गुरुवार, 25 मई 2017

मातृ दिवस

                    'मातृ दिवस' इस दुनिया की सबसे सुंदर व्यंग्यात्मक उक्ति है । इस पद को रचने वाला अद्भुत व्यंग्य प्रतिभा का धनी रहा होगा । इस एक पद के लिए उसे साहित्य का नोबल दे दिया जाना चाहिए । मेरी अस्थि, मज्जा और मांस ही नहीं प्राण, आत्मा और बुद्धि सबकुछ जिसका अंश है, उस माँ के लिए बस और बस एक दिन । शायद उसने यह व्यंग्य मुझ जैसी नालायक संतानों के लिए ही रचा है जो अपनी माँ से कोसों दूर रहते हैं और जिनके पास मातृ दिवस फेसबुक पर शेयर करने के लिए माँ की गोद में सिर रखे हुए एक चित्र भी नहीं है, जिससे जाहीर हो सके कि मेरी माँ मुझे कितना प्रेम करती है या मुझे उससे किताना लगाव है । मैं उन अभागे मनुष्यों में हूँ जिन्हें अपनी माँ का साथ बहुत कम मिला और मेरी माँ उन माताओं में जिन्होंने अपने बच्चे के भविष्य के लिए अपनी ममता और इच्छा को भी दबा दिया । उन्होने मेरे भविष्य के लिए बहुत कम वय में मुझे अपने से दूर जाने दिया । तबसे अब तक मैंने अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा माँ से दूर ही रहकर जिया है और अब भी जी रहा हूँ । मैंने बचपन से लेकर आज तक उन्हें केवल दूसरों की जिंदगी जीते ही देखा है, पहले भी और अब भी । अपनी इच्छा, अपना अधिकार और अपना सुख उनके हिस्से कभी आया ही नहीं । वे पहले भी सारे अधिकारों से वंचित थीं और अब भी हैं । वे तब भी डरते सकुचाते बोलती थीं और अब भी । उनकी इच्छाओं का खयाल तब भी किसी को नहीं था और अब भी नहीं है । काश वे अपनी इच्छाएँ कह पातीं तो जरूर कहतीं 'पूरे साल में मेरे नाम पर बस एक दिन बहुत कम है। वह भी, उस देश और समाज में जहां स्वर्ग में जाकर खटिया तोड़ने वाले पितरों को याद के लिए पूरा का पूरा पंद्रह दिन मिलता है ।'


सोमवार, 15 मई 2017

वाया सहारनपुर

सहारनपुर की घटना केवल एक घटना नहीं है, जो बाऊ साहेब और दलितो की लड़ाई से जुड़ी है ; एक पूरा मनोविज्ञान है इसके पीछे । इसे केवल दो जातियों या सवर्ण-अवर्ण या बड़ी जातियों के बर्चस्व की पुनरास्थापना की कोशिश तक सीमित करके देखना उसे एकरेखीय ढंग से देखना है । इन सारी बातों को स्वीकार करते हुए भी उसमें कुछ और बातें जोड़कर देखनी चाहिए; जैसे- आरक्षण को सवर्णविरोधी के रूप में प्रचारित करना, रोजगार के नए क्षेत्रों के विकास और नए पदों के सृजन की उपेक्षा और बेरोजगारी में बेतहाशा वृद्धि, दलितवादी, पिछड़ावादी और आरक्षणवादी बुद्धिजीवियों का लगातार तथा कथित सवर्ण जातियों को कोसना, असंसदीय भाषा का इस्तेमाल करना और सरकार को कोसने के बजाय इन जातियों को कोसना आदि । इन सबका मिला-जुला प्रभाव सामाजिक वैमनस्य का जो बीज बोरहा था, उसकी लहलहाती फसल है सहरनपुर । जो बौद्धिक लोग सहारनपुर को लेकर आज चिंतित हैं (अबौद्धिक होने के बावजूद मैं भी इसमें शामिल हूं ) उन्हें तभी इसके बारे में चिंता करनी चाहिए थी, जब कि वे सामाजिक ताने-बाने को तार-तार करने में जोर-शोर से लगे थे; बजाय सबके समान और समेकित विकास पर जोर देने के, जातिवादी वोट बैंकों में नागरिकों के तब्दील करनेवाली राजनीतिक पार्टियों का विरोध करने के, सरकार पर रोजगार के नए अवसर उत्पन्न करने के लिए दबाव डालने के, जातिगत मतभेदों को बढ़ाने से रोकने और उसे हवा देने वाली ताकतों का विरोध करने के तथा आरक्षण के संबंध में भ्रांतियाँ दूर करने के लिए व्यापक प्रयास करने के । ये तमाम पहलू हैं, जो भारतीय समाज को क्रमशः ज्वालामुखी के मुख-विवर की ओर धकेलते रहे। तब हम सब तमाशाबीन रहे और एकदूसरे खिलाफ खड़े होकर तालियाँ बजाते रहे । संभालना अब भी जरूरी है, अन्यथा समय जवाब नहीं माँगेगा फैसले सुनाएगा और हम सब कटघरे में खड़े या तो बेबस फैसला सुनेंगे या चुपचाप अपने पापों की फंदे पर लटक जाएंगे । समय पंडी जी, बाऊ साहब, यादव जी, मौर्या जी, पटेल जी, या किसी दलित और जनजाति के लिए पालागन करने या आरक्षण देने नहीं आएगा , वह जाति-गोत्र के आधार पर फंदे या कठघरे नहीं तैयार करेगा, वह सबको एक साथ लपेटेगा । तब कोई न कोई तारनहार रहेगा न तमाशाबीन । सब मारे जाएंगे । सहारनपुर उस आपदा की पूर्वसूचना भर है । इसलिए बेहतर हो, सरकार पर समेकित विकास और रोजगार सृजन के लिए सामूहिक प्रयास किए जाएँ, बजाय सिरफुटौवल और आपसी गाली-गलौज में ऊर्जा जाया करने के ।

रविवार, 14 मई 2017

शहादतें सिर्फ सीमाओं नहीं होतीं

शहादतें सिर्फ सीमाओं पर और जंगलों में नहीं होतीं । अपने गावों और घरों में भी होती हैं । भरोसा न हो तो सहारनपुर देख लीजिए । देश में केवल सुकमा और कश्मीर नहीं सहारनपुर भी है । सर्जिकल स्ट्राइक केवल कश्मीर के मोर्चे पर क्यों ? जवाबी कारवाई केवल सुकमा और बस्तर में क्यों ? आपके घरों में क्यों नहीं ? अरे आप तो काँपने लगे, बावु साहेब! मैंने तो केवल बात की आप तो पूरी कारस्तानी कर आए हैं। तब आपके हाथ नहीं काँपे अब आपका पूरा वजूद काँप गया । यही सोच रहे हैं न कि आपके इन कोमल हाथों का प्रतिवाद अगर किसी कठोर हाथों ने दे दिया तो संभाल भी नहीं पाएंगे । फिर किस बात का दंभ है-- देश के गृहमंत्री का या प्रदेश के मुख्यमंत्री का ( आप के गोतिया हैं न दोनों 'रामराज' के भविष्य ?) या अपनी कुलीनता का? माफ कीजिएगा वो आपके लिए कुछ नहीं कर सकते और न आपकी अमानवीय नीचकर्मा 'कुलीनता' । अगर ये सब अकुलीन मिल उठ खड़े हुए तो ... अरे ! आप नाहक सोच में पड़ गए । मैं तो बस सामाजिक और मानसिक सर्जिकल स्ट्राइक की बात कर रहा हूँ। सीमा और सुकमा के शहीदों को सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी । आप जिस मानसिकता में लोगों के घर जलाते हैं, वही मानसिकता सीमा और जंगलों में हमारे सैनिकों को शहीद करती है । जैसे आप ठाकुर और वे दलित हैं, वैसे ही सीमा पार का आदमी यह सोचता है कि वह पाकिस्तानी है और आपके सिपाही भारतीय या सुकमा के माओवादी सोचते हैं कि वे सर्वहारा के लिए संघर्ष कर रहे हैं और सिपाही सत्ता के एजेंट तथा उसकी शक्ति हैं, इसलिए उन्हें नष्ट करना या क्षति पहुंचाना वे अपनी जन्मसिद्ध धिकार मानते हैं । पहले मनुष्य को मनुष्य मानने की तमीज तो पैदा करिए , अन्यथा सहारनपुर तो नहीं रुकेगा, सुकमा और कश्मीर भी नहीं रुकेगा । सब यूं ही चलता रहेगा और आप जैसी आकृति वाले विभिन्न जाति, गोत्र, देश और विचारधारा के लोग यूं ही कटते रहेंगे ।