बुधवार, 1 अगस्त 2012

सरहदें


परिंदा कोई तुम्हारे आँगन का
नहीं मार सकता पर
मेरे आँगन में ,

मूंद दीं बिलें चीटीयों की
कायम करती थी
जो बेवजह आवाजाही
तुम्हारे घर से मेरे घर की ,
रोशनदानों पर
जड़ दिए मोटे शीशे सके नापाक हवा
तुम्हारे दरख्तों की
मुझ तक
मेरे घर मेरी आद-औलादों तक ,
फिर, कैसे रोया
मेरा नवजात बच्चा
तुम्हारे बच्चे की आवाज में ?
अरे! अब हँस रहा
तुम्हारा बच्चा मेरे बच्चे की तरह.


क्या महफूज़ हैं ,
सच-मुच हमारी-तुम्हारी सरहदें   !

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