वंदे बोधमयं नित्यम् : आचार्य वासुदेवशरण अग्रवाल
आधुनिकता और नवजागरण के संदर्भ में स्वचेतनता, वैचरिकता और इतिहास-दृष्टि का उल्लेख और संदर्भ बहुतायत में देखने को मिलता है और इसी संदर्भ में नवजागरणकालीन वैचारिक गद्य और निबंध साहित्य का उल्लेख भी। उसके बाद के साहित्य-संदर्भों में कविता, कहानी, उपन्यास जैसी लोकप्रिय विधाओं की चर्चा ही अधिक होती है। हिंदी आलोचना की सामान्य प्रवृत्ति काव्योन्मुखी रही है और कुछ कथा की ओर झुकी हुई। नवजागरण काल के वैचारिक गद्य या निबंधों की आलोचना भी परवर्ती लेखकों या आलोचकों की अर्जित ‘प्रगतिशीलता’ को भारतीय सहित्य या हिंदी साहित्य के भीतर रोपने के लिए आल-बाल तैयार करने के क्रम में ही हुई है। डॉ रामविलास शर्मा द्वारा भारतीय नवजागरण की व्याख्या और उसकी प्रमाण-पुष्टि के क्रम में भारतेंदु हरिश्चंद्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी और रामचंद्र शुक्ल पर उनके अलोचनात्मक प्रबंधों की इसमें एक बडी भूमिका रही। पहली और दूसरी परम्परा अथवा आचार्य रामचंद्र शुक्ल बनाम आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की बहस ने आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को भी इस आलोचकीय चर्चा के भीतर समेट लिया। लेकिन उनकी चर्चा प्रायः ‘परम्परा के मूल्यांकन’ और ‘परम्परा की खोज’ के आस-पास ही केंद्रित रही, बजाय द्विवेदी जी के निरपेक्ष वैचारिक और संवेदनात्मक मूल्यांकन के। फिर, उनके समकालीन या परवर्ती निबंधकरों या वैचरिक गद्यकारों की चर्चा भला क्यों होती ?
बौद्धिकता और विवेकवाद का दावा करते हुए भी स्वातंत्रोत्तर हिंदी आलोचकों की कस्तूरी नाभि ‘काव्यास्वाद’ ही रही। उसी की गंध की तलाश में आलोचना आधुनिकता, विचारधारा, राजनीति,
साहित्य के अंचल में आचार्य वासुदेवशरण अग्रवाल की चर्चा प्रायः नहीं होती है। कला और इतिहास के अध्येता होने के कारण वासुदेव शरण जी को तो साहित्येतर लेखक के खाते में खतियाने की पर्याप्त छूट भी मिल जाती है । इसलिए ऐसा होना आश्चर्यजनक नहीं है। लेकिन, इतिहास कलादि ज्ञानानुशासनों में भी उनके कद के अनुरूप उनको महत्व न मिलना आश्चर्यजनक है।
साहित्य अकादेमी की भारतीय साहित्य के निर्माता शृंखला में आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी द्वारा लिखित विनिबंध और 2012 में साहित्य अकादमी द्वारा ही प्रकाशित कपिला वात्स्यायन जी द्वारा संकलित-संपादित 'वासुदेवशरण अग्रवाल : रचना-संचयन' के बाद महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के तत्वावधान में प्रभात प्रकाशन द्वारा प्रकाशित 'राष्ट्र, धर्म और संस्कृति' इसका अपवाद है। कपिला जी ने अपने सम्पादित संचयन में आचार्य अग्रवाल के प्रति शिष्या भाव से श्रद्धांजलि और उनके समग्र लेखन की झाँकी प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। नए पाठक को अग्रवाल जी के साहित्य और उनके लेखन की विविधता से अधिक से अधिक परिचित कराने की चाह के कारण उनकी पुस्तक का आकार संचयन की दृष्टि से अधिक समृद्ध हो गया है। उसकी तुलना में 'राष्ट्र, धर्म और संस्कृति' संक्षिप्त है। यहाँ निबंधों के चयन में प्रतिनिधित्व की तुलना में संपादक की अंतर्दृष्टि प्रभावी है, जिसका संकेत बहुत दूर तक पुस्तक के शीर्षक और फिर उसकी भूमिका में बहुत स्पष्ट रुप से मिल जाता है : 'भारत राष्ट्र का निर्माण धर्म और संस्कृति की भित्ति पर हुआ है। इसलिए इस संचयन का नाम 'राष्ट्र धर्म और संस्कृति' रखा गया है। इसमें द्वीपांतर से लेकर ईरान और मध्य एशिया तक तथा असेतुहिमाचल मृण्मय भारत और चिन्मय भारत से संबद्ध वासुदेव जी के लेख संकलित हैं। चिन्मय भारत सहस्र - सहस्र वर्षों से प्रवाहित अजस्र धारा का सनातन प्रवाह है, यही इन निबंधों की टेक है; प्रतिपाद्य है।"
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आचार्य वासुदेवशरण अग्रवाल हिंदी के एक बहु-आयामी निबंधकार हैं। उनका समूचा लेखन भारतीयता का उद्गीथ है । भारतीय चित्त और मानस के मर्म को जितनी संवेदना के साथ उन्हेंने आत्मसात किया है, आधुनिक हिंदी लेखकों में वह प्रायः दुर्लभ है । फिर भी, वे ‘असाध्यवीणा’ के काव्य-नायक अजित केशकंबली की तरह ही किसी प्रवीणता का दावा नहीं करते, बल्कि एक विनम्र और जिज्ञासु शिष्य-भाव से भारतीय ज्ञान-परम्परा के सम्मुख विनत दिखायी देते हैं । विनम्रता, सहजता और जिज्ञासा की त्रिगुणात्मक समन्विति ही उनके रचनात्मक व्यक्तित्व की नियामक है । ‘राष्ट्र, धर्म और संस्कृति’ के सम्पादक डॉ हनुमानप्रसाद शुक्ल ने उनके इस व्यक्तित्व का रेखांकन सूत्रात्मक शैली में किया है: “ वासुदेवशरण अग्रवाल ‘श्रद्धवाँल्लभते ज्ञानम्’ को चरितार्थ करने वाले ‘ज्ञानमूर्ति’ थे। इस ज्ञान-बल से ही उन्होंने अपनी कुल-परम्परा, गुरु और ज्ञान-परम्परा, धर्माचरण, संस्
उनकी यह श्रद्धा और भक्ति अमूर्त या भावाविष्ट न होकर मूर्त और विवेक संवलित है । आचार्य अग्रवाल ने ‘राष्ट्र का स्वरूप’ निरूपित करते हुए लिखा है ‘भूमि का निर्माण देवों ने किया, वह अनंत काल से है । उसके भौतिक रूप, सौंदर्य और समृद्धि के प्रति सचेत होना हमारा आवश्यक कर्तव्य है। भूमि के पार्थिव शरीर के प्रति हम जितने अधिक जाग्रत होंगे, उतनी ही हमारी राष्ट्रीयता बलवती हो सकेगी ।...जो राष्ट्रीयता पृथ्वी के साथ नहीं जुड़ती, वह निर्मूल होती है । राष्ट्रीयता की जड़ॆं पृथ्वी में जितनी गहरी होंगी, उतना ही राष्ट्रीय भावों का अंकुर पल्लवित होगा ।” यहाँ राष्ट्र को किसी भाव-सत्ता के रूप में नहीं, बल्कि उसके ठोस पार्थिव यथार्थ के साथ स्वीकार किया गया है।
साहित्यकारों और चिंतकों द्वारा राष्ट्र के संबंध में वैदिक साहित्य के ‘क्स्मै देवाय हविषा विधेम’ से प्रेरित एक प्रश्न बार-बार उठाया जाता रहा है, जिसकी प्रतिध्वनि आचार्य अग्रवाल के ही समकलीन कवि दिनकर की इस कविता में सुनी भी जा सकती है :
तुझको या तेरे नदीश, गिरि, वन को नमन करूँ, मैं ?
मेरे प्यारे देश ! देह या मन को नमन करूँ मैं ?
किसको नमन करूँ मैं भारत ? किसको नमन करूँ मैं ?
अग्रवाल जी के ‘राष्ट्र का स्वरूप’ निबंध का आरम्भ ही इसके बड़ॆ सीधे सहज और सम्प्रेष्य उत्तर से होता है कि “भूमि, भूमि पर बसने वाला जन और जन की संस्कृति, इन तीनों के सम्मिलन से राष्ट्र का स्वरूप बनता है ।” इस प्रश्न का इससे सटीक दूसरा उत्तर और राष्ट्र की इससे अधिक स्पष्ट और तार्किक व्याख्या क्या हो सकती है ? उनका समूचा लेखन राष्ट्र की इस संकल्पना का ही भाष्य है। यह पुरातत्व, इतिहास, कला, चिंतन और साहित्य के विभिन्न आयामों में अभिव्यक्त होता है और अपनी समग्रता में ‘अहंभारतोऽस्मि’ का उद्घोष करता है । उनका लेखन और चिंतन भारतीय आर्ष-चिंतन का विस्तार है । इसके अनेक साक्ष्य उनके सहित्य में मौजूद हैं; संस्कृति संबंधी उनका यह विचार उनमें से एक है; “ संस्कृति हवा में नहीं रहती उसका मूर्तिमान रूप होता है।...जब विधाता ने सृष्टि बनाई तो पृथ्वी और आकाश के बीच विशाल अंतराल नाना रूपों में भरने लगा। सूर्य, चंद्र, तारे, मेघ, षड्-
आचार्य अग्रवाल की पार्थिव संसक्ति का स्रोत भारतीय धर्म-साधना है । संस्कृति सम्बंधी उक्त विचार ‘ऐतरेय ब्राह्मण’ और ‘ऐतरेय उपनिषद्’ के बहुत निकट हैं । इन दोनों का संबंध ‘अथर्ववेद’ के ‘पृथ्वी सूक्त’ से है और ‘पृथ्वी सूक्त: एक अध्ययन’ डॉ. अग्रवाल का एक स्वतंत्र निबंध भी है, लेखक ने जिसके चार उपखंड किये हैं : मातृभूमि का हृदय, मातृभूमि का स्थूल विश्वरूप, जन और जनसंस्कृति अथवा ब्रह्मविजय । उनके राष्ट्र के स्वरूप निबंध के साथ इस अध्ययन को रखकर पढ़ा जाय तो इसमें संदेह नहीं रह जाता कि अग्रवाल जी का पार्थिव वस्तुवाद अनात्मवादी भौतिकवाद से एकदम अलग भारतीय आत्मवाद से अनुप्राणित है । ‘माता भूमिःपुत्रोऽहं पृथिव्याः’ का भाव उनके चिंतन और लेखन के पद-पद में प्रतिध्वनित होता है।
अग्रवाल जी आधुनिक काल में भारतीयता के सम्भवतः पहले देशज सर्वांग भाष्यकार थे । पहले और देशज इसलिए कि वे भारतीयता के आत्म-तत्त्व के अन्वेषण में वेद-शास्त्रादि के अनुशीलन और अनुभावन के साथ ही लोक-मानस, लोक-धर्म, लोक-कला तथा लोक-जीवन को भी साथ-साथ लेकर चले और इन्हें ‘कल्प-वृक्ष’ की संज्ञा दी । उनसे पूर्व भारतीयता की आधुनिक समझ का एक बड़ा हिस्सा पाश्चत्य इतिहास दृष्टि और संकृति-बोध से प्रेरित या प्रभावित था । अध्येताओं ने वेद तथा धर्मशास्त्रीय ग्रंथों के मैक्समूलर आदि पश्चात्य विद्वानों द्वारा किये गए अनुवादों के आधार पर भारत की एक पाश्चात्य मूर्ति रची और फिर उसमें भारतीय संस्कृति की प्राण-प्रतिष्ठा के प्रयास किये। इसीलिए कुछ अध्येताओं को यह संस्कृति ‘आश्चर्यजनक’, ‘बेमेल’ या ‘अजायबघर’ सी जान पड़ती है । आचार्य अग्रवाल इनसे अलग इस अर्थ में हैं कि वे किसी पूर्वमान्यता के आधार पर साधारण प्रतिज्ञा के साथ नहीं चलते और न ही उसे सिद्ध करने की जिद करते हैं । उनका अध्ययन जन-जनपद-राष्ट्र के उत्तरोत्तर क्रम में आगे बढ़ता है और उनकी परस्पर अन्विति तथा अंतःसंबंधों की व्याख्या कर हमें भारतीय संस्कृति को पहचानने की आँख देता है।
अग्रवाल जी का लेखन इतना सहज और अभिव्यक्ति-क्षम है कि ‘संस्कृति’ और ‘धर्म’ जैसी संश्लिष्ट और अंतर्ग्रथित विषय-वस्तु भी पाठक के सम्मुख बहुत ही सुलझी और सहज रूप में प्रस्तुत होती है । ‘सनातन धर्म’ शीर्षक अपने निबंध में उन्होंने धर्म की अंतर्यात्रा और उसके विविध संदर्भों के साथ भारतीय धर्म के सम्बंध में लिखा है : ‘धर्म शब्द के व्यापक परिभाषा के, जो इस देश में सदा से मान्य रही है, दो सूत्र हैं— एक यह कि धर्म पूरे जगत की टेक है ( धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा) और दूसरी यह कि धर्म ही प्रजाओं के जीवन में सर्वोपरि तत्त्व है (तस्माद्धर्म परमं वदंति) उसे ही दूसरे प्रकार से यों कहा गया है कि जो तत्त्व मनुष्य के, समाज के, राष्ट्र के और विश्व के जीवन को धारण करता है, वही धर्म है (धारणाद्धर्ममित्याहुर्धर्मो धारयति प्रजाः) धारणात्मक नियमों का समादर ही धर्म है। वस्तुतः ‘सनातन धर्म’ इस नाम के पीछे भी यही अर्थ अभिप्रेत है । हिंदू धर्म के अनुसार पंथ, मत या संप्रदाय पृथक हैं, क्योंकि धर्म शब्द का वह भी एक सीमित अर्थ है, इसलिए तत्त्व-ज्ञान की आधार-भित्ति और संस्कृतिपरक जो धर्म का स्वरूप है उसके प्रति मन में उद्वेग लाना उचित नहीं है । ” एक अन्य निबंध ‘धर्म का अर्थ’ में उन्होंने लिखा है कि “मत-मतांतर व्यक्तियों के लिए है, लेकिन धर्म राष्ट्र के लिए है । धर्म या सत्य से ही भूमि और आकाश टिके हैं । देश के इस अनुभव पर हमारी नई राष्ट्रीयता ने मानों फिर से छाप लगा दी है ।”
आचार्य वासुदेवशरण अग्रवाल भावना और तर्क दोनों के संतुलन में सिद्धहस्त और साहित्य तथा दर्शन के सुधीर अध्येता थे। उनकी साहित्य, कलादि के भावन तथा भारतीय धर्म, दर्शन, पुरातत्त्व, इतिहा
महर्षि वाल्मीकि शीर्षक अपने निबंध में आचार्य अग्रवाल ने लिखा है : “महर्षि वाल्मीकि हमारे राष्ट्रीय आदर्श के आदि विधाता हैं । धर्म और सत्य रूपी महावृक्षों के जो अमर बीज वाल्मीकि ने बोये हैं, वह आज भी फल फूल रहे हैं। इस देवपूज्य पुण्यभूमि में रहने योग्य देवकल्प मानव के निर्माण का श्रेय वाल्मीकि को ही है।” कुछ ऐसी ही भूमिका स्वातंत्रोत्तर भारत में आचार्य अग्रवाल भी निभा रहे थे।
आचार्य अग्रवाल के साहित्य के समग्र अध्ययन के बाद यह बात पाठक सहज ही समझ सकता है कि उनकी भूमिका आधुनिक काल में भारत के राष्ट्रीय शील के निर्माता की रही है । ‘राम’ के चरित्र के रूप में महर्षि वाल्मीकि ने भी यही भूमिका निभाई थी, वे राम के रूप में विग्रहवान धर्म का स्वरूप रच रहे थे और आचार्य अग्रवाल उस धर्म का नया भाष्य रच रहे थे। भारत में रामत्व की प्रतिष्ठा करने और रघुवंश को भारतीय मर्यादा के आदर्श रूप में प्रस्तुत करने वाले तीनों ही कवि वाल्मीकि, कालिदास और तुलसीदास अग्रवाल जी के प्रिय हैं।
वासुदेव शरण जी ने मलिक मुहम्मद जायसी की प्रसिद्ध कृति ‘पद्मावत्’ का ‘संजीवनी भाष्य’ भी रचा और यह उनकी एक अप्रतिम रचना भी है। इसकी भूमिका में उन्होंने जायसी को ‘पृथिवी-पुत्र’ की संज्ञा दी है और लिखा कि “जायसी सच्चे अर्थों में पृथ्वी-पुत्र थे। वे भारतीय जन-मानस के कितने सन्निकट थे, इसकी पूरी कल्पना करना कठिन है। गाँव में रहने वाली जनता का जो मानसिक धरातल है, उसके ज्ञान की जो उपकरण सामग्री है, उसके परिचय का जो क्षितिज है, उसी सीमा के भीतर हर्षित स्वर से कवि ने अपने गान का उँचा स्वर किया है। जनता की उक्तियाँ भावनाएँ और मान्यताएँ मानों स्वयँ छंद में बँधकर उनके काव्य में गुँथ गई हैं। जायसी की सांस्कृतिक उपस्थिति की ऐसी सटीक व्याख्या सर्वथा दुर्लभ है, तुलसीदास और जायसी की तुलना करते हुए वे गोस्वामी जी को कहीं अधिक बड़ी राष्ट्रीय भूमिका में पाते हैं , “जायसी के प्रेम काव्य में हृदय का एक छोटा-सा कुतूहल अवश्य था, परंतु व्यक्ति और समाज के जीवन का निर्माण करने वाले शक्तिशाली आशावाद का उनमें पता न था।... गंगा की धारा गंगाद्वार में शैलराज हिमवंत से उतरती हुई अपार जलराशि को समेट लाती है, उसी प्रकार गोसाईं जी ने भारतीय ज्ञान और साहित्य की समस्त तत्त्वानुभूति को समेट कर ‘रामायण’ में भरा और लोक के लिए उसे दिया।... लोक में फैले हुए विशाल जनपद-जीवन और नगरों के बीच जो दूरी थी, उसे हटाकर दोनों के लिए रमणीय चित्र ‘रामचरित मानस’ में तैयार किया गया।... ग्रामवासी और पुरवासी दोनों ही तुलसीदास को अपना कवि समझते हैं। वस्तुतः तुलसी सच्चे अर्थों में पूरे राष्ट्र के कवि हैं।”
राष्ट्रीयता और संस्कृति को साहित्य के अनुशीलन और मूल्यांकन को कसौटी मानना आचार्य अग्रवाल की साहित्य-दृष्टि की विशिष्टता कही जा सकती है । वे अपने सभी प्रिय रचनकारों को इस कसौटी पर जरूर कसते हैं। वाल्मीकि और तुलसीदास ही नहीं, वेदव्यास और कालिदास भी उनकी दृष्टि में यदि श्रेष्ठ कवि हैं तो अन्य तमाम विशिष्टताओं के साथ अपनी राष्ट्रीय और सांस्कृतिक भूमिका के कारण। महर्षि वेदव्यास के संबंध में उनकी मान्यता है कि “ हमारे राष्ट्रीय अभ्युत्थान के लिए ‘महाभारत का विशेष महत्व है .... वेदव्यास जिस भारत राष्ट्र की उपासना करते थे, भविष्य का प्रत्येक हिंदू उसका स्वप्न देखेगा।” इसी तरह कालिदास के ‘रघुवंशम् ’ महाकाव्य को उनका ‘राष्ट्रीय वैभव और आदर्शों का काव्य’ तथा उनकी कविता को ‘भारतीय संस्कृति की त्रिपथा गंगा’ कहना भी राष्ट्र और संस्कृति के प्रति उनके अनन्य राग का प्रमाण है। उनका राष्ट्र-बोध और सांस्कृतिक चेतना लोकानुरागी है। उनकी मान्यता थी कि “वही साहित्य लोक में चिर जीवन पा सकता है जिसकी जड़ें दूर तक पृथ्वी में गईं हैं। जो साहित्य लोक की भूमि के साथ नहीं जुड़ा, वह मुरझाकर सूख जाता है।”
साहित्य, इतिहास, धर्म और दर्शन के साथ-साथ आचार्य अग्रवाल भारतीय शिल्प और कला के भी मर्मज्ञ हैं । उनकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘भारतीय कला’ प्राचीन भारतीय कला वैभव की समग्र और समर्थ आलोचना है । वे सौंदर्य को धर्म और दर्शन की तरह ही संस्कृति का अनिवार्य और अविभाज्य अंग मानते थे : “कला मन का कुतूहल नहीं और न बुद्धि का व्यसन है। कला का सच्चा आसन इससे बहुत ऊँचा है और उतना ही अनिवार्य है जितना सहित्य, धर्म, अध्यात्म और दर्शन का ।”
जिस प्रकार आचार्य अग्रवाल की साहित्य-मीमांसा का अधार वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, तु
आचार्य अग्रवाल का लेखन भारत-बोध का महत् उपक्रम है, जिसका आधार भारतीय परम्परा का वह स्वाभाविक विवेकवाद है, वेद-उपनिषद जिसके उत्स हैं और जिसे महावीर स्वामी, गौतम बुद्ध, महर्षि वाल्मीकि, वेद व्यास तथा तुलसीदास ने आकार और विवेकानंद ने आधुनिक स्वरूप दिया। उनके ऋग्वेद केंद्रित निबंध ‘रूपं रूपं प्रतिरूपं रूपं वभूव’ उनके इस उपक्रम का प्रस्थान अथवा ‘बीज’ है। इसमें उन्होंने लिखा है, “प्रतिरूप एक था रूप अनेक हैं, प्रतिरूप अमृत था. रूप मृत है, प्रतिरूप अपरिवर्तनशील था रूप परिवर्तनशील है। उस एक प्रतिरूप में सब रूपों का अंतर भाव है। गणित के शब्दों में यदि कहना चाहें तो सब अंकों की समष्टि शून्य है। अतएव यह भी चरितार्थ होता है कि जो सब रूपों को अपने में धारण करता है, वह स्वयं अणु है। जो मूलभूत प्रतिरूप है उसे निर्गत सूक्ष्म और स्थूल के नियम सभी कल में एक समान व्याप्त होते हैं। प्रतिरूप के अभिव्यक्ति प्रतीक द्वारा ही की जा सकती है। परंतु सर्वरूपमय प्रतिरूप के अभिव्यक्ति लिंग मूर्ति से ही हो सकती है। भारतीय शिल्पी किसी एक व्यक्ति विशेष का रूप नहीं बनाता, वह तो समाज में आदर्श के बिम्ब की कल्पना करता है।” यह सर्व-रूपमय प्रतिरूप ही ‘भारतीयता’ है, जो नित्य है और अमृत है। यही समूचे भारतीय वाङ्मय, कला, दर्शन, लोक-परम्
अग्रवाल जी अपने प्रकाण्ड पाण्डित्य, अगाध अध्ययन और निरंतर अनुसंधान के बावजूद अपने लेखन में उसका बोझ लेकर नहीं चलते । वे बेहद सहज और संप्रेष्य शैली का प्रयोग करते हैं । भारतीय धर्मतत्त्व, पृथ्वी सूक्त, वैदिक दर्शन, सनातन धर्म, संस्कृति का स्वरूप जैसे गूढ विषय भी उनकी लेखनी का आधार पा बेहद सहज और सम्प्रेष्य हो जाते हैं । सांकृतिक विषय पर उनके लेखन की तुलना हिंदी साहित्य के किसी लेखक से की जा सकती है तो वे हजारी प्रसाद द्विवेदी हैं, जिन्होंने लालित्य का आधार ले गूढ विषयों को भी संप्रेष्य बना दिया है। किंतु, दृष्टि भंगिमा और चिंतन-प्रणाली में वे महाकवि जयशंकर प्रसाद के अधिक निकट हैं। भारतीय संस्कृति के अत्मसातीकरण और उसकी रचनात्मक अभिव्यक्ति में जो भूमिका जयशंकर प्रसाद के लेखन की है, वही स्वातंत्र्योत्तर भारत में अग्रवाल जी की है । दोनों ही भारतीयता के अत्मवादी आरधक थे । प्रसाद के नाटकों में जो सांस्कृतिक औदात्य व्यक्त हुआ है, उस तरह का औदात्य आचार्य अग्रवाल के ‘हर्षचरित: एक सांस्कृतिक अध्ययन’ ‘पणिनिकालीन भारतवर्ष’, ‘कादम्बरी एक सांस्कृतिक अध्ययन’ जैसे ग्रंथों में दिखाई देता है। इस दृष्टि से प्रसाद की रचनात्मकता उनकी शक्ति और सीमा दोनों है, उनकी रचनाओं का कला-विन्यास उन्हें साहित्या-स्वादन के अग्रही पाठक-वृत्त से जोडता है तो भारतीय संस्कृति के विशाल फलक के विविध रंगों के रहस्य को आचार्य वासुदेव शरण अग्रवाल की तरह रुक-रुक कर खोलने और उनकी व्याख्या करने का अवसर भी नहीं दिया। इसलिए इतिहास, दर्शन, कला, साहित्य और धर्मशास्त्र के सम्यक अद्धेता और सुधीर व्याख्याकार होने का जो गौरव आचार्य अग्रवाल को है, वह हिंदी के किसी अन्य लेखक को नहीं।
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