मंगलवार, 28 फ़रवरी 2023

नवजागरण या धर्म जागरण


धर्म स्वभावगत होता है। इसे मनुष्य ही नहीं, कोई भी जड़-जंगम अपने जन्म के साथ ही धारण करता है और परिस्थिति या समय के साथ उसके भीतर वह और अधिक संपुष्ट होता जाता है। इसीलिए अपने प्राचीन ग्रंथों में संस्कृति की जगह ‘धर्म’ पद ज्यादा उपयुक्त समझा गया। आधुनिक चिंतकों ने धर्म को केवल उसके कर्मकांडगत रूप तक सीमित कर दिया और उसके ‘हीर’ को गढ़-छील कर बाजारू शब्द ‘मूल्य’ में अटा दिया। नतीजा धर्म हर चौराहे पर फूंकने वाला पुतला बन गया और मूल्य हर रेहड़ी-खोमचे पर कौड़ी का तीन माल। बात-बे-बात चौराहे पर खड़ा कर फूंके जाने वाला धर्म उसी तरह निर्जीव है, जिस तरह पुतला निर्जीव होता है और वह धर्म का प्रतिनिधित्व भी उसी तरह करता है, जैसे पुतला किसी का प्रतिनिधित्व करता है। आधुनिक काल में जिसे धर्म कहकर उसपर हमले हुए, वह आचार-पक्ष था। धार्मिक सुधार आंदोलन या जातिगत आंदोलन का धर्म-शोधन या विरोध इस ढांचे पर ही टिका था। इसीलिए किसी ने बहुदेववाद का विरोध करते हुए ‘एकेश्वरवाद’ का रुख किया और यूरोपीय पैटर्न की प्रार्थना सभाएं स्थापित कीं तो किसी ने धर्मांतरण की विजातीय परंपरा को आत्मसात कर शुद्धि के लिए आंदोलन चलाए। कोई उपनिषद की ओर लौट चला तो कोई वेद की ओर। किसी ने मंदिर, विधवा-जीवन और अस्पृश्यता को ही धर्म की पहचान मान लिया और उसके विरोध में जोर-जोर से नारे लगाने को ही धार्मिक जागरण और धार्मिक सुधार मान लिया । हालाँकि इन्होंने धर्म का पल्ला तब भी नहीं छोड़ा। विरले उदाहरणों को छोड़ कर सीधे-सीधे विदेशी ‘धर्म’ का पल्ला प्रायः किसी ने नहीं छोड़ा। यहाँ तक कि ज्योति बा फुले का सत्यशोधक समाज या आंबेडकर का बौद्धान्तरण भी धर्म के भीतर ही आवाजाही थी। ‘धर्म’ से ‘रिलीजन’ की यात्रा माइकेल मधुसूदन दत्त और पंडिता रमा बाई जैसे कुछ अपवादों ने ही की।

 भारतीय जनता ‘धर्म-भीरु’ (धर्म-प्राण?) थी, इसलिए आधुनिक-चेतना में नव दीक्षित भारतीयों का धर्म- मात्र के विरुद्ध खड़ा होना खुद के लिए अस्वीकार्यता का संकट खड़ा करना था। इसलिए उन्हें आयातित ज्ञान को मूल भारतीय चेतना में क्षेपक की तरह डालकर काम चलाना पड़ा। यही उनकी सबसे बड़ी सीमा बनी और इसी लिए कोई भी नवजागरणकालीन ‘सुधारक’ राष्ट्रीय फलक पर नहीं उभर सका अपने क्षेत्रीय और स्थानीय दायरे में ही प्रभावी रहा। आज जिस आंबेडकरवाद की बात की जाती है, उसके प्रेरणा-पुरुष डॉ. आंबेडकर स्वयं एक सुधारक या चिंतक के रूप में अपने समुदाय के बीच भी राष्ट्रीय स्वीकृति नही पा सके थे; बाद में उनके राजनीतिक उत्तराधिकारियों या हितजीवियों ने उनके विचारों को अखिल भारतीय स्तर पर प्रचारित-प्रसारित किया। अतः लगभग समूचा ‘नवजागरण काल’ धर्म के अवमूल्यन और नए क्षेपकों के अंतःप्रवेश का काल है। इस दौर के विचारकों में विवेकानंद और गांधी दो अपवाद हैं। भक्ति आंदोलन ने भारतीय धर्म-साधना को जहां ला खड़ा किया था, ये दोनों उसे अंगुली पकड़ कर आगे ले चलने वाले विचारक थे। गांधी जिस ‘रघुपति राघव राजा राम..’ की बात करते हैं वह रामायण (और राम चरित मानस) के राम हैं और ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम’  में महाभारत की अनुगूँज है। ये दोनों ही दो ऐसे ग्रंथ हैं, जिन्हें साथ रखकर भारतीयता का एक समग्र चित्र उकेरा जा सकता है।


संस्कृति : कर्ता का विधान

 संस्कृति :  कर्ता का विधान


संस्कृति की अनेक अर्थ-छायाएं हैं। इसकी मूर्तन-अमूर्तन, व्यापक-अतिव्यापक, स्थूल-सूक्ष्म अनेक परिभाषाएं की गई हैं। दुनिया का आधुनिक चिंतन जितना अधिक इस एक अवधारणात्मक पद से टकराता रहा है, उतना शायद किसी दूसरे सवाल से नहीं टकराया। और, इन बहसों में तमाम आधुनिक चिंतनों की तरह यहाँ भी केंद्र में रहा है ‘मनुष्य’ ही। चाहे वह इहलौकिक धारणाओं से प्रेरित हो या आध्यात्मिक। परंपरागत भारतीय चिंतन आध्यात्मिक था, अतः उसके लिए संस्कृति की समझ भी आध्यात्मिक थी। यह आम धारणा है जो सही तो है, किन्तु सीमित संदर्भों में ही। कोई भी देश, संस्कृति या व्यक्ति-मात्र एकांतिक रूप से आध्यात्मिक नहीं हो सकता, उसे अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करनी ही होगी। ठीक इसी तरह केवल भौतिक भी नहीं हुआ जा सकता। भौतिकता का अतिरेक व्यभिचारी-स्वैराचारी ही नहीं, बल्कि अनुभूति-शून्य जड़िमा के गड्ढे में धकेलने वाला है। यदि कोई कहता है कि उसे प्रचलित आध्यात्मिक मूल्यों-मान्यताओं में विश्वास नहीं तो यह माना जा सकता है, पर यह नहीं स्वीकार किया जा सकता कि वह अध्यात्म शून्य है। अपनी भौतिक सीमाओं से परे जाकर आत्म-विस्तार ही मनुष्यता की पहली शर्त है। पर, यह उसकी भौतिक जरूरतों से प्रेरित हो यह आवश्यक नहीं है। जब हम संस्कृति की बात करते हैं, तो निश्चित तौर पर मनुष्य को कर्ता मानकर कर चलते हैं, क्योंकि पद की मूल धातु है ‘कृ’ जिसका अर्थ है करना। यहाँ हमें अपने उस पुरनिया को भी जरूर याद करना चाहिए, जिन्होंने ‘ऐतरेय ब्राह्मण’ में संस्कृति का प्रयोग इस रूप में किया है— ‘आत्मानं संस्कृतिर्वावशिल्पानि छंदोमयं वा। एतैर्यजमान आत्मानं संस्कुरुते’। यहाँ संस्कृति, शिल्प, छंदादि का ‘वा’ (या) के साथ अर्थात् वैकल्पिक पद के रूप में प्रयोग हुआ है। अतः छंद शिल्पादि अभ्यास से अर्जित होते हैं, उसी प्रकार संस्कृति भी अभ्यास द्वारा अर्जित होती है। इस दृष्टि से भी मनुष्य कर्ता ही ठहरता है।

घोर नियतिवादी से नियतिवादी व्यक्ति भी स्वयं के कर्तृत्व के प्रति अहं भाव को त्याग नहीं सकता क्योंकि यह सहज मानवीय प्रवृत्ति है । फिर संस्कृति को वह अपने इस अहं से मुक्त भला कैसे रख सकता है ? दुनिया के तमाम देशों के बीच आज संस्कृति के नाम पर जो संघर्ष चल रहे हैं, वे उसकी इसी अहम्मन्यता के परिणाम हैं। परंपरागत भारतीय मन आज भी इस ‘पद’ को उतनी सहजता से स्वीकार नहीं कर पाता, बल्कि इसे राजनीतिक मुहावरे के रूप में लेता है। दुर्भाग्यवश इस पद का राजनीतिकरण भी कुछ ज्यादा ही हुआ। कभी जन-संस्कृति, कभी लोक-संस्कृति तो कभी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर। अब तो इसका सही मेल भी इन राजनीतिक पदावलियों के साथ ही बैठता है। हम जैसे गँवई लोग तो अब भी ‘धरम’ ही ‘निबाहते’ हैं। सुसंस्कृत’ आचरण नहीं करते। शायद इसी लिए हमारी यारी भी संस्कृति से अधिक अपने धरम-करम से है।

शुक्रवार, 1 जनवरी 2021

प्रकाश पर्व

दीपावली मिट्टी का त्यौहार है। मिट्टी में निहित ऊर्जा और ज्योति की अभ्यर्थना का त्यौहार। वह मिट्टी जो हमें रचती है, रस और प्राण देती है। उसकी जीवंतता ही दीपक के प्रकाश में फूट पड़ती है। अन्नकूट उसी माटी से उपजे हुए शक्ति और प्राण देने वाले अन्न की उपासना और गो-वर्धन पूजा धरती की सरस प्रतिरुप गो की अभ्यर्थना का। 
 'द्यु' और 'गो' दोनों ही ज्योति या प्रकाश के वाचक शब्द है। लोक में दीपावली के साथ दिवाली शब्द भी चलता है। वैदिक साहित्य मे पूर्वोक्त दोनों शब्दों के साथ 'दिवा’ का प्रयोग भी प्रकाश के लिए खूब हुआ।