गांव की ईट की इन भट्ठियों में रहकर उनकी तपन सहकर और फिर भी इन घरों के प्रति अथाह राग रखकर हम डार्विन के श्रेष्ठतम की उत्तर जीविता को निरंतर प्रमाणित करते रहे हैं साथ ही स्वयं को सृष्टि का श्रेष्ठतम प्राणी भी। हम सरकार बहादुर की उस कृपा के भी ऋणी हैं, जिसकी भयंकर कृपा से जेठ की इस तपती दुपहरिया में हम बिजली कटौती के कारण यह महान कर्म संपन्न कर रहे हैं।
इसमें बिजली कटौती एक मात्र कारक नहीं है, विकास के मानकों में बदलाव भी है। जिन खपरैल और मिट्टी के घरों को विकास के प्रतिकूल मानकर हमने त्याग दिया और सरकार भी घर का मतलब पक्के घर मानकर सबको कच्चे की जगह पक्के घर देने की योजना चला रही है, वे ऊर्जा खपत के लिहाज से बचत वाले और पर्यावरण अनुकूल थे। उनका निर्माण स्थानीय संसाधनों से होता था।
सीमेंट, लोहे, गिट्टी के लिए इन घरों ने पर्यावरण को जितना नुकसान पहुंचाया वह इसका दूसरा पहलू है। अगर बात रोजगार की ही हो तो गांव के बढ़ई और कुम्हार जैसी कामगारों की कला के नष्ट होने और उनकी बेकारी पलायन तथा नगरों उपनगरों में झुग्गियां बढ़ाने से ज्यादा इसने हमें कुछ नहीं दिया।
इससे विस्थापित और उखड़े हुए लोगों भीड़ बढ़ी। बेरोजगारी, सहजता और सौमनस्य की जगह उग्रता, आक्रामकता, मूल्यहीनता और हिंसा को बढ़ावा मिला।
ठेकेदारी और मशीनी निर्माण में संबंधों की वह आत्मीयता नहीं जो नारिया खपड़ा बनाते और छाजन पर चढ़ उन्हें अपने कला प्रवीण हाथों से लगाते चंदेव बाबा (कुम्हार) और धरन, बड़ेर खंभा गढ़ते सीताराम चाचा (बढ़ई) से हमने बचपन में महसूस की।
एक स्थाई और बड़ा बदलाव इसने भारतीय स्थापत्य, कला और सौंदर्य में भी किया है। इसने आरोह-अवरोह और वर्तुलता को पूरी तरह से विस्थापित कर उसे बेहद रेखीय, सपाट और चौकोर बना दिया है। इसने मेहराबों, खंभों और दरवाजों की नक्काशियों को नष्ट नहीं किया, जीवन के उतार चढ़ाव और लचीलेपन को भी नष्ट किया। हमारी सोच और जीवन की सपाटता में इस स्थापत्य और कला का भी हाथ है। जब सुरुचि का विकास करने वाली कला और स्थापत्य ही सपाट और नुकीली होगी तो भला जीवन क्यों नहीं होगा? वह भी निश्चित तौर पर सपाट, उग्र और उत्तेजक होगा और उसकी परिणीति होगी हिंसा, टूटन और, अलगाव।
हम गांवों से विस्थापित नहीं हुए, संबंधों, अभिरुचि, दृष्टि, बोध और मूल्यों से भी विस्थापित हुए हैं। हमने मिट्टी के घर नहीं, उन घरों में बसी अपनी स्मृतियां भी तोड़ी हैं। इसीलिए हम मूल्य भ्रंश स्मृति भ्रंश को अपने साथ दो रहे हैं। कल तक यह भ्रंश हमारे बाहरी दबावों से जुड़ा जुड़ा सा था।
सामाजिक माध्यमों और संचार के द्रुत माध्यमों ने इसे शिथिल कर दिया। सबकुछ सतह पर आगया। यूं ही नहीं आत्मघात और घरेलू हत्याओं में वृद्धि हुई। स्नेह, प्रेम दाम्पत्य दरक टूटा और बिखर गया। परिजन पुरजन भ्रातृत्व के प्रेम जब टूटते रहे हम विकास का जश्न मनाते रहे। मिट्टी की खुशबू महसूस करना जब हमारी नाकों ने बंद किया तो हमने या तो उसे झुग्गियों की बजबजाती नालियों की गंध में खो दिया या इत्र की खुशबू से भर दिया। लेकिन अब जब यह मनुष्य की लाशों, आत्मीय कहे जा सकने वाले लोगों की घृणित बदबू से अपने आप भरने लगी तो हममें से कुछ भौंचक हैं और बहुत 'आई डोंट केयर' वाले अंदाज़ में जी रहे हैं।
जो भौंचक हैं, उनमें माटी की गंध किसी कोने में अब भी बची है, वे अब भी चचा डार्विन के पूरे चेले नहीं बने हैं। वे दुर्लभ हैं और उन्हें तत्काल संरक्षित करने की जरूरत है। टूटते घरों और घरौंदों को तो हम नहीं बचा पाए पर इन अजूबों को किसी म्यूजियम या प्रयोग शाला में जरूर रखकर बचाना होगा। ताकि हम कह सकें कि इंसानियत के कुछ नमूने अब भी हमारे पास हैं।