य की चौहद्दियों में बाँधकर उसके लिए संघर्ष कर रहे हैं। उसका दिया सारा दूधसारा मधुसारा जलसारा अन्न अकेले-अकेले हथिया लेना चाहते हैं । हम मनुष्य महुएआमपीपल और पलाश की तरह सहज रूप से अपने स्वाद और रुचि के अनुरूप महाभोज का आनंद नहीं ले सकते । हमें अपने ‘मन-भोग’ में कंकड़ी दिखने लगी है और दूसरे के पत्तल का रूखा-सूखा भी छप्पन भोग लगने लगा हैउसे भी हड़प जाना चाहते हैं । हमारी लिप्सा के करोड़-करोड़ मुख हैंजिससे वह सबकुछ लील जाना चाहती है। वह खाद्य और अखाद्य के बोध से रहित है। तरुपादपजीवजंतुकंकड़-पत्थर और यहाँ तक कि मनुष्य भी उसके लिए अभक्ष्य नहीं। हमारी ऐषणा हिंसा-अहिंसा की सीमाओं से परे जा रही है । उसके सामने ‘गला काट प्रतियोगिता’ जैसे मुहावरे आउटडेटेड हो चुके हैं। सच कहें तो अब हमें उन मुहावरों और प्रतीकों की भाषा से कोई वास्ता नहीं। अब हम सीधे और सपाट शब्दों में ‘मनुष्य के अंत’, ‘इतिहास का अंत’ और ‘विचार का अंत’ की बातें कर रहे हैं। हमारा कोई अतीत नहींहमारा कोई वर्तमान नहीं और मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि कोई भविष्य भी नहीं। हमने इन सबकी खुले बाजार नीलामी कर दी है। यह बाजार ही हमारा नियामक है। वह चाहे तो मुझेआपकोहम सबको टके के बल पर खरीद सकता है और न चाहे तो आप कूड़े के ढेर में निबटाए जाने के लिए अभिशप्त हैं। यही हमारी नियति है। हमारी हवाहमारा पानीहमारी जमीनउसके भीतर और बाहर बिखरे असंख्य रत्न और धातु ही नहींहमारी गरीबीहमारी बेकारी और हमारी भूख-प्यास सब बिकाऊ है। सरेआम चौराहे पर नीलाम हो रही हैं और हम अपने कलेजे पर हाथ रखे डालररूबल और पौंड के उतार-चढ़ाव नाप रहे हैं। ऐसे में फगुनहटा के बयार की फुदक पर सम्मोहित होने के बजाय संसेक्स की उछालों के साथ हमारे उछलने में क्या आश्चर्य है
            पर इन पेड़ों को इतनी भी फुरसत कहाँ ? इस मस्ती के आलम में भला इतना भी कहाँ सोचें ? वे तो अपने आनंद-लोक में विचरण कर रहे हैं। फगुन की बयार की मादकता ही ऐसी है। जो इसकी मादकता में डूबता हैडूबता ही जाता है आपाद-मस्तक या पोरसा-दो-पोरसा नहीं;अतलवितल और पाताल तक। यहाँ न डूबने का भय और न दम घुटने की संभावना। इस डूबने में अनंत सुखअनन्य तृप्ति है और अपूर्व आनंद है— ‘अनबूड़े बूड़ेतिरे ते बूड़े सब अंग। यह हवा मन को विकुंठ कर देती है; अपनी सारी चिंता, सारा राग-द्वेष सारा मनोमालिन्य भूलाकर तथा स्व और पर संकुचित राग-मंडल ऊपर उठाकर एक अखंड राग में लीन कर देती है । यह लय ही जीवन की चरम साधना है, चरम तृप्ति या चरम सुख है और इसकी प्राप्ति ही जीवन का चरम लक्ष्य । यह अनायास नहीं कि हमारे पुरनियों ने इस लय में ही वर्षांत की कल्पना की; भारत जैसी आनंदवादी जीवन-दर्शन की प्रसव-भूमि के लिए यह सर्वथा अनुकूल भी है ।