सोमवार, 19 अक्तूबर 2015

धर्मो यो बाधते धर्मः

'पंथ-निरपेक्षता' भारतीय संविधान की मूल आत्मा(प्रस्तावना का हिस्सा) है। यह भारतीय मनोरचना का स्वाभाविक तत्व है, इसका विकास भारतीय संस्कृति (संस्कृति भी गढ़ा हुआ नया शब्द है; भारतीय संदर्भ में इसके लिए धर्म ही सटीक शब्द है) के साथ-साथ सहज रूप में हुआ। अतः इसका विरोध भारतीयता का विरोध है। 'धर्म-निरपेक्षता' और 'सांप्रायिकता' दोनों नयी अवधारणाएँ हैं और दोनों साथ-साथ फलती-फूलती रही हैं। एक दूसरे के बिना दोनों अधूरी हैं। भारत में सांप्रदायिकता के अस्तित्व का सबसे बड़ा कारण है, 'धर्म' को संस्कृति से 'रिप्लेस' कर 'संप्रदाय' से उसका तुक मिला देना। यह घाल-मेल ब्रिटिश औपनिवेशिक और पौर्वात्यवादी इतिहासकारों ने बड़ी चालाकी से किया और हमारा बौद्धिक समाज उसे लगातार ढोये जा रहा है। यही कारण है कि एक आम भारतीय (जो मूलतः अ-सांप्रदायिक है) 'धर्म-निरपेक्षता' की अवधारणा को पचा नहीं पता। राजनीतिक शक्तियां इसीका फयदा उठाती हैं। महत्वपूर्ण यह भी है कि 'सांप्रदायिकता' और 'धर्मनिरपेक्षता' दोनों की प्रसव-भूमि शिक्षित मध्यवर्ग ही है, जिसका तेजी से विस्तार हो रहा है और इसलिए हमें भारत में सांप्रदायिकता एक बड़ी समस्या नजर आने लगी है।

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