शनिवार, 31 मई 2025

स्वत्व निज भारत गहे का स्वप्न और वासुदेवशरण अग्रवाल

आचार्य वासुदेवशरण अग्रवाल विभिन्न ज्ञानानुशासनों के सम्पुंजित विग्रह हैं। भारतीय धर्म, दर्शन, साहित्य, कला, इतिहास तथा भू-तत्व और लोक-विद्या का जितना गहन अनुशीलन आचार्य अग्रवाल ने किया था, उतना अन्यत्र दुर्लभ है। उनका समूचा रचना-कर्म एक माहाकाव्य है जिसके प्रत्येक स्वर, वर्ण, शब्द, यति, अरोह-अवरोह, छंद और सर्ग में भारतीय मन और चिंतन के उदात्ततम स्वर प्रतिध्वनित होते हैं। भारतीय कला-दर्शन के संबंध में उन्होंने लिंग-मूर्ति या सर्वरूप प्रतिरूप चर्चा की है: “प्रतिरूप एक था रूप अनेक हैं, प्रतिरूप अमृत था. रूप मृत है, प्रतिरूप अपरिवर्तनशील था रूप परिवर्तनशील है। उस एक प्रतिरूप में सब रूपों का अंतर भाव है। गणित के शब्दों में यदि कहना चाहें तो सब अंकों की समष्टि शून्य है। अतएव यह भी चरितार्थ होता है कि जो सब रूपों को अपने में धारण करता है, वह स्वयं अणु है। जो मूलभूत प्रतिरूप है उसे निर्गत सूक्ष्म और स्थूल के नियम सभी काल में एक समान व्याप्त होते हैं। प्रतिरूप के अभिव्यक्ति प्रतीक द्वारा ही की जा सकती है। परंतु सर्वरूपमय प्रतिरूप के अभिव्यक्ति लिंग मूर्ति से ही हो सकती है। भारतीय शिल्पी किसी एक व्यक्ति विशेष का  रूप नहीं बनाता, वह तो समाज में आदर्श के बिम्ब की कल्पना करता है।” स्वयँ उनका रचनात्मक व्यक्तित्व भी कुछ ऐसा ही अनुपम और अपरिमित था, जिसकी छाया-प्रतिच्छाया में भारतीय ज्ञान-परम्परा की अनेकानेक स्थापनाएँ-मान्यतएँ और आदर्श प्रतिभाषित होती हैं।

(1)       

आधुनिक हिंदी का जन्म और विकास  भारतीय नवजागरण की कोख से हुआ। काव्य और कथा की कृतियों से पूर्व आधुनिक हिंदी वैचारिक और सामाजिक-सांस्कृतिक लेखन का माध्यम बन चुकी थी। ब्रजभाषा की सुकुमार कलाई जिन विचारों का भार वहन करने में लचक जाती थी, उसे आधुनिक हिंदी ने संभाल लिया।  आधार भाषा के रूप में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की खड़ी बोली के ताने-बाने पर रची यह भाषा बंगाल से पंजाब और हिमाचल से विदर्भ तक उत्तर-मध्य भारत के समूचे वितान पर मधुमालती की तरफ फैल गई। इसका बड़ा कारण उसकी यह क्षमता ही थी। उस समय के प्रत्येक व्यक्ति, समाज सुधारक, दार्शनिक,  संस्कृति कर्मी की पहली चाहत थी एक ऐसी भाषा जो समूचे भारत को एक स्वर में संबोधित कर सके। जिसका स्वर भारत की चेतना को पुनर्गठित कर एकता दे सके। यह काम न तो तत्कालीन क्षेत्रीय भाषाएं,  आंचलिक बोलियाँ और न पुरानी सरकारी जुबान फारसी या नई सरकारी गवर्निंग लैंग्वेज अंग्रेजी ही कर पा रही थी। इस अपेक्षा को पूरी करने के लिए हिंदी का वर्तमान मानक रूप अपेक्षा और दायित्व के छेनी और हथौडी से ही तराशा गया। मध्यकालीन संत कवियों के बाद भाषा को लेकर पहली बार इतनी छटपटाहट इस दौर में दिखाई देती है। कबीर और उनके समकालीन संत कवियों के समय में अरबी या फारसी इतनी सशक्त नहीं हुई थी, इसलिए भाषा को लेकर कबीर आदि कि बेचैनी का कारण मुख्यतः अभिव्यक्ति थी जबकि नवजागरण के दौर के बौद्धिकों के समकक्ष अंग्रेजी का सर्वग्रासी रूप मुँह बाए खडा था और उनकी भाषा सम्बंधी चिंता अपनी अस्मिता को बचाए रखने की चिंता थी। अपनी एक मुकरी में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अँग्रेजी और अंग्रेजियत की ‘तारीफ’ इन शब्दों में की है:


सब गुरुजन को बुरो बतावै ।


अपनी खिचड़ी अलग पकावै ।


भीतर तत्व न झूठी तेजी ।


क्यों सखि सज्जन नहिं अँगरेजी ।


यह उस भारतीय मेधा के लिए सांस्कृतिक क्षरण के पूर्वाभास की तरह था, जिसकी परंपरा का आदर्श यह रहा हो :


अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।

चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम् ।।


भारतेंदु ने जब यह लिखा कि ‘निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को शूल’ तो उनका अभिप्राय भाषा-ज्ञान के साथ ही साथ भाषा में ज्ञान भी था । इसका प्रमाण उनकी रामायण का समय, काशी, मणिकर्णिका (पुरातत्त्व), कश्मीर कुसुम, बादशाह दर्पण, उदयपुरोदय (इतिहास), संगीत सार और जातीय संगीत (संगीत), तदीय सर्वस्व, वैष्णवता और भारत वर्ष (धर्म) आदि रचनाएँ हैं।


विदेशी भाषा के अधिपत्य के प्रभाव और उससे मुक्ति की चिंता तथा उसके यत्न भारतेंदु के बाद द्विवेदी युगीन लेखकों में भी देखी जा सकती है। नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना और सरस्वती के प्रकाशन के साथ स्वयं आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का चिंतन और लेखन के साथ ‘सरस्वती’ पत्रिका में परिलक्षित उनकी संपादन-दृश्टि इसकी साक्षी है। सरस्वती के जुलाई-अक्टूबर 1915 के अंक में प्रकाशित एक लेख ‘हमारे सामाजिक ह्रास के कुछ कारणों का विचार’ शीर्षक अपने लेख में माधव राव सप्रू ने अंग्रेजी शिक्षा और उसके प्रभाव पर कुछ इस तरह अपना विचार व्यक्त किया है, “विदेशी भाषा और विदेशी शिक्षा के आधिपत्य का परिणाम यह हुआ कि विदेशी हम लोग विदेशी भाषा में लिखते पढ़ते बोलते और विचार करते हैं।  अंग्रेजी भाषा का सार्वत्रिक प्रचार ही हमारी भावी उन्नति के लिए आवश्यक समझा जाता है। हम अपने देश और समाज की दशा का विचार औरों की दृष्टि से किया करते हैं। फल यह हुआ कि पश्चिमी शिक्षा-दीक्षा के रूप में हम लोग अपने आत्मभाव को कम कर डालने वाला और अपने समाज का ह्रास करने वाला काम करते चले जाते हैं और विशेषता यह है कि हम इसी को बुद्धि स्वातंत्र्य, सुधार, सभ्यता और उन्नति मान रहे हैं।...हम लोग विजतीय हो गए हैं।”


आजादी से पूर्व इस तरह की चेतना भारतीय समाज-सुधारकों, संस्कृति-चेतओं, लेखकों आदि में सहज लब्ध थी। दयानंद सरस्वती,  भारतेंदु हरिश्चंद्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, बालकृष्ण भट्ट, माधवराव सप्रे, चंद्र शर्मा ‘गुलेरी’, अध्यापक पूर्ण सिंह पद्म सिंह शर्मा, डॉ. मोती चंद, काशी प्रसाद जायसवाल, आचार्य रामचंद्र शुक्ल,  गणेश शंकर विद्यार्थी प्रभृत लेखकों के संपूर्ण लेखन का यदि एक साथ संग्रह कर उसका विश्लेषण किया जाए तो कोई संदेह नहीं रह जाता कि ‘निज भाषा’ या हिंदी को लेकर उसका उनका ‘विजन’ आज के हिंदी लेखन से कहीं ज्यादा व्यापक था। ऐसा करते हुए यह बार-बार दोहराए जाने की जरूरत होगी कि उनके लिए हिंदी ज्ञान, विचार और विमर्श की भाषा थी; केवल साहित्य भाषा नहीं। जिस निजता अथवा स्वत्व की गूँज यहाँ सुनाई पड़ती है, उसका संदर्भ अपनी भाषा के मार्ग पर खडे होकर ज्ञान-चक्षु खोलने से ही है।  


आजाद भारत में सत्ता के रंगमंच पर अंग्रेजी शिक्षा और अंग्रेजीयत  धमक कमो बेस कायम रही । इसने हिंदी को ज्ञान का  सहज माध्यम बनने से रोका। हिंदी लेखकों की अन्य ज्ञानानुशासनों के प्रति उदासीनता और सहित्येतर लेखन को हिंदी के विमर्श और आलोचना में कम मान देना भी एक बडा कारण रहा। फिर भी,आज हिंदी दुनिया भर में अपने प्रयोक्ताओं के बल पर विश्व भाषा बनने की ओर अग्रसर है तो उसके पीछे उन हिंदी सेवियों,, लेखकों और भाषा-साधकों का योगदान है, जिन्होंने साहित्य-मंडलों और हिंदी की अकादमिक दुनिया में अल्पचर्चित रहकर भी अपने जीवन का संपूर्ण स्नेह हिंदी  की अखंड ज्योति के लिए समर्पित कर दिया।


 (2)       


इस परिदृश्य के बीच आचार्य वासुदेवशरण अग्रवाल की उपस्थिति विशेष महत्त्व रखती है। वे  एक अनूठे ज्ञान साधक थे, जो एक सथ ही अनेक विद्याओं के मर्मज्ञ और अनेक भाषाओं में सम्भ्यस्त थे,। उन्होंने हिंदी और अंग्रेजी दोनों को अपने लेखन का माध्यम बनाया, किंतु उनके लिए किसी लेखक का गौरव उसके ‘पृथ्वी-पुत्र’ होने में है। इसलिए उनके लेखन का एक बडा हिस्सा हिंदी को समर्पित रहा।  जायसी की कृति ‘पद्मावत’ के संजीवनी भाष्य में जायसी को ‘पृथ्वी पुत्र’ मानते हुए उन्होंने लिखा है : “जायसी सच्चे अर्थों में पृथ्वी-पुत्र थे। वे भारतीय जन-मानस के कितने सन्निकट थे, इसकी पूरी कल्पना करना कठिन है। गाँव में रहने वाली जनता का जो मानसिक धरातल है, उसके ज्ञान की जो उपकरण सामग्री है, उसके परिचय का जो क्षितिज है, उसी सीमा के भीतर हर्षित स्वर से कवि ने अपने गान का उँचा स्वर किया है। जनता की उक्तियाँ भावनाएँ और मान्यताएँ मानों स्वयँ छंद में बँधकर उनके काव्य में गुँथ गई हैं।” जनता की उक्तियाँ, मान्यताएँ और जीवन व्यवहार उसकी अपनी भाषा में ही होगी और जायसी ने उसी भाषा में उसे स्वर दिया है । आचार्य अग्रवाल जायसी के प्रति उनके मन में सम्मान और आत्मीयता है। वे जायसी की लोक-संसक्ति और लोक भाषा के प्रति लगाव के कायल हैं। अवध के जनपदीय जीवन से जायसी के लगाव और पद्मावत में उसकी सुन्दर अभिव्यक्ति के साथ ही अवधी भाषा और उसकी लोक वार्ताओं, लोकोक्तियों आदि के सटीक प्रयोग को आचार्य अग्रवाल ने सराहा है। वे इन्हें सहित्य का ज्योतिश्चक्षु मानते हैं। उन्होंने लिखा है “हिंदी भाषा के प्रबंध-काव्यों में जायसी का ‘पद्मावत’ शब्द और अर्थ दोनों दृष्टियों से अनूठा काव्य है । अवधी भाषा का जैसा ठेठ रूप और मार्मिक माधुर्य यहाँ मिलता है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है।” उनकी ये टिप्पणियाँ भाषा संबंधी उनकी मान्यतओं को व्यक्त करती हैं ।



गोस्वामी तुलसीदास अवधी साहित्य के दूसरे प्रतिमान हैं । कालक्रम की दृष्टि से जायसी के परवर्ती होते हुए भी साहित्यिक-सांस्कृतिक महत्त्व की दृष्टि से हिंदी समुदाय में उनसे अधिक लोकप्रिय और लोकप्रतिष्ठित हैं। अग्रवाल जी ने उनकी साहित्यिक-सांस्कृतिक भूमिका को रेखांकित करते हुए लिखा है: चतुर्भुज ब्रह्मा ज्ञान वेदी पर  जिस प्रकार वेद चतुष्टयी का संगम होता है उसी प्रकार धर्म दर्शन साहित्य और पुराण रामचरित मानस में एक साथ मिले हैं । गोस्वामी जी ने जिस ज्ञान-यज्ञ का विधान किया,  उसके मंडप में भारतीय वाङ्मय की समस्त परम्पराएँ अपने विशुद्ध और लोकहितकारी रूप में मिली हैं।  इस मंडप के तोरण पर संगत और समन्वय का संदेश अंकित है ।... तुलसीदास की दूसरी बड़ी प्रतिज्ञा यह है कि  नाना पुराण निगमागम सम्मत विशाल ज्ञान भंडार को तत्कालीन लोक भाषा में बद्ध कर के एक अति सुंदर निबंध के रूप में उसे जनता तक पहुंचाना है।” गोस्वामी जी को उनकी समन्वयशीलता, भक्ति और समजिक मर्यादा तथा लोकमंगल की प्रतिष्ठा की चर्चा हिंदी आलोचना में खूब हुई है। आचार्य अग्रवाल भी उनकी इस भूमिका को रेखांकित करते हैं, किंतु यह भी याद नहीं भूलते कि वे ‘लोक भाषा’ के कवि हैं। गोस्वामी जी जैसा  संस्कृत भाषा का ज्ञाता और प्रयोग-निपुण कवि यदि देववाणी में ऐसी रचना करते तो निस्संदेह उत्कृष्ट होती और तत्कालीन विद्वत् समाज द्वारा प्रशंसित भी, लेकिन भारतीय साहित्य और संस्कृति में उनको वह प्रतिष्ठा नहीं मिलती जो एक लोकभाषा को आधार बनाकर वे पा सके :  “भाषा छंद रस और अर्थ पर अपने असाधारण अधिकार का उपयोग यदि वह संस्कृत काव्य के लिए करते तो संभव यही है कि गोस्वामीजी उसमें भी सफल होते, किंतु उनकी उस सफलता से भी भारतीय साहित्य में एक बड़ा अभाव बना रह जाता जिंस भाषा को भदेस भृत्य कहकर विद्वान उस युग में हँसते रहे होंगे । उसमें यदि तुलसी ने अपने ‘अति मंजुल भाषा निबंध’ की रचना न की होती तो जनता और देश की प्राचीन संस्कृति के बीच में जो गहरी खाई बन गई थी वह पड़ी रह जाती है तुलसीदास का रामचरितमानस व सेतुबंध है जो जनता को और नाना पुराण निगमागम वाले साहित्य को आपस में मिलाता है।“


मध्यकाल के इन दोनों केंद्रीय कवियों की भूमिका को जिस परिप्रेक्ष्य में आचार्य अग्रवाल ने रेखांकित किया है, उसे देखते हुए भाषा के चुनाव और प्रयोग के प्रति उनकी सजगाता का पता चलता है। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता का आचर्य अग्रवाल का हिंदी भाषा में लेखन केवल संयोग या अनायास था। यह सायास और सजग लेखन है। जब आधुनिक ज्ञान के तमाम स्रोत अंग्रेजी भाषा में मौजूद थे और स्वयं अग्रवाल जी उस भाषा में अपने विचरों को व्यक्त करने में कुशल भी थे, तब उनके हिंदी प्रयोग का लक्ष्य हिंदी समाज की इतिहास, परंपरा और अधुनिक ज्ञान तक पहुँच सुनिश्चित करना ही था।  इस दृष्टि से उनकी गणना भारतेंदु हरिश्चंद्र और महवीर प्रसद द्विवेदी के साथ करनी चाहिए। साहित्य, कला, इतिहास, पुरातत्त्व,  सौंदर्यशास्त्र, धर्म, दर्शन, अध्यात्म, लोक, शास्त्र जैसे विभिन्न ज्ञानुशासनों पर उनका लेखन हिंदी के ज्ञान-भंडार को जितना समृद्ध करता है, उतना हिंदी के किसी अन्य लेखक का नहीं, बल्कि उनका यह योगदान हिंदी की अनेक संस्थाओं से भी बडा है।


 आचार्य वासुदेवशरण अग्रवाल भारतीय ऋषि-परम्परा के चिंतक थे। वे ज्ञान की अख़ंड सत्ता में विश्वास करते थे। उनकी अंतर्दृष्टि का विकास धर्म, दर्शन, अध्यात्म, व्याकरण कला, सौंदर्य, भूगोल, खगोल, लोक-विद्या आदि के गहन अनुशीलन से हुआ था। इसलिए भाषा और साहित्य की चर्चा करते हुए भी वे इन्हें साथ लेकर चलते थे। वे साहित्य की उपादेयता कला, मनोरंजन या आस्वाद-मात्र से अधिक मानते थे। भारतीय साहित्यकार विशेषतः हिंदी के साहित्यकार की भूमिका को रेखांकित करते हुए उन्होंने लिखा है, “हिंदी लेखक को सबसे पहले भारत भूमि के भौतिक शरण में जाना चाहिए। राष्ट्र का भौतिक रूप आँख के सामने है। राष्ट्र की भूमि के साथ साक्षात्कार परिचय बढ़ाना आवश्यक है। एक-एक प्रदेश को ले कर वहाँ के पृथ्वी के भौतिक रूप का सांगोपांग अध्ययन  हिंदी लेखकों को बढाना चाहिए।  यह देश बहुत विशाल है।... देश की नदियां वृक्ष और वनस्पति, औषधि और पुष्प, फल और मूल,  ऋण और लताएँ सब पृथ्वी पुत्र हैं। लेखक उनका सहोदर है।“ प्रकृति के प्रति उनका यह राग भारतीय लोक-मानस और आर्ष-चित्त का समन्वित उत्तरधिकार है। उन्होंने आगे लिखा है, “भारत के साहित्यकार विशेषतः हिंदी के साहित्य मनीषियों को चाहिए कि इस नवीन दृष्टिकोण को अपनाकर साहित्य के उज्ज्वल भविष्य का साक्षात दर्शन करें। दर्शन ही ऋषित्व है। ऋषियों साधना के बिना राष्ट्र या उसके साहित्य का जन्म नहीं होता।“ इन पंक्तियों को पढते हुए पाठक को ‘पृथ्वी सूक्त’ की अनुगूँज सुनाई पड सकती है, जो सहज है। आचार्य अग्रवाल पर इसका गहरा प्रभाव था। साहित्य और कला के प्रति उनकी दृष्टि तथा धरती के सौंदर्य के प्रति उनका अनुपम राग उत्तराधिकार में उन्हें यहीं से मिला था।


मातृभूमि के प्रति उनके अनुराग की बानगी , उनके मातृभूमि शीर्षक निबंध में देखी जा सकती है. “जिसके भाल पर कश्मीर-जन्मा कुसुम केसर तिलक है, जिसके पर जह्न तनया की एकावली है, जिनके चरणों में भक्तिभाव से अनवरत सिंहल प्रणाम करता है, जिसके चरणामृत का महोदधि नियमित पान करते हैं— उस माता के स्वरूप को जानने की किसे इच्छा न होगी? जिसके रक्षक स्वयं शैल राज हिमवंत हैं,  जहाँ सरस्वती की शाश्वत धारा प्रवाहित है, जहाँ सिंधु और ब्रहृमपुत्र शैलराज के अमृत संदेश को अगाध सागर के समीप मंत्रणा के लिए ले जाते  हैं, जहाँ मरुस्थल और दंडकारण्य जैसे विशिष्ट प्रदेश हैं— वह भूमि किस नाम से विश्रुत है?” यहाँ उनकी  चित्रण शैली की विलक्षणता देखी जा सकती है, जो निर्विवाद रूप से साहित्यिक है। संस्कृत साहित्य की की इसपर गहरी छाप है और इसे हिंदी के ललित भंगिमा वाले निबंधों के साथ रखकर पढा जा सकता है। उनके अन्य निबंधों में भी भाषा अत्यंत सरस और सहित्यिक है। अपने गद्य में चित्र-भाषा का प्रयोग भी उन्होंने खूब किया है। इनमें उनकी रुचि और सहित्यनुराग भी परिलक्षित होते हैं।


राष्ट्रीयता और संस्कृति को साहित्य के अनुशीलन और मूल्यांकन को कसौटी मानना आचार्य अग्रवाल की साहित्य-दृष्टि की विशिष्टता कही जा सकती है। वे अपने सभी प्रिय रचनकारों को इस कसौटी पर जरूर कसते हैं। वाल्मीकि और तुलसीदास ही नहीं, वेदव्यास और कालिदास भी उनकी दृष्टि में यदि श्रेष्ठ कवि हैं तो अन्य तमाम विशिष्टताओं के साथ अपनी राष्ट्रीय और सांस्कृतिक भूमिका के कारण। महर्षि वेदव्यास के संबंध में उनकी मान्यता है कि “हमारे राष्ट्रीय अभ्युत्थान के लिए ‘महाभारत का विशेष महत्व है.... वेदव्यास जिस भारत राष्ट्र की उपासना करते थे, भविष्य का प्रत्येक हिंदू उसका स्वप्न देखेगा।” इसी तरह कालिदास के ‘रघुवंशम्’ महाकाव्य को उनका ‘राष्ट्रीय वैभव और आदर्शों का काव्य’ तथा उनकी कविता को ‘भारतीय संस्कृति की त्रिपथा गंगा’ कहना भी राष्ट्र और संस्कृति के प्रति उनके अनन्य राग का प्रमाण है।  उनका राष्ट्र-बोध और सांस्कृतिक चेतना लोकानुरागी है। उनकी मान्यता थी कि “वही साहित्य लोक में चिर जीवन पा सकता है जिसकी जड़ें दूर तक पृथ्वी में गईं हैं। जो साहित्य लोक की भूमि के साथ नहीं जुड़ा, वह मुरझाकर सूख जाता है।” ‘महर्षि बाल्मीकि’, ‘महर्षि व्यास’, ‘महाकवि कालिदास’, ‘पाणिनि’, ‘तुलसी दास’, सूर दास, जायसी संबंधी उनका लेखन तथा ‘पाणिनिकालीन भारतवर्ष, ‘बाणभट्ट एक सांस्कृतिक अध्ययन’, हर्ष चरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन’, मेघदूत : एक अध्ययन, ‘भारत-सवित्री’, ‘कीर्तिलता : संजीवनी भाष्य’ ‘पद्वात: संजीवनी भाष्य’ उनकी राष्ट्रीय और सांस्कृतिक चेतना के साथ ही साहित्य-विवेक और ‘सहृदयता’ के साक्षी हैं।


अग्रवाल जी आधुनिक काल में भारतीयता के सम्भवतः पहले देशज सर्वांग भाष्यकार थे। पहले और देशज इसलिए कि वे भारतीयता के आत्म-तत्त्व के अन्वेषण में वेद-शास्त्रादि के अनुशीलन और अनुभावन के साथ ही लोक-मानस, लोक-धर्म, लोक-कला तथा लोक-जीवन को भी साथ-साथ लेकर चले और इन्हें ‘कल्प-वृक्ष’ की संज्ञा दी। उनसे पूर्व भारतीयता की आधुनिक समझ का एक बड़ा हिस्सा पाश्चत्य इतिहास दृष्टि और संकृति-बोध से प्रेरित या प्रभावित था।  अध्येताओं ने वेद तथा धर्मशास्त्रीय ग्रंथों के मैक्समूलर आदि पश्चात्य विद्वानों द्वारा किये गए अनुवादों के आधार पर भारत की एक पाश्चात्य मूर्ति रची और फिर उसमें भारतीय संस्कृति की प्राण-प्रतिष्ठा के प्रयास किये। इसीलिए कुछ अध्येताओं को यह संस्कृति ‘आश्चर्यजनक’, ‘बेमेल’ या ‘अजायबघर’ सी जान पड़ती है। आचार्य अग्रवाल इनसे अलग इस अर्थ में हैं कि वे किसी पूर्वमान्यता के आधार पर साधारण प्रतिज्ञा के साथ नहीं चलते और न ही उसे सिद्ध करने की जिद करते हैं । उनका अध्ययन जन-जनपद-राष्ट्र के उत्तरोत्तर क्रम में आगे बढ़ता है और उनकी परस्पर अन्विति तथा अंतःसंबंधों की व्याख्या कर हमें भारतीय संस्कृति को पहचानने की आँख देता है।


आधुनिक शिक्षा द्वारा आरोपित औपनिवेशिक इतिहास दृष्टि जहाँ भारत की एक राष्ट्र के रूप में उपस्थिति के नकार और भारतीय संस्कृति के प्रति तिरस्कार की दृष्टि या दया की दृष्टि से देखने को प्रेरित कर रही थी, वहाँ आचार्य अग्रवाल उसके औदात्य को अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी समाज के सामने ला रहे थे। वे उपनिवेशवाद द्वारा अरो पित अंतरराष्ट्रीयता के समानांतर जनपदीय दृष्टि से भारत के अध्ययन की प्रस्तावना रच रहे थे। उनके ऐतिहसिक सांस्कृतिक अध्ययन की साधारण प्रतिज्ञा ही है कि “भूमि, भूमि पर बसने वाला जन और जन की संस्कृति, इन तीनों के सम्मिलन से राष्ट्र का स्वरूप बनता है।” और भारत ! आचार्य अग्रवाल के अनुसार, “भारत जनपदों का देश है।“ इसलिए भारत के राष्ट्र और संकृति के स्वरूप को उसके जनपदीय जीवन की समझ  और उससे तादात्म्य के बिना नहीं समझा जा सकता। लेकिन दुर्भाग्यवश “पिछले दो सौ वर्षों में जनपदीय जीवन पर चारों ओर से लाचारी के बादल छा गए और उनके जीवन के सब स्रोत रुंध गए। अब फिर से जनपदों के उत्थान का युग आया  है। देश के महान कंठ आज जनपदों की महिमा का गान करने के लिए खुले हैं। देश के राजनीतिक संघर्ष में ग्रामों और जनपदों को आत्मसम्मान आत्मप्रतिष्ठा और आत्म महिमा के भाव से भर दिया है।”


वासुदेव जी ने भारत की समझ के लिए जिस जनपदीय अध्ययन की आँख की चर्चा की है, उसकी ‘ज्योति भाषा है’। किसी भाषा-शास्त्री के लिए जनपदीय अध्ययन कल्प-वृक्ष या कामधेनु की तरह है। इसीलिए उन्होंने उक्त विषय पर लिखी गई अपनी पुस्तक का नामकरण भी ‘कल्प-वृक्ष’ ही किया है। इस दृष्टि से वे हिंदी और उसकी बोलियों के अध्ययन को महत्वपूर्ण मानते थे। हिंदी विकास और व्युत्पत्ति में ग्रियर्सन की तरह संस्कृत की भूमिका को सारा महत्व देने की तुलना में वे जनपदीय बोलियों की भूमिका को भी अत्यंत महत्वपूर्ण मानते हैं, “हिंदी भाषा के शब्द निरुक्ति के लिए हमें जनपदीय बोलियों के कोषों का सर्वप्रथम निर्माण करना होगा बोलियों में शब्दों के उच्चारण और रूप जाने बिना शब्द की व्युत्पत्ति का पूरा पेटा नहीं भरा जा सकता।  बोलियों की छानबीन होने के उपरान्त कई लाभ होने की संभावना है । प्रथम तो इन कोषों में हमारे प्रादेशिक जीवन का पूरा ब्योरा आ जाएगा, दूसरे शब्द नामक ज्योति जीवन के अंधेरे कोठों को प्रकाश से भर देगी और तीसरे जनपदों के बहुमुखी जीवन के शब्दों को पाकर हमारे साहित्यिक वर्णना शक्ति विस्तार को प्राप्त होगी। इन बोलियों की लोकोक्तियों के संग्रह पर उनका बल था । उनकी मान्यता थी कि ‘लोकोक्तियों के रूप में समस्त जाति की आत्मा एक बिंदु या कूट पर संचित होकर प्रकट हो जाती है।”


 जिस समय आचार्य अग्रवाल हिंदी और उसकी बोलियों का अध्ययन समाज भाषा विज्ञान या तुलनात्मक भाषा विज्ञान की दृष्टि से करने की पहल कर रहे थे, तब हिंदी के अकादेमिक परिवेश में ये पद्धतियाँ सामान्य चलन में नहीं थीं। वे भारतीय शिक्षा पद्धति में इन लोकोक्तियों को शामिल करने के हिमायती थे, क्योंकि ये संस्कृति और भाषा की तरह ही लोक-जीवन के व्यवहार के लिए भी अत्यंत उपयोगी हैं; “जनपदीय चक्षुष्मत्ता साहित्यिक का ही नहीं प्रत्येक मनुष्य का भूषण है उसकी वृद्धि जीवन की आवश्यकता के साथ जुडी है।”


आचार्य अग्रवाल मूलतः इतिहास और कला के अध्येता थे। उनके अनेक आलेख, शोध पत्र और ग्रंथ हिंदी भाषा में रचे गए। जबकि भारतीय भाषाओं में इस तरह के ज्ञान के प्राथमिक स्रोतों का अभाव था और हिंदी का सामान्य पाठक वर्ग उपनिवेशी इतिहासकारों की पुस्तकों का अनुवाद पढकर अपने देश और संस्कृति के बारे में राय तय करने लगा था, तब उनकी यह भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण थी। ऐतिहासिक और पुरात्त्विक साक्ष्यों के साथ साथ उन्होंने साहित्यिक ग्रंथों को भी अपने अनुसंधान का आधार बनाया, मार्कंडेय पुराण: एक सांस्कृतिक अध्ययन, पणिनि की ‘अष्टाध्यायी’ के आधार पर ‘पाणिनिकालीन भारतवर्ष’, बाणबट्ट की ‘कादम्बरी’ और ‘हर्ष चरित’ का सांस्कृतिक अध्ययन और महाभारत आधारित भारत-सावित्री इस तरह के अनूठे और अनुकरणीय उदाहरण हैं। ऐसा करते हुए उन्होंने हिंदी के ज्ञान क्षितिज का विस्तार किया और ‘पृथ्वी सूक्त : एक अध्ययन’, ‘उरुज्योति’, ‘वेद्विद्या’, ‘वेदरश्मि’, ‘भारतीय कला’, पृथ्वीपुत्र, कल्पवृक्ष, चक्रध्वज, पृथ्वीपुत्र, वाग्धारा, कला और संस्कृति, भारत की मौलिक एकता, प्राचीन भारतीय लोकधर्म आदि नक्षत्रों के माध्यम से उसे प्रकाशित किया।  


 


संदर्भ ग्रंथ :


1.   अग्रवाल, वासुदेव शरण, कल्प-वृक्ष, साहित्य सदन, इलाहाबाद, 1952


2.   अग्रवाल, वासुदेव शरण, भारत सावित्री, सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली, 1964


3.   अग्रवाल, वासुदेव शरण, पाणिनिकालीन भारत वर्ष, चौखंभा विद्याभवन, वाराणसी,


4.   अग्रवाल, वासुदेव शरण, हर्ष चरित: एक सांस्कृतिक अध्ययन, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना, 1953


5.   अग्रवाल, वासुदेव शरण, भारतीय कला, पृथ्वी प्रकशन, वाराणसी, 1966


6.   अग्रवाल, वासुदेव शरण, पृथ्वी-पुत्र, सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली, 1960


7.   अग्रवाल, वासुदेव शरण, पद्मावत्, संजीवनी भाष्य, साहित्य सदन, चिरर्गाँव,झाँसी, 1956


8.   त्रिपाठी, आचार्य राममूर्ति, वासुदेव शरण अग्रवाल, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, 2009


9.   पांडेय, मैनेजर (सं.), माधवराव सप्रे :संकलित निबंध, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, 2009


10. वात्स्यायन, कपिला (सं), वासुदेव शरण अग्रवाल रचना संचयन, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, 2012


11. शुक्ल, हनुमानप्रसाद (सं.), राष्ट्र धर्म और संस्कृति, प्रभात प्रकशन, नई दिल्ली-2023

  • विश्व हिन्दी पत्रिका, मारिशस 2024 में प्रकाशित  

सोमवार, 30 दिसंबर 2024

निषाद बांसुरी

कुबेरनाथ राय  


सप्तमी का चाँद का कब का डूब चुका है। आधी रात हो गयी है। सारा वातावरण ऐसा निरंग-निर्जन पड़ गया है गोया यह शुक्ला सप्तमी न होकर शुद्ध नए-चंद्र निशा हो। अभी-अभी हमारी नाव 'झिझिरी' अर्थात नौका-विहार खेलकर लौटी है। नाव को तट से बाँधकर चंदर भाई फिर ‘गलई’ अर्थात् इसके अग्रभाग पर आ विराजते हैं और प्रस्ताव करते है- “यार, अब सोने कौन जाए? पहर-डेढ़ पहर जो रात बची है, बातें करते-करते काट देंगे। पर चार-पाँच वर्षों से जब मैं घर आता हूँ तो एक पूरी संध्या और उससे जुड़ी हुई रात्रि अपने बाल-सखा चंदर माझी को समर्पित करता हूँ। अपनी प्यारी नदी के सान्निध्य में जिसकी सेवा वे जन्म से ही बड़े मनोयोगपूर्वक कर रहे हैं, मैं इनका आतिथ्य ग्रहण कर कृतकृत्य होता हूँ और ये मुझे नौका नयन के दो-चार गीत सुनाते हैं, और सबमें बढ़कर चंद्रविगलित ज्योत्स्ना में नदी के एकांत वक्ष पर ‘झिझिरी’ खेलने का अवसर देते हैं, तब मेरा आदिम निषाद-मन मुझे कुछ क्षणों के लिए पुनः इस जन्म में भी मिल जाता है। मेरा विश्वास है, और मैं इस 'विश्वासं अप्रमेंयम्' अर्थात प्रमाण-अप्रमाण के द्वंद्व से परे का विश्वास मानकर बैठा हूँ, कि किसी जन्म में मैं गंगातीरी निषाद अवश्य था अन्यथा इस नदी के प्रति इतनी मोह-माया, इसमें इतना माँ जैसा भरोसा और बल क्यों अनुभव करता! नदी के प्रति आसक्ति ही शायद यह कारण है कि यह अंगूठियाँकेशी, गठीला बदन, निरक्षर निषाद युवक मेरा इतना घनिष्ठ हो उठा है।

यों भी चंदर है बादशाही तबियतवाले। बात के धनी, मन से उदार और विपत्ति में घोर साहसी। हाथ में अंकारी रहने पर जल या थल के किसी श्वापद का सामना करने को तैयार। गत वर्ष, ब्याहने गये एक को, पर लौटे दो के साथ और दोनो बहुओं का क्या ही कवित्वपूर्ण नाम रखा है 'रूपसी' और 'पियासी', जो गंगा की धारा में पायी जानेवाली दो तरह की मछलियों के नाम हैं। कहते हैं कि बेटे का नाम रखेंगे रोहित। ऐसे 'मन को बड़ो महीप' के साथ मेरी दोस्ती न होना ही अस्वाभाविक होता। मुझे लगता है मीन-मिथुन-जैसी दो बहुओं के बीच वे एक पद्मफूल हैं।


आज मैं घंटों नौका विहार कर के भी, चंदर भाई के साथ, थकावट नहीं महसूस कर रहा हूँ। इस सुनसान निरंग-निर्जन में वे अपने पुरुष कंठ से सीधी नदी को जगाने के लिए एक पुराने गान की आवृत्ति करते हैं। इस निचाट स्तब्धता में यह गान किसी अपदेवता के कंठस्वर-जैसा सुनाई पड़ता है और मैं एकाध बार चंदर को अँधेरे में भी देखने की चेष्टा करता हूँ कि चंदर ही हैं न! क्योंकि इस क्षण में और इस जगह पर क्या ठिकाना कब क्या हो जाए! पास में ही मुर्दाघाट है। आख़िर रात तो इन्हीं रात्रिचरों के हिस्से में है। हमारे हिस्से में तो दिन है, जिसमें ये सब चुपचाप अदृश्य या निश्चल रहते हैं। पर जैसे-जैसे रात भीगती जाती है, श्वापद-आरण्यक, पेड़-पल्लव, घाट-बाट, भूत-प्रेत सभी धीरे-धीरे जग जाते हैं और उस समय वे या तो काना-फूसी करते हैं अथवा निःशब्द एवं क्रूर आहार-विहार। यदि ऐसे में कोई हँसे, कोई गान गाये, कोई इनके एकांत में ख़लल डाले तो फ़िर ये भी उसे दंडित कर सकते हैं। मैं डोंगी के चौड़े तख़्ते पर लेटा हूँ और चंदर 'गलई' पर बैठे-बैठे गान भरपूर खुले कंठ से गा रहे हैं। सुनते हुए मुझे लगता है कि हम दोनों बंधु किसी भी भूत-प्रेत से कम नहीं।

गंगा मैया,


कोई जे सोवेला रन बन,

कोई जे बेइलिया बने हो!


कोई जे सोवेला बलुआ के रेतवा

त' तोहरे सरन धइले हो!


गंगा मैया,

राजा जे सोवेला रन बन,


रानी बेइलिया बने हो!

मलहा त’ सोवेला बालू क रेतवा,


त’ तोहरे सरन धइले हो!”

निषाद प्रार्थना कर रहा है : ओ माता, ओ गंगा मैया, सोयी हो या जागी हो? ज़रा उठो देखो, मेरी बोझी हुई नाव, मेरी ‘बरधी’ इस बालू के रेत में अटक गयी है। माँ, मैं तुम्हारी शरण में नित्य रहने वाला निषाद हूँ। तुम्हारा ही आश्रय गहकर चलता हूँ। ओ माँ, राजा तो रणभूमि में शिविर में सोता है, रानी महँ-महँ सुवासित बेला-वन में सोती है, पर मैं दीन निषाद तुम्हारे तट की बालूमयी रेती पर सोता हूँ और तुम्हारे बल पर निर्भर रहता हूँ। आज मेरी नौका ‘चोर बालू’ में फँसी है और बालू नाग की तरह कुंडली मारकर नाव को भीतर खींचता जा रहा है। माँ, अब मैं गया! जगी हो या सोयी हो जल्दी उठो। मैं, मेरी नाव, नाव पर लदा सार्थ, सब तुम्हारी शरण में।” नदी रात-भर श्वापदों और आरण्यकों को पानी पिलाती रही है। अभी-अभी सोयी है। अभी वह कच्ची नींद या ‘बालिका नींद’ में है। उसकी ‘बारी नींद’ में निषाद का करुण आह्वान ख़लल डाल रहा है। पर नदी को जगना ही पड़ता है। नदी के बिना, नदी के आशीर्वाद मात्र से बाहु-विक्रम से कोई पार नहीं पा सकता। इसी से निषाद कातर कंठ से प्रार्थना कर रहा है : माँ, जल्दी कर, अब भरोसा टूट रहा है। नदी की ‘बारी’ नींद टूट जाती है और वह आँख मलती उठती है, पहचानती है कि यह और कोई नहीं उसकी बालू पर आजन्म खेलने-खानेवाली उसकी प्यारी संतान ही है। नदी उठकर भरमुँह, कंठ खोलकर, आशीष देती है, नखशिख-रक्षा कवच देती है और साथ ही नाव के अंदर वेग भरती है। इस प्रकार कर्त्तव्य का, कर्म का भार लादे हुए वह नाव धर्म के घाट जा लगती है जो सबसे सुरक्षित घाट है और सार्थ सुरक्षित पार उतर जाता है।


स्तब्ध निचाट रात में मानव कंठ का ऐसा मुक्त प्रार्थना-संगीत निश्चय ही क्रुद्ध रात्रिचरों को, कपटी कामरूपी अपदेवताओं को और साँप-जैसी फण काढ़े वन्या की क्रुद्ध लहरों को, सब कुछ को, अपने वशीकरण से बाँध सकता है, ऐसा अनुभव करते-करते मैं इस गान को सुन रहा था, और बिना दाद या प्रशंसा की प्रतीक्षा किए हुए चंदर एक गीत के बाद दूसरा गीत उठाते जा रहे थे। लगातार पाँच गीत मैं सुनता रहा, एक से एक अपूर्व। अंतिम गीत का भाव कुछ इस प्रकार था : ओ नदी, ओ माता! मेरी नाव पूरब देश से धीमे-धीमे लौट रही है। यह नाव तुम्हारी पूजा के लिए रँगी हुई पियरी से बोझी है, तिरंगी चुनरी से बोझी है, इसे धीमे-धीमे निर्भय चलने का आशीर्वाद दो। ओ माँ, यह नाव तुम्हारे शृंगार के लिए हार-फूल से बोझी है, जवाकुसुम और कनेर से बोझी है, तुम्हारी सात पुष्पांजलियों के लिए इस पर केले के पत्तों पर शेफाली के फूल लदे हैं, इसे धीमे-धीमे निर्भय चलने का आशीर्वाद दो। ओ माँ, इस नाव पर तुम्हारी माँग के लिए सिंदूर और श्रीअंगों के लिए हल्दी बोझी गयी है। इसे धीमे-धीमे निर्भय चलने का आशीर्वाद दो। ओ माँ, यह नाव तुम्हारे चरणों पर अर्घ्यधार गिराने के लिए लौंग-मधु और दूध के सात घटों से बोझी है। इसे धीमे-धीमे निर्भय चलने का आशीर्वाद दो।

गान के अंतिम भाग में नदी अपने निषाद-शिशु की बात सुनकर भरमुँह अर्थात मुक्तकंठ कलकल ध्वनि से आशीर्वाद देती है : ओ निषाद, जैसे मेरे जल को कोई काटकर दो टुकड़े नहीं कर सकता वैसे ही तू भी अखंड-अच्छेद्य है। और जब तक मैं हूँ, जब तक मेरी धारा है, तब तक तू भी वर्तमान है। गीत सुनकर मुझे लगा कि यह नदी हाथ उठाकर कुछ और भी कह रही है जिसे चंदर सुनते हैं, पर समझ नहीं पाते हैं, परंतु मैं खूब समझ रहा हूँ। मुझे लगा कि नदी कह रही है कि ओ निषाद, तेरी संस्कृति, तेरे संस्कार, तेरा मन, सब कुछ इस जल की तरह है, जो टूटता नहीं, कटता नहीं, भले ही दब जाता है और आकृति बदल लेता है, पर अस्तित्वहीन नहीं होता है- यहाँ तक कि सूख जाने पर भी या तो अंतःसलिला का अंग बन जाता है या उड़कर मेघ बनकर पुनः लौटता है। भारतीय धरती के आदि-मालिक निषाद ही थे। भारतीय भाषाओं में मूल संज्ञाएँ, भारतीय कृषि के मूल और आदिम तरीके और भारतीय मन के आदिम संस्कार उन्हीं की देन हैं।


इस अर्थ में निषाद-द्रविड़-आर्य-किरात इन चारों महाकुलों में निषाद ही अग्रज हैं। परंतु मध्य प्रदेश आदि कुछ क्षेत्रों को छोड़कर इसका इतना घोर आर्यीकरण हो चुका है कि आज यह पहचाना नहीं जा सकता। ऊपर-ऊपर से यह स्वयं निषादत्व खोकर आर्य हो चुका है, पर भीतर-भीतर तथाकथित भारतीय आर्य का अंग विश्लेषण करें तो पता चलता है कि इस महानायक की रचना द्रविड़ संस्कृति करती है, अस्थि धर्म की रचना में किरात-संस्कृति की रंग-बिरंगी बनावट है और इसके मनोमय कोषों की रचना आर्य-सरस्वती करती है। चंदर के अंदर तो निषाद-संस्कार ही हैं, वह तो गंगातीरी निषादों की सातों आर्यीकृत ‘कुरियों’ में से एक से संबंधित ही हैं, जिन्हें रामचंद्र ने पावन कर दिया था। परंतु यह मैं जो अपनी ‘स्वधा’ को 'वत्स-भुगु-यमदग्नि-च्यवन-आप्नवान' के पंचप्रवर में जोड़ता हूँ मैं भी इस आदिम निषाद से वंचित नहीं हूँ। मेरे संस्कार प्रवाह में भी यह बैठा है। मेरी भाषा, मेरे भोजन-पान, मेरी खेतीबाड़ी-हरबा-हथियार के मध्य वह कृष्णकाय आदिम निषाद अपने को व्यक्त कर रहा है, जिसने विश्व में सर्वप्रथम इसी गंगा घाटी में धान-चावल का आविष्कार किया था, भैंस को दुधारू बनाया था, जड़ी-बूटियों और फलों को पहचाना था और उन्हें नाम दिया था तथा खेती के औजारों को गढ़ा था। चंदर भाई के गुरु रामदेवाजी के मुँह से मैं निषाद कुल की गरिमा की अनेक ऊल-जलूल बातों को सुनता आ रहा हूँ  और आश्चर्य होता है कि कभी-कभी उन बातों का आधुनिक भाषाविज्ञान और पुरातत्त्व से अजब सटीक बैठ जाता है।

चंदर मुझसे अकसर कहा करते हैं : “अरे हम लोग ज़रा काले हैं, नहीं तो आप लोगों से नीच थोड़े हैं!...” और प्रमाण न पूछने पर भी रामदेवाजी की अपूर्व ऊल-जलूल थ्योरी का संदर्भ तुरंत देते हैं, जिसे सुनकर मैं भौचक्का रह जाता हूँ। तर्क करने जाऊँगा तो चंदर डपटकर कहंगे- “अरे गोसाईं जी को पढ़ो गोसाईंजी को! है न? ‘तुलसी सुनि केवट के वर बैन हँसे प्रभु जानकि ओर हहा है।’ सोचो जरा, प्रभु जानकी की ओर देखकर क्यों हँसे! क्यों न लक्ष्मण की ओर देखकर हँसे? बोलो?” और भाई, गोसाईंजी बड़े सावधान लेखक थे। उनके एक-एक ‘लफ़्ज़’ का भी मतलब है, बेमतलब तो उन्होंने कहा ही नहीं है। यहाँ पर मतलब यह है कि और तब गुरु रामदेवाजी की शैली में तर्जनी नचाते हुए चंदर भाई तौल-तौलकर शब्दों की चोट करते हैं, “मतलब यह कि रामचंद्र जी सीताजी की ओर इशारा कर रहे हैं, कि यह निषाद तो समवर्ण का है, अतः कहीं पाँव धोने के हठ के बहाने कन्यादान करने का उपक्रम तो नहीं कर रहा है? पर इस गूढ़ भाव को सबके सामने कैसे कहें! इसी से सीता की ओर नज़र मारकर हँस देते हैं।” मुझे स्मरण है कि जिस दिन प्रथम बार इस थ्योरी से परिचित हुआ था, उस दिन अपनी सारी पढ़ी हुई विद्या को धिक्कारता हुआ घर लौटा था।


पहली बार यह बात ऊटपटाँग अवश्य लगी थी। परंतु कालांतर में भारत की मौलिक जातियों के संबंध में श्री बी.एस. गुहा, डॉ. सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या और डॉ. हटन आदि के प्रबंधों को पढ़ने पर मुझे लगा कि इक्ष्वाकुओं और निषादों की कुल परंपरा के संदर्भ में यह थ्योरी अक्षरशः सत्य भले ही न हो, परंतु यह सारी बात बिल्कुल वृषभदुग्ध या शश-शृंग-जैसी भित्तिहीन नहीं। आधुनिक पंडितों का विचार है कि रामायण कि मिथक निषादकल्पना से प्रसूत है।

निषाद वृषाकपि देवों और अपदेवताओं को पूजने वाली जाति है। वैदिक आर्यों में अवतारवाद स्वीकृत ज्ञात होता है, परंतु अत्यंत हलके तौर पर। 'त्रिविक्रम विष्णु' या 'गोपा विष्णु' के उल्लेख अवतार के द्योतक न होकर देवता के बहुरूपी रूपांतर के द्योतक हो सकते हैं। देवता प्रेममय है और हमारे त्राण के लिए वह 'माया वपु' धारण करता है, इस तथ्य का दृढ़ आधार वैदिक मंत्रों में नहीं मिलता है। इसी से आधुनिक विद्वानों की कल्पना है कि भारतीय संस्कारों में अवतारवाद का प्रवेश निषादों-जैसी आनंदवादी और द्रविड़ों-जैसी भाववादी जातियों की कल्पना का दान है।


इस संदर्भ में स्मरण रखने की बात यह है कि रामायण की मिथक को प्रधान संपादक वाल्मीकि की छंद सरस्वती का जागरण एक निषाद द्वारा किये गयें क्रौंचवध के फलस्वरूप ही संभव हुआ था। पूरी रामायण की कथा भले ही निषाद-कल्पित न हो, परंतु उसके ताने-बाने में कुछ प्रसंग और कुछ विश्वास तो अवश्य ही ऐसे हैं जो निषादों में प्रचलित रहे होंगे। संभवतः वाल्मीकि के समय निषादों में किसी उनके ही रंग के अनुरूप “नील सरोरुह श्याम तरुण अरुण वारिज नयन” देवता की कल्पना एवं उसके महा अवतरण में विश्वास प्रचलित रहा होगा, जो आकर इन निषादों को पाप-ताप से मुक्त करके गले लगाएगा और पंक्ति-पावन कर देगा।

किसी चरम देवता अथवा परम पुरुष के अवतरण की प्रतीक्षा बहुत काल से निषाद जाति कर रही थी। किसी ‘दूर्वादलश्यामं’ देवता के आगमन की, उसके द्वारा महिमा-मंडित और पुण्यशाली बनाये जाने की कल्पना पुरुष प्रति पुरुष निषाद जाति करती आ रही थी, और इसी बीज में इक्ष्वाकुओं के आर्यकुल में एक प्रतापशाली राजपुरुष का जन्म हुआ, और उसके शील-स्नेह और चरित्र में तथा शताब्दियों प्रतीक्षित देव कल्पना में साम्य दिखाई पड़ा, और इक्ष्वाकुवंशीय कुमार को, उसके अलौकिक कर्म को, अपने महादेवता के अवतरण के रूप में देखा। ऐसा होना असंभव नहीं।


परंपरा के अनुसार वाल्मीकि ने जब राम को अपने महाकाव्य का नायक चुना, तो उनकी प्रजा में उक्त निषाद-विश्वास निरंतर सक्रिय रहा और उन्होंने गौरवपूर्ण आर्यवीय कुमार को दूर्वादल श्याम एवं नीलोत्पल श्याम रूप में देखा, तथा कथा के अंदर वृषाकपियों का प्रसंग लाकर निषाद-कल्पना को पुनः नया संस्कार दिया। वाल्मीकि गंगा और तमसा के बीच के अरण्य में रहते थे और प्रचलित निषाद-विश्वासों से उनका न प्रभावित होना ही अस्वाभाविक होता। रामकथा इस बात का प्रमाण है कि गंगातीर के निषादों का जीवन रामचंद्र द्वारा ही संस्कार-समृद्ध किया गया है। अतः राम का उनकी कल्पना के केंद्र में प्रवेश कर जाना असंभव नहीं। हो सकता है कि निषादों की कल्पना रही हो कि उनका प्रिय देवता जब माया-मनुष्य बनेगा, तो उसे विमाता दुःख देगी, उसे वन-वन भटकना पड़ेगा, वह दुखी देवता ही निषादों का आलिंगन कर के उन्हें परम पावन और शुद्ध बनाएगा और वही देवता ऐसा सुशासन स्थापित करेगा कि धरती पर से रोग-शोक-पाप की छाया हट जाएगी और दुःखी कोई नहीं रहेगा। और इस निषाद-कल्पना को राम के ऐतिहासिक चरित्र में वाल्मीकि ने संभवतः अंतर्मुक्त कर दिया है।

यह तो सभी जानते हैं कि असम, बंगाल या अन्य प्रदेश की निषाद जातियों यथा कैवर्तीं, धीवरों, तीयरों या मध्यप्रदेश के मुंडा, कोल आदि को जो भी माना जाता रहा हो, परंतु सनातन से गंगातीरी केवटों और माझियों को पवित्र माना जाता रहा है, तथा उनके द्वारा स्पर्श किया हुआ जल सनातन काल से ग्रहण किया जाता रहा है, क्योंकि रामचंद्र और बाद में इक्ष्वाकुओं के कुल-पुरोहित वशिष्ठजी ने निषादराज का आलिंगन कर के उनकी अस्पृश्यता समाप्त कर दी थी और उन्हें आर्य-महिमा से मंडित कर दिया था। राम नाम की सील मुहर के आगे मनुस्मृति भी नतमस्तक है। इस मिथकीय प्रसंग का ऐतिहासिक तात्पर्य यह है कि इक्ष्वाकुवंशीय आर्यों के संसर्ग में आकर गंगातीर के निषादगण आर्य सभ्यता के अंतर्गत आ गये। यहाँ तक कि निषादों ने भाषा भूलकर आर्य भाषा को ही मातृभाषा मान लिया। उनका खान-पान, रहन-सहन, आर्यों की पद्धति पर यथा सामर्थ्य चला गया। गंगातीर के केवट कहते हैं कि रामचंद्रजी ने उन्हें दो हुक्म दिये थे। एक तो नाव को तट पर बाँधकर भी जल में ही छोड़ देना, घसीटकर बालू पर नहीं करना। दूसरा यह कि कच्ची मछली कभी मत खाना। सदा नमक-हल्दी-सरसों देकर मछली खाना या भूनकर नमक के साथ खाना। यह दूसरी आज्ञा देखने में भले ही साधारण लगे, पर उनके अंदर नागरिकता और आर्य रीति के प्रवेश कराने का प्रयत्न है। अन्य प्रदेशों के निषादों की अपेक्षा गंगातीर के निषादों की चाल-चलन, कथन-भंगिमा आदि में विशिष्ठ गौरव झलकता है। अन्य जातियों के अपने-अपने लोककाव्य हैं, यथा अहीरों की 'लोरकी', कहारों का 'बिहुला' आदि। निषादों में नौका-नयन और प्रेम संबंधी फुटकल गीत अवश्य हैं, परंतु कथाकाव्य की जगह वे तुलसीदास की रामायण ही गाते हैं। राम ही उनके लोकनायक हैं, अन्य कोई नहीं। राम के प्रति उनमें एक सहज समर्पण और मोह है “तुम केवट भव सागर केरे। नदी नाव के हम बहतेरे।”


पूर्वी उत्तरप्रदेश के गंगातीरी निषादों में सात कुल है : केवट, चाँई, बथवा, धीवर, तीयर, सोरहिया और मुंडार (मुंडार शब्द ‘मुंडा’ से मिलता-जुलता है, जो मध्यप्रदेश की एक आर्यत्व वंचित निषाद शाखा का नाम है और हो सकता है कि सुदूर अतीत में इनसे कोई संबंध भी रहा हो।) इन सात कुलों में रामचंद्र का सखा निषादराज गुह किस कुल का था? चंदर भाई तो कहते हैं कि निषादराज चाँई थे। हमारे गाँव में चाँई और केवट दोनों हैं और दोनों यह गौरव लेना चाहते हैं। चाँई कहते हैं कि जेठे तो हमीं लोग हैं। शृंगवेरपुर वाले केवट हैं या चाँई, मुझे पता नहीं। ये गोस्वामी जी ने साफ़ लिखा है : ‘माँगी नाव न केवल आना।’ अतः मैं कहता हूँ कि शृंगवेरपुर का निषाद चाँई नहीं, केवट ही था। तब चंदर के लिए इतने बड़े कुल-गौरव को छोड़ना मुश्किल हो जाता है औऱ वे हठपूर्वक कहते हैं : “यहीं पर ज़रा-सी बिल्कुल ज़रा-सी, भूल गोसाईंजी से हो गयी है। बात यह है कि वे ब्राह्मण थे और हम लोगों की कुरी वगैरह भीतरी बातें वे क्या जानें? उन्हें लिखना चाहिए था ‘चाँई’ तो लिख दिया ‘केवट’। आखिर जेठी कुरी तो हम चाँई ही हैं। सभा का सरदार तो चाँई ही होता आया है।” चंदर के अनुसार शुद्ध पाठ होना चाहिए, ‘माँगी नाव न चाँई आना।’ या ‘तुलसी सुनि चाँइहि के वर बैन हँसे प्रभु जानकि ओर हहा है’ आदि। मैं समझता हूँ कि भाई चंदर, चाँई लोग तो इससे भी बृहत्तर गौरव के अधिकारी हैं। यह चाँई निषाद ही था, जिसके बाणों से क्रौंचवध हुआ और फल हुआ वाल्मीकि की छंद—सरस्वती का जन्म। चाँई नहीं होता तो रामायण ही लिखी नहीं जाती। अतः चाँई का कम महत्त्व नहीं परंतु तो भी चाँई कुल-कमल-दिवाकर चंदर निषाद इस प्रश्न पर संधि नहीं करते और अपनी ही फेंटते जाते हैं कि गुह निषाद उनके ही कुल ‘चाँई’ का पूर्वपुरुष था। अंत में मुझे चाँई-गौरव के प्रति नतमस्तक होकर चुप हो जाना पड़ता है।

मैं अपनी जन्मभूमि गंगातट से प्रायः दूर रहने को बाध्य हूँ और जीविकोपार्जन के लिए इस किरातारण्य से घिरे आर्यों के बीज, लौहित्य तट पर, निवास कर रहा हूँ। मेरे पैरों में चक्र है और मुझे दर-दर भटकने का शाप मिला है। इस शाप भोग में भी बड़ा रस है, बड़ा सुख है। परंतु फिर भी कभी-कभी थक जाता हूँ और मन उदासी का व्यूह काटने में असमर्थ हो जाता है। तब अपने भीतर आत्मा को चींथते-फाड़ते कुत्तों को सम्मोहन में लाकर फिर थपकी देकर सुला देने के लिए मुझे किसी श्लोक, किसी गान अथवा किसी दृश्य का चिंतन करना पड़ता है और ऐसे वेदना विकल क्षणों में अपनी प्यारी नदी की ज्योत्स्ना विगलित रजत-धारा, चंदर की बातें और मीन—मिथुन जैसी दोनो भाभियों रूपसी और पियासी के गाये गीतों की मनोरम स्मृतियाँ बड़े काम की साबित होती हैं। जब मेरे मन के अंदर उन दोनों द्वारा गाये गये किसी गीत की स्मृति जगती है, और मन भीतर ही भीतर उसे गाने लगता है तो लगता है कि आत्मा और मन के सारे नख—दंत-क्षतों पर अपनी प्यारी नदी की झिर-झिर धार प्रवाहित होने लगी। लगता है कि वेदना-विकल मस्तक में किसी सुखद शीतल देवधुनी का जन्म हो रहा है, ऊपर से कोई फूल बरसा रहा है, उनके लिए हल्दी, सिंदूर और मेरे लिए भोग-प्रसाद का भार लादे हुए। यह ध्यान-लब्ध दृश्य मुझे तीनों लोकों का राजा बनाकर निहाल कर जाता है, और मैं भूल जाता हूँ अपने कंठस्वर की अष्टावक्र भंगिमा को और मैं भी गुनगुनाने लगता हूँ उन्हीं से सुना हुआ एक गान :


“राधे-रुकमिनि चलेनी नहनवा, सुखा के गंगा ना।

भइली बलुआ क रेतवा, सुखा के गंगा ना!


रोवेली अटइन-रोवेली बटइन, रोवे कुआँ क पनिहारिन ना।

मुँहव रुमलिया देके रोवेला केवटवा


कि मोरी बोझल नइया अगम भइली ना!”

“राधा और रुक्मिणी स्नान को चली हैं, पर गंगाजी सूख गयी हैं, यह पापहरा नदी मृत हो चुकी है, चारों ओर बालू की रेती है, चारों ओर तृषा ही तृषा है, अटवी-कन्या रो रही है, बटोही की वधू रो रही है, मुँह पर रूमाल रखकर बेचारा निषाद रो रहा है कि उसकी बोझी नौका अब अगम हो गयी!” फिर गीत आगे चलता है औऱ राधा अपने आँचल की खूँट में बँधी सात फूल लौंग रुक्मिणी को देती हैं। रुक्मिणी लौंग को रगड़कर पीसती हैं। राधा और रुक्मिणी नतजानु होकर नदी माता को लौंग-धार का अर्घ्य देती हैं। और तब, गीत की अंतिम कड़ी में :


“राधे रुकमिनि कइली पूजनिया, छछा के गंगा ना

भइली दूनो नख आर-पार, छछा के गंगा ना!


हँसेले अटइन, हँसेले बटइन, हँसे कुआँ क पनिहारिन ना!

फेंक के रुमलिया हँसेला केवटवा,


कि मोर बोझल नइया ऊपर भइली ना!”

“राधे और रुक्मिणी ने छछाकर अर्थात हुलासपूर्वक गंगा का पूजन किया। नदी ने भी उल्लासपूर्वक आशीष देकर दोनों तटों को नखानक (लबालब) जल से परिपूर्ण कर दिया। चारों ओर प्रसन्नता छा गयी। जीवन लौट आया। अटवी कन्या हँस पड़ी। बटोही की वधू हँस पड़ी। कुएँ की पनिहारिन भी हँस पड़ी और सबसे बढ़कर नदी की संतान केवट मुँह पर से रूमाल फेंककर मुक्तकंठ से ठहाका लगाकर हँस पड़ा कि उसकी बोझी नौका अब ऊपर हो गयी, अब यह नदी का अगम जल ही तरणी का सुगम मार्ग बन गया, अब उसकी नाव गंतव्य दिशा की ओर बाणवेग से छूटेगी।


शनिवार, 14 दिसंबर 2024

ह्यूमन एक्ट्स: हान कांग



"ह्यूमन एक्ट्स" दक्षिण कोरियाई लेखिका हान कांग का एक ऐसा उपन्यास है, जो मानवाधिकार, हिंसा, और पीड़ा के मुद्दों पर गहराई से विचार करता है। यह पुस्तक 1980 में दक्षिण कोरिया के ग्वांगजू विद्रोह और उसके भीषण दमन के दौरान हुई घटनाओं को आधार बनाकर लिखी गई है। इसमें न केवल ऐतिहासिक सच्चाईयों का चित्रण है, बल्कि मानवीय संवेदनाओं की जटिलताओं को भी उजागर किया गया है।


कहानी का सारांश:

ग्वांगजू विद्रोह में एक युवा छात्र डोंग-हो की मौत के साथ कहानी शुरू होती है। उसकी मृत्यु के इर्द-गिर्द घूमते हुए, यह उपन्यास उन लोगों की भावनाओं और संघर्षों को सामने लाता है, जो इस हिंसा से प्रभावित होते हैं। हर अध्याय एक अलग पात्र की दृष्टि से लिखा गया है—कभी डोंग-हो के मित्र, कभी एक संपादक, और कभी एक मृत आत्मा के रूप में। यह संरचना पाठकों को हिंसा के व्यक्तिगत और सामूहिक प्रभाव दोनों से जोड़ती है।


मुख्य विषय:

  1. हिंसा और पीड़ा:

    • उपन्यास यह दिखाता है कि कैसे एक तानाशाही सत्ता निर्दोष नागरिकों के जीवन को तहस-नहस कर सकती है।
    • हिंसा का शारीरिक और मानसिक प्रभाव उपन्यास की प्रत्येक पंक्ति में झलकता है।
  2. स्मृति और सामूहिक दर्द:

    • इसमें उन यादों और दर्द की बात की गई है, जिन्हें समय मिटा नहीं सकता।
    • यह पुस्तक हमें उस दर्द से जोड़ती है, जो पीढ़ियों तक लोगों को प्रभावित करता है।
  3. मानवीय गरिमा:

    • "ह्यूमन एक्ट्स" इस सवाल को उठाती है कि क्रूरता और अमानवीयता के बीच मानवता कैसे जीवित रह सकती है।

शैली और भाषा:

हान कांग की लेखनी मार्मिक और गहराई लिए हुए है। उनकी भाषा में एक ऐसी काव्यात्मकता है, जो पाठकों को घटनाओं का हिस्सा बना देती है। अनुवाद (डेबोरा स्मिथ द्वारा) भी अत्यंत प्रभावशाली है, जो मूल कोरियाई भाषा के भावों को सुंदरता से प्रस्तुत करता है।


सकारात्मक पहलू:

  1. भावनात्मक गहराई:
    यह उपन्यास पाठकों को गहराई से झकझोरता है और उन्हें हिंसा के मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों को समझने पर मजबूर करता है।
  2. चरित्र चित्रण:
    हर पात्र का अनुभव और उसकी प्रतिक्रिया कहानी को और जीवंत बनाते हैं।
  3. संदेश:
    उपन्यास सहानुभूति, करुणा और मानवता की शक्ति को रेखांकित करता है।

नकारात्मक पहलू:

  1. कठिन पढ़ाई:
    कुछ पाठकों के लिए यह उपन्यास पढ़ना कठिन हो सकता है क्योंकि इसकी विषयवस्तु बहुत ही भावुक और दुखद है।
  2. धीमी गति:
    कहानी की संरचना धीमी गति से आगे बढ़ती है, जो कभी-कभी धैर्य की परीक्षा लेती है।

पुस्तक का संदेश:

"ह्यूमन एक्ट्स" पाठकों को यह समझने का मौका देती है कि हिंसा और क्रूरता केवल शारीरिक क्षति तक सीमित नहीं होती, बल्कि यह स्मृतियों और आत्मा तक को घायल कर देती है। यह पुस्तक न्याय, मानवाधिकार और सहनशीलता के महत्व पर जोर देती है।


निष्कर्ष:

यह पुस्तक उन लोगों के लिए है, जो गंभीर साहित्य पढ़ने और मानवता के गहरे सवालों का सामना करने का साहस रखते हैं। "ह्यूमन एक्ट्स" केवल एक ऐतिहासिक कथा नहीं है; यह मानवता का दर्पण है।

मंगलवार, 26 नवंबर 2024

हान कांग की रचना द वेजिटेरियन की समीक्षा



हान कांग का उपन्यास द वेजिटेरियन (2007) न केवल दक्षिण कोरियाई साहित्य का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है, बल्कि यह विश्व साहित्य में भी एक अलग स्थान रखता है। 2016 में इस पुस्तक ने अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार जीता और हान कांग को वैश्विक ख्याति दिलाई। यह उपन्यास नारीवाद, मानवता, मानसिक स्वास्थ्य, और सामाजिक दबावों जैसे जटिल विषयों को खूबसूरती और गहराई के साथ प्रस्तुत करता है।


कथानक और संरचना

उपन्यास तीन भागों में विभाजित है, और प्रत्येक भाग एक अलग दृष्टिकोण से कहानी को प्रस्तुत करता है। यह कहानी एक साधारण महिला यॉन्गहे के इर्द-गिर्द घूमती है, जो अचानक मांसाहार छोड़ने का फैसला करती है।

यह निर्णय एक प्रतीत होने वाला साधारण कदम है, लेकिन इसका उसके परिवार और समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। यॉन्गहे का मांसाहार छोड़ना केवल एक व्यक्तिगत पसंद नहीं, बल्कि वह सामाजिक और पितृसत्तात्मक संरचनाओं के खिलाफ एक मौन विद्रोह है।

तीन दृष्टिकोण

  1. पहला भाग (द वेजिटेरियन):
    कहानी यॉन्गहे के पति के दृष्टिकोण से शुरू होती है, जो उसे "साधारण और उबाऊ" महिला मानता है। यॉन्गहे का अचानक शाकाहारी बनने का निर्णय उसके पति के लिए असुविधा और क्रोध का कारण बनता है। पति का व्यवहार एक ऐसे समाज का प्रतीक है, जहां महिलाओं की स्वतंत्रता और उनकी पसंद का सम्मान नहीं किया जाता।

  2. दूसरा भाग (मंगोल स्पॉट):
    यह हिस्सा यॉन्गहे के जीजा की दृष्टि से बताया गया है। वह यॉन्गहे के शरीर को कला और कामुकता के माध्यम से देखता है। यह भाग यॉन्गहे की वस्तुकरण और समाज द्वारा उसकी पहचान मिटाने पर केंद्रित है।

  3. तीसरा भाग (फ्लेम्स):
    कहानी यॉन्गहे की बहन के दृष्टिकोण से खत्म होती है, जो उसकी मानसिक और शारीरिक गिरावट को देखती है। यॉन्गहे की बहन का संघर्ष दिखाता है कि पारिवारिक संबंधों के बीच व्यक्तिगत स्वतंत्रता की खोज कितनी मुश्किल हो सकती है।


प्रमुख विषय

  1. मानसिक स्वास्थ्य और सामाजिक दबाव:
    यॉन्गहे का शाकाहारी बनने का फैसला उसकी मानसिक स्थिति का प्रतिबिंब है। यह समाज के पितृसत्तात्मक और दमनकारी रवैये के खिलाफ उसका एकमात्र विद्रोह है। उपन्यास मानसिक स्वास्थ्य के प्रति समाज की उदासीनता को उजागर करता है।

  2. शरीर और स्वायत्तता:
    द वेजिटेरियन शरीर पर नियंत्रण, इच्छा, और समाज द्वारा लगाए गए मानकों पर सवाल उठाती है। यॉन्गहे के शरीर को उसके पति, जीजा, और डॉक्टर सभी अपने-अपने नजरिए से देखना चाहते हैं, लेकिन उसकी अपनी पहचान और इच्छाओं को अनदेखा करते हैं।

  3. कला और हिंसा:
    उपन्यास में कई प्रतीकात्मक दृश्य हैं, जहां कला और हिंसा एक साथ दिखाई देती हैं। यॉन्गहे का जीजा उसकी नग्नता को कला के रूप में देखता है, लेकिन यह उसकी स्वायत्तता का उल्लंघन भी है।

  4. पर्यावरण और आध्यात्मिकता:
    यॉन्गहे के शाकाहारी बनने और अंततः खाना छोड़ने का निर्णय प्रकृति और शांति की ओर लौटने की उसकी इच्छा को दर्शाता है। वह पेड़ बनना चाहती है—एक ऐसा अस्तित्व जो हिंसा और उपभोग से मुक्त हो।


भाषा और शैली

हान कांग की लेखनी काव्यात्मक और तीव्र है। उपन्यास के छोटे-छोटे वाक्य, सरल भाषा, और प्रतीकात्मकता इसे गहराई प्रदान करते हैं। यॉन्गहे के सपनों के दृश्य डरावने और भ्रामक होते हैं, लेकिन वे उसके मन की स्थिति को गहराई से व्यक्त करते हैं।


समीक्षा और आलोचना

  1. प्रशंसा:
    द वेजिटेरियन को उसके गहन प्रतीकवाद, साहसिक विषयों, और यथार्थवादी चरित्रों के लिए सराहा गया। इसकी काव्यात्मकता और गहराई इसे एक असाधारण कृति बनाती है।

  2. आलोचना:
    कुछ आलोचकों का मानना है कि उपन्यास का प्रयोगात्मक स्वरूप और अधूरे संवाद हर पाठक के लिए सहज नहीं हो सकते। यॉन्गहे का चरित्र कई जगह रहस्यमय लगता है, जो उसे समझने में कठिनाई पैदा करता है।


उपसंहार

द वेजिटेरियन केवल एक कहानी नहीं है, बल्कि यह समाज, शरीर, और स्वतंत्रता पर एक गहन दार्शनिक चिंतन है। हान कांग ने इस उपन्यास के माध्यम से मानवीय स्वभाव, रिश्तों, और सामाजिक संरचनाओं पर तीखे सवाल उठाए हैं। यह पुस्तक उन पाठकों के लिए है, जो साहित्य के माध्यम से गहराई और जटिलता का अनुभव करना चाहते हैं।

अनुशंसा: यदि आप साहित्यिक गहराई और मानवीय संवेदनाओं को समझने की इच्छा रखते हैं, तो द वेजिटेरियन आपकी पढ़ने की सूची में अवश्य होनी चाहिए।

रविवार, 10 नवंबर 2024

गाँधी-दर्शन और कुबेरनाथ राय

 


कुबेरनाथ राय खांटी भारतीय चिंतक रहे हैं। उनके लेखन और मानसिक संस्कार दोनों में भारतीयता कूट-कूट कर भरी हुई है। लेकिन वे आधुनिक विश्व-चिंतन से न तो अनाभिज्ञ रह रहे हैं और न ही तटस्थ हैं। उन्होंने अपने आलेख का पहला उद्देश्य 'हिन्दुस्तानी मन को आधुनिक विश्व-चिंतन से लेकर बाबा की चित्तवृत्ति तक' का विस्तार बताया है। यह काम उन्होंने अपनी भाषा में लिखा है। इसकी अहासा आशिक कृतियों में होमर, वर्जिल, शेक्सपियर द्वारा लिखे गए निबन्धों µ 'होमरः आत्मकथ्य', 'निसंह-द्वार का कवि प्रेत'; संस्करण , कवि-प्रेत ने कहाः शेक्सपियर' ; त्रि 'रस-आलेख' में संग्रहालयीताद्ध µ में उन्होंने दिया था। वे इन निबंधों में उस जमीन की तलाश करते दिखाई देते हैं, जिस पर आधुनिक विश्व-चिंतन ने आकार दिया है। 'विषाद-योग' में इस पक्ष का पूर्ण विकास है। उन्होंने आधुनिक विश्व-चिंतन पर दस निबन्ध लिखे हैं। इनमें समाजवाद, साध्यवाद और व्यवहारवाद पर विचार हैं। 'कामू, सात्र, हरवर्ट मैक्यूज़ आदि पर उन्होंने स्वतंत्र निबन्ध भी लिखे हैं। इन निबन्धों में उद्देश्य उनके तथ्यात्मक गुरु या विश्लेषण से भिन्न है। भारतीय मानस की प्रति-अनुकूलता और वर्तमान की प्रति-अनुकूलता के सिद्धांतों पर नजर रखी जा रही है।

गांधी-दर्शन कुबेरनाथ राय के लेखन की चौथी दिशा है। यद्यपि जगह-जगह उन्होंने गांधी से असहमतियां भी व्यक्त की गई हैं, तथापि , गांधी जी की मान्यताओं को स्वीकार भी करते हैं। उनका मानना ​​है कि सत्य और अहिंसा का गांधी सूत्र भारतीय जीवन-दृष्टि का सार-तत्व है। इसमें एक का प्रतिनिधि ब्राह्मण-परम्परा है और दूसरे का प्रतिनिधि ब्राह्मण-परम्परा है। ये दोनों समन्वित रूप से भारतीयता की स्थापना रचित हैं। गांधी ने इन दोनों को ग्रहण करके अपने युगीन आविष्कार के संग्रहालय अभय को जोड़ा है। इसलिए वे उन्हें असली भारतीय मानते हैं। वे उनकी सौन्दर्य दृष्टि और साहित्य दृष्टि के कायल थे। वे इस स्तर पर उन्हें बौळ और जैन दर्शनों के निकट मानते थे। उनका था गांधीजी की सौन्दर्य दृष्टि का सूत्र बौतों के 'शीलगंधो अनुत्तरो' का अनुकरणीय सूत्र के और भी करीब है। वे इसे 'शातं सहजं सुंदरम्' के सूत्र द्वारा परिभाषित करते हैं। उन्होंने गांधीजी के केंद्र में पूरी तरह से एक पुस्तक 'पत्र: मणिपुतुल के नाम' लिखी है। इस पुस्तक का पहला निबन्ध 'पाँत का आखिरी आदमी' आधुनिक युवा पीढ़ी को मूर्ति और बेरोजगारी की समस्या पर केन्द्रित है। उन्होंने गांधी की आर्थिक-दृष्टि के सन्दर्भ में एक जगह लिखा है-''भारतीय परंपरा का अनुष्ठान करते हुए गांधी जी ने आत्मा पर आधारित एक अर्थशास्त्र की परिकल्पना की है जो शास्त्र में सही अर्थों की श्रावक पूर्णता प्रदान करता है। यह अहिंसा और जीवन-निष्ठा पर आधारित है। जिस तथ्य से किसी प्रकार का अवदमन या दमनकारी कार्यकर्ता हो , अपना या किसी और का , वह अहिंसा नहीं है।'' ; मेराल: पृष्ठ , 68 द्ध उन्होंने इस पुस्तक से भिन्न गांधी-दर्शन पर अनेक फुटकर निबन्ध लिखे हैं। इनमें से 'मेराल' में 'गांधी की मुक्ति' और 'चिन्मय भारत' का 'गांधी चिंतन का महायान' प्रमुख हैं।

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