अपने संकुचित अर्थ में भी भारत में ‘धर्म’ किसी एक परंपरा विशेष का वाचक कभी नहीं रहा । केवल ब्राह्मण-परंपरा और ब्राह्मण-ग्रंथों से अनुशासित नहीं रहा, बल्कि श्रमण परंपरा और लोक-मान्यताएं आरंभ से ही उसकी सहधर्मिणी रही रहीं। यहाँ वेद को अपौरुषेय मानते हुए भी उसे अव्याख्येय नहीं माना गया, बल्कि उपनिषद और ब्राह्मण ग्रंथों की रचना ही इनकी समयानुकूल व्याख्या के लिए हुई। जिसतरह आज यह कहा जाता है कि भारत में एक सतत सांस्कृतिक प्रवाह सुदूर अतीत से चला आ रहा है, कुछ उसी तरह पुरानी शब्दावली में उसे सनातन माना जाता था।
यहाँ बुद्ध के साथ मनुस्मृति का उद्धरण सोद्देश्य दिया गया है। इन्हें आधुनिक और प्रगतिशील इतिहास में भारतीय धर्म की दो स्वतंत्र और परस्पर द्वन्द्वात्मक प्रकृति वाली परंपराओं के रूप में प्रस्तुत करने का चलन रहा है। मनु-स्मृति को ब्राह्मणवादी व्यवस्था का नियामक ग्रंथ माना जाता है । इसके विपरीत ब्राह्मण जड़ता का प्रतिवाद बौद्ध प्रगतिशीलता में है। परंतु, ये दोनों ही परम्पराएं ‘धर्म’ की सनतानता की बात कर रही हैं। यह वही ‘धर्म’ है जो मानव की उपस्थिति से अब तक सतत प्रवाहमान रहा है। सातत्य में निरन्तरता का भाव तो है, पर सनातन में निरन्तरता के साथ नित-नवीनता का भाव भी समाहित है। इस समझ के अभाव में ही ब्राह्मण-परंपरा श्रमण-परंपरा और उसके द्वन्द्व की बात तथा पहली-दूसरी परंपरा जैसे भ्रांत पदों को भाषा के टकसाल में ढाल कर बाजार में चलाने के प्रयत्न हुए।
दुनिया की किसी भी ‘सांस्कृति-चेतना’ की तुलना में हमारा यह ‘धर्म-बोध’ अधिक प्रगतिशील है। इसका प्रमाण यह है कि भारतीय परंपरा में धर्म के लिए स्तम्भ जैसे स्थिर या रैखिक प्रतीकों, रूपकों या आकृतियों का प्रयोग नहीं होता। बल्कि उसे गतिशील प्रतीकों, रूपकों या आकृतियों के रूप में ही व्यक्त किया गया हो।
वृषभ के रूपक के रूप में देखती है (हिन्दू धर्म जीवन में सनातन की खोज का उद्धरण) । वह शास्त्र-धर्म के साथ ही लोक-धर्म और आपद धर्म को भी लेकर चलती है। उसकी मूल मान्यता ही है— ‘अनंतो वै वेदा’ अर्थात विद्या के मार्ग अनेक है । यह एकेश्वरवादियों की तरह किसी एक को स्वीकारने और अन्य को रिजेक्ट करने की बात नहीं करता, बल्कि ईश्वर स्वयं ‘एकोहं बहुस्याम:’ की बात करता है । यह तथ्य किसी जड़ता के बजाय स्वस्थ और विकसनशील स्वभाव की ओर ही इंगित करता है। राजा राम मोहन राय आदि जैसे यूरोप परस्त विचारकों को यह बात समझ में नहीं आई, जबकि यह ई संकल्पना ही लोकतान्त्रिक और उदार चिंतन की उपज है ।
हिन्दू धर्म बाद में प्रयोग में आने लगा, पुराने ग्रंथों में केवल धर्म या समतन धर्म ही प्रयुक्त मिलता है और उसपर भी किसी एक परंपरा का एकाधिकार नहीं रहा, बल्कि एक ही समय में चलाने वाली अनेक धाराएं ‘सनातन धर्म’ का प्रयोग करती हैं। बुद्ध और मनु दोनों ही इस पद का प्रयोग समान अधिकार से करते हैं । आधुनिक शब्दावली में इसे ही इस धर्म की लोकतांत्रिकता कह सकते हैं और पुरानी शब्दावली में ‘भारत का धर्म’ (आज की प्रचलित शब्दावली में ‘संस्कृति’)। यहाँ उस भारत की बात की जा रही है, जहां महाभारतकार स्पष्ट शब्दों में घोषणा करते हैं —
धर्म यो बाधते धर्मों न स धर्मः कुधर्म तत् ।
अविरोधातु यो धर्मः स धर्मः सत्यविक्रमः ॥
मंगलवार, 28 फ़रवरी 2023
धर्मं यो बाधते धर्मो
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