आज नागपंचमी है। अपने गाँव-घर का साल का पहला त्यौहार। दादी के शब्दों में 'बरिस दिन क दिन' । दादी नहीं हैं, लेकिन इस त्यौहार पर उनसे जुडी यादें अब भी हैं। नगरीय जीवन की व्यस्तताओं और भीड़ - भाड़ में हमारे लिए त्यौहार सिर्फ अवकाशों तक सीमित रह गए हैं । हमारे खाने-पीने के व्यंजनों के रूप भी काफी बदल गए हैं। लेकिन अब भी नाग पंचमी के साथ 'महेर' और 'लट्टा' जैसे ठेठ गंवई व्यंजनों के स्वाद की स्मृतियाँ वैसे ही ताजा हो जाती हैं , जैसे दादी की स्मृतियाँ। मेरी समझ में नागपंचमी भी वैसे ही किसान जीवन का महत्वपूर्ण त्यौहार है, जैसे होली। होली एक फसल-चक्र का अंतिम त्यौहार है और नागपंचमी अगले फसल चक्र का पहला त्यौहार। अन्यथा भारतीय पंचांग के अनुसार तो साल का पहला त्यौहार सतुआन( बैशाखी ) होना चाहिए। वस्तुतः यह किसान-कैलेण्डर का पहला त्यौहार है। इसमें पूजा-पाठ और कर्मकाण्ड की जगह प्रायः कम ही है और वह भी सम्भवतः बाद में जुड़ा होगा। हमारे यहाँ इसे नाग पंचमी के बजाय पचैंय्या के नाम से जाना जाता है। यह अखड़ेबाजों के लिए कुश्ती का त्यौहार है। इस दिन साल में कभी अखाड़े में न जाने वाला ग्रामीण भी अपने शरीर में अखाड़े की धूल मलता है। इसलिए इसका सम्बन्ध आध्यात्मिक से कहीं अधिक इहलौकिक जीवन से ही जुड़ा जान पड़ता है और यह इसके पूर्णतः लोकाश्रित (अपने मूल अर्थ में 'सेक्यूलर') त्यौहार होने के प्रमाण को ही पुष्ट करता है।
सोमवार, 28 सितंबर 2015
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